भगवान श्रीकृष्ण की वृन्दावनलीला अति मधुर है। वहां सभी कुछ अद्भुत है, आकर्षक है, विचित्र है और अनिर्वचनीय है। सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण का अपनी छायामूर्तियों सच्चिदानन्दमयी गोपियों से जो
अप्राकृत प्रेम था, उसका वर्णन करने में न तो वाणी समर्थ है और न ही मन उस प्रेम की कल्पना कर सकता है।
सच्चिदानन्दमयी गोपियां
समस्त व्रजवासी गोप-गोपियां भगवान श्रीकृष्ण के मायामुक्त परिकर हैं। वे भगवान की आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा की अध्यक्षता में भगवान श्रीकृष्ण की मधुरलीला में योग देने के लिए व्रज में प्रकट हुए हैं।
भगवान की आह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी हैं। भगवान श्रीकृष्ण इस आनन्द-आह्लाद शक्ति को अपनी वंशी-ध्वनि द्वारा सदा अपनी ओर खींचते रहते हैं। भगवान की यह शक्ति अपनी सारी अनुगामी शक्तियों (गोपियों) सहित भगवान की ओर खिंचती रहती हैं और भगवान उस आहृलाद को पाकर पुन: उसे उन्ही शक्तियों (प्रेमी भक्तों) को बांट देते हैं। इन व्रजवासी गोप-गोपियों की चरण-धूलि को ब्रह्मा चाहते हैं। ये व्रजवासीगण मुक्ति के अधिकार को ठुकराकर उससे बहुत आगे बढ़ गए हैं। उनकी क्या महिमा है, इसका ज्ञान हमें ब्रह्माजी के शब्दों से होता है–
‘भगवन्! मुक्ति तो कुचों (स्तनों) में विष लगाकर मारने को आने वाली पूतना को भी आपने दे दी। इन प्रेमियों को क्या वही देंगे–इनका तो आपको ऋणी बनकर ही रहना होगा।’
‘घृणा, शंका, भय, लाज, जुगुप्सा, कुल, शील और मान–ये आठ जीव के पाश हैं।’ गोपियों में इनमें से एक भी ढूंढ़े नहीं मिलता। वे इन आठ फांसियों को तोड़कर स्वतन्त्र हो चुकी हैं और अपने जीवन की गति को सब ओर से फिराकर भगवान श्रीकृष्ण में लगा सकीं हैं। गोपियों के मन-प्राण सब कुछ श्रीकृष्ण के हैं। इहलोक और परलोक में गोपियां श्रीकृष्ण के सिवा अन्य किसी को भी नहीं जानतीं। इस प्रकार वे भगवन्मयी हो गयीं थीं।
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है–’गोपिकाओ! देवताओं-की जैसी आयु धारण करके भी मैं तुम्हारा यह प्रेम-ऋण चुका नहीं सकता।’
भगवान की ऐसी प्रियतमा गोपियों के श्रीकृष्ण प्रेम का दर्शन व्रज की विभिन्न लीलाओं में होता है। ऐसी ही प्रेमरस से पगी एक लीला है–’भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपी की गोरस से भरी मटकी फोड़ देना।’ इसी लीला के कुछ भाव यहां लिखने का प्रयास किया गया है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपी की गोरस से भरी मटकी फोड़ देने की लीला
लँगर मोरि गागर फोरि गयौ।
सखि! जाने कहां के अचक आय मोरि गागर फोरि गयौ।।
नई चुनरिया चीर-चीर करि निपट निडर पुनि आँखि दिखावै।
देख बीर! अति कोमल बैयाँ दोउ कर पकर मरोरि गयो।।
मो ते कहै सुन एरी सुंदरी, तो समान ब्रज सुधर न कोऊ।
नख-सिख लौं छबि निरखि-परखि कैं सघन कुंज की ओर गयो।।
कहँ लग कहौं कुचाल ढीठ की, नाम लेत मेरौ जिया काँपत है।
नारायन मैं घनौं बरज रहि, मोतियन की लर तोरि गयौ।।
इस पद में एक गोपी प्रणयकोप (प्रेम से गुस्सा दिखलाने के भाव) से श्रीकृष्ण को ‘लँगर’ और ‘ढीठ’ कहकर अपनी सखी को सब हाल सुना रही हैं–’हे सखि! श्यामसुन्दर न जाने कहां से अचानक आकर मेरी गागर (मटकी) फोड़ गए। उन्होंने नयी चुनरी चीर-चीर कर मेरी बाँह मरोड़ दी। मुझे व्रज में सबसे अधिक सुन्दरी बताकर, मेरा नख-शिख परखकर सघन कुंजों में चले गए और जाते समय मेरे हजार रोकने पर भी मेरा मोतियों का हार भी तोड़ गए।’
धन्य हैं ये व्रजगोपियां! जिनके लिए श्रीकृष्ण स्वयं आकर उनकी गागर (मटकी) फोड़ते हैं।
गोपियों की कठिन साधना से अर्जित दिव्य प्रेमरस से भरी गागर
प्रश्न यह है कि गोपियों की गागर में ऐसा क्या है जो श्रीकृष्ण स्वयं उसे फोड़ने के लिए नटवरवेष में दौड़े चले आते हैं?
