आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में और मंहगाई के दौर में हर किसी के लिए भगवान की विधिवत् षोडशोपचार पूजा के लिए न तो समय है और न ही साधन; इसलिए आज के समय में भगवान की मानसी-सेवा, पूजा का बहुत महत्व है । मानसी-सेवा बाह्य पूजा से कई गुना अधिक फलदायी है क्योंकि मानसी-सेवा में मन को दौड़ने की और कल्पनाओं की उड़ान भरने की पूरी छूट होती है । मानसी-सेवा करने वाले के मन में नये-नये भाव जाग्रत होते हैं । मानसी-सेवा में सामग्रियों को जुटाने व भगवान को अर्पित करने में आराधक को जितना समय लगता है, उतना समय वह अन्तर्जगत में बिताता है । इस तरह मानसी-सेवा साधक को समाधि की ओर अग्रसर करती है । इसलिए कलिकाल में मनुष्य मानसी-सेवा द्वारा बाह्य पूजा से कई गुना अधिक फल प्राप्त कर सकता है ।
मानसी-सेवा के अद्भुत प्रभाव को दर्शाती एक सत्य भक्ति कथा
बहुत पुरानी बात है, वृन्दावन में एक सन्त रहते थे । उनके पास बालकृष्ण की एक मूर्ति थी जिसे वह अपना पुत्र मानते थे और स्वयं को नंदबाबा समझकर श्रीकृष्ण की मानसिक सेवा किया करते थे । श्रीकृष्ण का चरित्र ही इतना अद्भुत है कि उनसे आप अपना कोई भी नाता (पिता, पुत्र, स्वामी, पति, सखा, दास आदि) जो भी आपको अच्छा लगे, जोड़ सकते हैं—
तोहि मोहि नाते अनेक मानिये जो भावै ।
ज्यों-त्यों तुलसी कृपालु चरन-सरन पावै ।। (विनय-पत्रिका ७९)
संत बाबा ब्राह्ममुहुर्त से लेकर रात्रि में शयन करने तक कन्हैया की मानसिक सेवा करते और मन से ही उन्हें सभी वस्तु अर्पण करते थे । प्रात:काल ही लाला (व्रज में लड्डूगोपाल को लाला कहते हैं) को भूख लगी होगी—ऐसा सोचकर कन्हैया के लिए दूध, मलाई, मिश्री का मानसिक रूप से प्रबन्ध करते । दोपहर में लाला से पूछते ‘क्या खायेगा ?’, वही तैयार करते । शाम को ब्यारु (रात्रि भोजन) कराते और रात को सोते समय दूध पिलाते ।
गीता (९।२६) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ।।
अर्थात्—पत्र, पुष्प, फल, जल जो मुझे भक्ति से अर्पण करता है, उसे मैं सगुणरूप में प्रकट होकर प्रेमपूर्वक स्वाद के साथ खाता हूँ ।
लाला के प्रति बाबा का वात्सल्यभाव इतना प्रगाढ़ हो गया था कि वे हर समय उन्हीं के ध्यान में मग्न रहते, उसे लाड़ लड़ाते रहते थे । रात्रि में लाला के बिस्तर के साथ अपना बिस्तर लगाते और उठकर देखते कि कहीं लाला ने मल-मूत्र तो नहीं कर दिया और मानसिक रूप से ही बिछौना खराब होने की आशंका से उसे बदलते थे ।
कभी भावना करते कि आज कन्हैया फल मांग रहा है । बाबा बाजार जाते और फल वाले के पास, हलवाई के पास और खिलौने वाले के पास जाकर नेत्र बंद करके खड़े हो जाते और हाथ जोड़ कर लाला को मन-ही-मन वस्तु अर्पण करके मन में संतुष्ट हो जाते कि मेरा लाला सभी चीजें पाकर प्रसन्न होकर खेल रहा है । कभी उन्हें लगता कि नटखट कन्हैया मेरी दाढ़ी खींच रहा है और वे उसकी चुटकी लेकर अपनी दाढ़ी छुड़ाते ।
