पुरुषोत्तम क्षेत्र (पुरी) में काष्ठ का शरीर धारण कर निवास करने वाले भगवान जगन्नाथजी कलिकाल के साक्षात् परब्रह्म हैं; लेकिन वे सुबह से लेकर रात तक और ऋतुओं के अनुसार एक आदर्श गृहस्थ की तरह अनेक लीलाएं करते हैं । वे खाते-पीते हैं, गरमी में जलविहार करते हैं, स्नान करते हैं, उन्हें ज्वर भी आता है, औषधियों के साथ काढ़ा पीते हैं, अच्छे होने पर मौसी के घर जाने के लिए रथयात्रा निकालते हैं । रथयात्रा में लक्ष्मीजी को साथ न ले जाने के कारण जब वे मान करती हैं, तब आदर्श पति की तरह जगन्नाथजी उन्हें मनाते हैं । इस तरह वे परब्रह्म होने पर भी जन साधारण के बीच केवल ‘उनके अपने’ बन कर पुरी में विराजते हैं ।
कौन हैं भगवान जगन्नाथ ?
भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर महोत्सव को जानने के लिए यह जानना जरुरी है कि भगवान जगन्नाथ कौन हैं ? त्रेतायुग में रामावतार में भगवान श्रीराम ने बालि का वध किया । पिता के निधन से बालिपुत्र अंगद को दु:खी देकर भगवान श्रीराम ने कहा–’मैं तेरा अपराधी हूँ । तुम द्वापरयुग में कृष्णावतार में मुझे दण्ड देना । कृष्णावतार में तुम शवर वंश में जन्म लोगे और शापग्रस्त बाण से मेरे चरण में प्रहार करोगे ।’ यह अंगद ही कृष्णावतार में जरा व्याध बना जिसने प्रभास क्षेत्र में मृग के संदेह में जो बाण मारा वह भगवान श्रीकृष्ण के चरण में लगा और भगवान नित्यलीला में प्रविष्ट हो गए ।
जरा व्याध ने इन्द्रप्रस्थ जाकर पांडवों को भगवान के परलोकगमन की सूचना दी । अर्जुन सहित पांडवों ने वहां आकर भगवान के दर्शन किए । उसके बाद द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी । विलाप करता हुआ अर्जुन समुद्र के जल में घुसा तो उसे श्रीकृष्णतेज से उत्पन्न पवित्र इन्द्रनीलमणि प्राप्त हुई, जिसे लेकर पांडवों ने श्राद्ध किया । बाद में समुद्रजल से प्राप्त वस्तु को समुद्र के जल में ही विसर्जित कर दिया । भगवान की लीला से वह इन्द्रनीलमणि पश्चिम समुद्र से बहकर पूर्वी समुद्र के किनारे पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथपुरी) में पहुंच गई । वहां जरा व्याध के वंशज विश्वावसु वैष्णव ने श्रीकृष्णदेह से निकली उस इन्द्रनीलमणि को प्राप्त कर गुप्त रूप से कन्दरा में स्थापित कर दिया और अपने परिवार के साथ उसकी पूजा करने लगा । इस विग्रह का नाम उसने नीलमाधव रखा ।
भगवान नीलमाधव के शरीर का रोम गिर कर वृक्षभाव को प्राप्त हुआ । इस पृथ्वी पर वह स्थावर (जड़) रूप से भगवान का अंशावतार है । भगवान महाविष्णु वृक्ष (नीम का पेड़, दारु) के रूप में प्रकट हुए, जिससे भगवान जगन्नाथ, बलभद्रजी और सुभद्रा के काष्ठमय विग्रह बने; इसीलिए उन्हें ‘दारु ब्रह्म’ कहते हैं । भगवान जगन्नाथजी के दारु विग्रह के भीतर श्रीकृष्णतेज से उत्पन्न इन्द्रनीलमणि विग्रह स्थापित है । अत: वे साक्षात् वासुदेव कृष्ण हैं ।
भगवान जगन्नाथजी का नवकलेवर महोत्सव
मनुष्य शरीर की एक अन्य लीला है—जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। (गीता २।२२)
गीता में कही गई यह बात भगवान जगन्नाथजी के लिए भी कही जा सकती है । भगवान जगन्नाथ का दारु विग्रह जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर उस घट का भी परिवर्तन किया जाता है । उस घट परिवर्तन को ‘नवकलेवर महोत्सव’ कहा जाता है । भगवान जगन्नाथ, बलभद्रजी और सुभद्राजी के पुराने दारु-विग्रह या घट के कुछ अंश खराब हो जाने पर इन अंशों का संस्कार किया जाता है; उसे ‘श्रीअंग फिटा’ कहते हैं ।