गोपियों ने लोक-परलोक की सारी भोग-वासनाओं, मोह-ममता, मान-अभिमान, राग-द्वेष आदि समस्त विकारों के कु-रस से अपनी गागर को खाली कर दिया है और कठिन नियम-संयम के पवित्र जल से उसे अच्छी तरह धो-पोंछकर उसमें गोरस रूपी दिव्य प्रेमरस भर दिया है। यह मधुररस भरा भी केवल श्यामसुन्दर को तृप्त करने के लिए है। इसीलिए नटवर नागर श्रीकृष्ण कठिन साधना से अर्जित इस दिव्य प्रेमरस का पान करने के लिए दौड़े चले आते हैं।
गागर (मटकी) फोड़ने का भाव
संसार को आनन्दित करने वाले इस दिव्य प्रेमरस को श्रीकृष्ण गोपी की छोटी-सी गागर तक ही सीमित नहीं रखना चाहते और इस दिव्य मधुर रस को संसार के जीवों में बांटने के लिए संकुचित गागर फोड़ देते हैं और अपनी महिमा से उसे अनन्त बनाकर, अपने अनन्त मुखों से उसका पान करके, अपने अनन्त हाथों से, संसार के अनन्त जीवों में बांट देते हैं।
भगवान के विराटरूप के बारे में पुरुषसूक्त में कहा गया है कि–‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्।’
इस प्रकार सारे जगत को पवित्र श्रीकृष्णप्रेम का दान करने वाली गोपियां ही हैं।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों की चुनरी चीर-चीर करने का भाव
श्रीमद्भागवत (१०।४७।६०) में कहा गया है–’’रासोत्सव के समय भगवान के भुजदण्डों को गले में धारणकर पूर्णकामा व्रज की गोपियों को श्रीहरि का जो दुर्लभ प्रसाद प्राप्त हुआ था, वह निरन्तर भगवान के वक्ष:स्थल में निवास करने वाली लक्ष्मीजी को और कमल-की-सी कान्ति और सुगन्ध से युक्त सुरसुन्दरियों को भी नहीं मिला, फिर दूसरे की तो बात ही क्या है?
गोपियां सच्चिदानन्द नित्य नवकिशोर भगवान श्रीकृष्ण की प्रियाएं हैं। वे अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण के चरणों पर न्योछावर कर चुकीं हैं। उन्हें तो केवल उस दिव्य चुनरी की चाह है जो कभी न पुरानी होती है और न ही उतरती है। अत: अनित्य सुहाग का परिचय देने वाली सांसारिक चुनरी को वह यदि स्वयं चीर-चीर नहीं करती हैं तो यह काम भी श्रीकृष्ण को ही करना पड़ता है। जब गोपियों के एकमात्र स्वामी केवल श्रीकृष्ण ही हैं, गोपियों के दिल के दरवाजे केवल श्रीकृष्ण के ही लिए खुले हैं तो श्रीकृष्ण अपनी वस्तु पर अधिकार करने में निपट-निडर क्यों न हों? वे गोपी के प्रेमबल में खिंचे चले आकर उसकी सांसारिक चुनरी चीर-चीर कर देते हैं। गिरधर के प्रेम में मतवाली मीरा ने अपने ही हाथों अपनी सांसारिक चुनरी चीर-चीर कर डाली और गाने लगीं–
‘चुनरी के किए टूक,
ओढ़ लीन्हीं लोई।’
गोपी की कोमल बांहों को मरोड़ देने का भाव
बंदौ गोपी-प्रनय, जो हरि आकरषत सत्य।
आकरषत जो ध्यान में बरबस मुनि-मन नित्य।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
व्रजलीला परम पवित्र है। इसी से नारद जैसे देवर्षि, शिव समान देव और उद्धव जैसे ज्ञानी गोपीभाव में दीक्षित हुए। गोपियों का प्रेम काम-कालिमा रहित, दिव्य व अलौकिक है। अपने तन-मन, धन, रूप, यौवन, लोक-परलोक–सबको श्रीकृष्ण की सुख-सामग्री समझकर श्रीकृष्ण-सुख के लिए शुद्ध प्रेम करना ही पवित्र गोपी-भाव है।