संत बाबा यमुना-स्नान को जाते तो लाला को स्नान के लिए साथ ले जाते । एक बार बाबा के कपड़ों में उलझकर लाला यमुना में गिर गया तो वे अपने को धिक्कार कर रोने लगे और कहने लगे—‘अब मान जा, और बता दे कि तू कहां पर है ?’ तब उन्हें पानी में एक जगह लाला का आभास हुआ तो वे यमुना में कूद कर उसे बाहर लाए । लाला को पौंछकर पुचकारते हुए नये वस्त्र पहनाये और रोने लगे । उन्हें लगा लाला उन्हें पुचकार रहा है । अब वे बड़ी सावधानी से लाला को किनारे पर बिठाकर लोटे से स्नान कराते थे ।
एक बार बाबा के एक शिष्य ने उन्हें काशी आने का संदेश भेजा । बाबा जाने को तैयार हुए तो उन्हें लगा कि उनका कन्हैया उन्हें जाने से रोक रहा है और कह रहा है—‘मुझे छोड़ कर काशी न जाना, मुझे तुम्हारे साथ यहां बहुत अच्छा लगता है ।’ बाबा कहते मेरा लाला अभी छोटा है, बड़ा भोला है, मुझे कन्हैया को छोड़कर कहीं नहीं जाना है ।
धीरे-धीरे समय की गति के साथ बाबा का शरीर जीर्ण हो गया और उन्हें जरावस्था ने घेर लिया, पर उनका कन्हैया छोटा-सा लाला ही बना रहा । एक दिन लाला की मानसी-सेवा करते-करते बाबा के जीर्ण शरीर से प्राण निकल कर पंचतत्त्व में विलीन हो गये । लाला बाबा के बगल में बैठा रह गया और बाबा उसके धाम को चले गए । शिष्यों को जब बाबा के महाप्रयाण का पता लगा तो वे उनके शरीर को लेकर श्मशान आ गये और अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगे ।
तभी वहां एक सात-आठ साल का सुन्दर, सलौना बालक घोती पहने व कंधे पर गमछा रखे पहुंचा । उसने कंधे पर एक मिट्टी का घड़ा रखा था जिसके ढक्कन पर अंतिम क्रिया की सामग्री रखी हुई थी ।
आगन्तुक बालक ने शिष्यों से कहा—‘ये मेरे पिता हैं, मैं इनका मानस पुत्र हूँ, इसलिए इनका अंतिम संस्कार करने का मेरा अधिकार है । पिता की अंतिम इच्छा पूरी करना मेरा धर्म है । मेरे पिता की बहुत दिनों से गंगास्नान करने की इच्छा थी, परन्तु मेरे छोटे होने के कारण वे मुझे छोड़कर कहीं नहीं गये, इसलिए मैं यह गंगाजल का घड़ा लेकर आया हूँ ।’
सभी उपस्थितजन उसकी बात सुनकर स्तब्ध रह गये । उस बालक ने बाबा के शरीर को स्नान करा कर चन्दन लगाया, फूलमाला आदि पहना कर उनका पूजन-वंदन किया फिर परिक्रमा कर अंतिम क्रिया की । सभी लोग देखते रह गये, किसी की भी उसे रोकने-टोकने की हिम्मत नहीं हुई । कुछ ही देर बाद वह बालक अदृश्य हो गया ।
तब जाकर शिष्यों को याद आया कि बाबा के तो कोई पुत्र था ही नहीं, हां, बालकृष्ण को ही वे अपना पुत्र मानते थे । कन्हैया ही पुत्र बनकर आया और पुत्र धर्म का निर्वाह कर चला गया ।
गीता (१२।७) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।
अर्थात्—‘हे अर्जुन ! जो मेरी सेवा करता है, मुझमें चित्त लगाता है, उसे मैं मृत्यु रूप संसार-सागर से पार कर देता हूँ अर्थात् वह शीघ्र ही मुझे प्राप्त हो जाता है ।’भगवान ने गीता के अपने वचन ‘योगक्षेम वहाम्यहम्’ के अनुसार संत बाबा को सायुज्य-मुक्ति प्रदान कर दी ।