जिस साल आषाढ़ महीने में अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) या मल मास होता है अर्थात् जिस साल आषाढ़ के दो महीने होते हैं, उस वर्ष भगवान जगन्नाथ का ‘नवकलेवर समारोह’ मनाया जाता है । प्राय: बारह वर्ष के अंतराल में दो आषाढ़ पड़ते हैं; तब भगवान जगन्नाथ नवकलेवर धारण करते हैं । भगवान जगन्नाथ की नवीन दारु मूर्ति के अंदर कृष्णसत्ता पूजन के रूप इन्द्रनीलमणि मूर्ति प्रतिष्ठित की जाती है।
नवकलेवर के लिए ‘दारु (काष्ठ) संग्रह’
इस अवसर पर ‘दारु संग्रह’ का अपना विशेष महत्व होता है । जिस साल नव कलेवर होता है, उसी साल चैत्र पूर्णिमा को पुरी के महाराज के हाथ से सुपारी लेकर ‘दइता लोग’ श्रीजगन्नाथजी के घट परिवर्तन के लिए वासेली देवी से आदेश प्राप्त करने हेतु प्रार्थना करते हैं । नूतन विग्रह (नई मूर्ति) निर्माण के लिए कहां उपयुक्त दारु (महानीम का पेड़) मिलेगा, इसकी जानकारी के लिए वे ‘मंगलामाई’ से प्रार्थना करते हैं । सपने में देवी का आदेश मिलता है, तब दइता लोग तीन टोलियों में बंट कर दारु की खोज में निकलते हैं ।
नियम के अनुसार—
▪️ बलभद्रजी के दारु का रंग सफेद होता है । उस दारु पर शंख का चिह्न दिखाई पड़ता है । उस पेड़ में पांच शाखाएं होती हैं ।
▪️ श्रीजगन्नाथजी के दारु में चक्र का चिह्न रहता है । उस पेड़ में सात शाखाएं रहती हैं ।
▪️ दारु की प्राप्ति के बाद वहां पूजा-पाठ किया जाता है ।
▪️ इसके बाद पहले सोने और चांदी की कुल्हाड़ी से दारु के जड़ पर चोट लगाई जाती है ।
▪️ बाद में लोहे की कुल्हाड़ी से इन दारुओं को काट कर नई बनी गाड़ी में लाद कर श्रीक्षेत्र लाया जाता है । दारु के दर्शन के लिए लोग रास्ते पर भीड़ के रूप में एकत्रित हो जाते हैं और सारा वातावरण शंख और घण्टियों के नाद से गूंज उठता है ।
श्रीमन्दिर के उत्तर द्वार से दारुओं को ‘कोइली वैकुण्ठ’ तक लिया जाता है जहां नवीन विग्रहों का निर्माण किया जाता है ।
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी को नव कलेवर की गुरुत्वपूर्ण विधियां संपादित होती हैं । इसे ‘घट परिवर्तन’ या ‘ब्रह्म परिवर्तन’ कहते हैं । नव कलेवर गुप्त महोत्सव में श्रीकृष्णदेह संभूत इन्द्रनीलमणि की पूजा करने से पहले शवर वंश के वंशज १३ दिन तक पितृकृत्य का पालन करते हैं । विधिवत् मुण्डन, श्राद्ध, तर्पण, तेरहवीं के दिन सहस्त्र ब्राह्मणों के ब्रह्म भोज, दान करने के बाद घट परिवर्तन किया जाता है । घट परिवर्तन का कार्य गुप्त भाव से किया जाता है । आधी रात के समय जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता है, तब दइतापति प्राचीन विग्रहों में से ब्रह्म निकाल कर नवीन विग्रहों में इन्द्रनीलमणि रूपी ज्योतिर्मय ब्रह्म की उनमें स्थापना करते हैं । ब्रह्म परिवर्तन के बाद प्राचीन विग्रहों को कोइली वैकुण्ठ में समाधि (विसर्जन) दी जाती है । इस सारी विधि में आज भी परम्परागत ढ़ंग से शवरों को महत्व मिला हुआ है । वास्तव में भगवान जगन्नाथजी की सेवा-पूजा अर्चना सर्वधर्म समन्वय का प्रतीक है ।
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी से शुक्ल पक्ष की नवमी तक नूतन विग्रहों के श्रीअंग में पवित्र द्रव्य (रंग) दिए जाते हैं ।
इसके बाद अमावस्या के दिन महाप्रभु श्रीजगन्नाथजी, भाई बलभद्र और बहिन सुभद्रा के साथ भक्तों को दर्शन देते हैं; जिसे ‘नव यौवन दर्शन’ कहते हैं । भगवान जगन्नाथजी अपनी बड़ी-बड़ी गोल-गोल आंखों से सभी श्रद्धालु भक्तों पर कृपा-दृष्टि डालकर उनके पापों का नाश कर संसार से उद्धार कर देते हैं ।
स्वलीलया जगत् त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ।
प्रणतोऽस्मि जगन्नाथं किं मे मृत्यु: करिष्यति ।।