प्रेमरूपा गोपियों की भुजाएं श्रीकृष्ण को छोड़कर और किसी के लिए कभी नहीं फैलतीं। गोपियों के प्रेम में कितना आकर्षण है कि सबको बरबस अपनी ओर खींचने वाले श्रीकृष्ण को भी गोपीप्रेम खींच लाता है। श्रीकृष्ण आते हैं और गोपी की बांहों को पकड़कर उसे अपने हृदय के एकान्त मन्दिर में बिठा लेना चाहते हैं। अनेक कल्पों से गोपी की जीवनधारा जिस हृदय में प्रवेश करने के लिए, जिस आनन्दसागर में मिल जाने के लिए बह रही है, वह जन्म-जन्म की साध आज पूरी होने जा रही है, परन्तु गोपी यह सोचकर करके पीछे हटती है कि क्या मैं इस योग्य हूँ जो भगवान के हृदय में प्रवेश कर सकूं। कहीं मेरे मन में अपने सुख की कामना तो शेष नहीं रह गई! यह सोचकर गोपी सकुचाकर पीछे हटती है और उसकी बांह मरोड़ खा जाती है। धन्य है गोपियों का यह भाव–
बंदौ गोपी-व्रत परम स्व-सुख-बासना हीन।
सती परम, जिन मन सतत रहत सुसेवा लीन।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
गोपियां अप्रतिम सुन्दरी : भाव
बंदौं गोपी-रूप, जो हरि-दृग रहयौ समाय।
निकसत नैकु न नयन तैं छिन-छिन अधिक लुभाय।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
गोपियां दिव्य सुन्दरतामयी हैं जिन्होंने मुनियों के भी मन को मोहने वाले, सच्चे सौन्दर्य के पारखी मनमोहन के चिन्मय मन को मोह लिया। गोपियों की दिव्य सुन्दरता का अर्थ क्या है?
गोपियों की दिव्य सुन्दरता में सबसे सुन्दर उनका हृदय है जिसमें अहंता-ममता, राग-द्वेष, मद-अभिमान, लोभ-मोह, काम-क्रोध, ईर्ष्या-मत्सरता, चिन्ता-विषाद और सुख-दु:ख का लेशमात्र भी नहीं है। उनका हृदय तो एकमात्र श्रीकृष्ण के प्रेममाधुर्य से भरा है। और यह प्रेमरस के माधुर्य का जादू ही उनके मनभावन मुखड़े पर, नुकीले कजरारे नेत्रों पर और अंग-अंग पर छाया है इसीलिए गोपियां विश्वमोहन मोहिनी हैं। श्रीकृष्ण बड़े पारखी हैं। उन्हें तो निर्मल हृदय की परम निर्मल माधुरी चाहिए। वे किसी की बाह्य सुन्दरता पर नहीं रीझते। इसीलिए गोपी तुम्हारी सुन्दरता का बखान सच्चे सौन्दर्य के पारखी श्रीकृष्ण करते हैं।
‘लँगर’, ‘ढीट’ ‘मोतियन की लर तोड़ गयो रे’ का भाव
व्रज की लीलाओं में भगवान श्रीकृष्ण को ‘लँगर’, ‘ढीट’ कहने का अधिकार सिर्फ गोपियों को ही है जिनके श्रीकृष्ण ऋणी हैं। गोपियां जब श्रीकृष्ण को ‘लँगर’, ‘ढीट’ कहती हैं तो उसमें भी उनका मधुर प्रेमरस ही बरसता है। गोपी-प्रेम में खिंचे श्रीकृष्ण ‘कुचाल’ करते हुए ‘मोतियन की लर तोड़कर’ सघन कुंजों में जा छिपते हैं। गोपी इसलिए नहीं बरजती कि श्रीकृष्ण ने उसका मोतियों का हार तोड़ दिया है बल्कि बार-बार बरजकर, बार-बार श्रीकृष्ण का नाम लेकर वह अधिक-से-अधिक प्रेमरस का अास्वादन करना चाहती है। श्रीकृष्ण के साथ बरजोरी तो गोपी के मन की नित्य साध है।
श्रीकृष्ण और गोपी दोनों मिले हुए हैं। वे तुममें हैं और तुम उनमें हो। तुमसे मिले रहने में ही उनकी ‘श्यामसुन्दरता’ है और उनसे मिली रहती हो, इसी से तुम ‘गोपी’ हो। दिन-रात कृष्ण-चर्चा में लगी रहने वाली गोपियों में से एक गोपी ने अपनी सखी से पूछा–’सखि! नन्दबाबा गोरे, यशोदाजी गोरी, दाऊजी गोरे–घर में सभी गोरे, पर हमारे श्यामसुन्दर ही साँवरे कैसे हो गए?’ इस पर दूसरी गोपी ने कहा–
कजरारी अँखियन में बस्यो रहत दिन रात।
पीतम प्यारो हे सखी, तातें साँवर गात।।
कितने रहस्य की बात है कि गोपी की कजरारी आंखों में दिन-रात केवल श्रीकृष्ण ही बसते हैं, इसलिए वे साँवरे हो गए हैं।