shri jagannath bhagwan

हिन्दू धर्म में चार प्रमुख धाम हैं । श्रीजगन्नाथपुरी इन चार पवित्र धामों में से एक है । भगवान विष्णु इन चारों धामों में से किसी एक धाम में हर एक युग में पूजित होते हैं । सत्ययुग में वे नारायण के रूप में बद्रीनाथ धाम में, त्रेता में श्रीराम के रूप में रामेश्वर धाम में और द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में द्वारकाधाम में पूजित हुए । अब कलियुग में वे ‘दारुब्रह्म’ के रूप में जगन्नाथपुरी में पूजित हो रहे हैं इसीलिए पुरी को ‘मर्त्य वैकुण्ठ’ (पृथ्वी का वैकुण्ठ) कहते हैं ।

कलिकाल में साक्षात् परब्रह्म हैं भगवान जगन्नाथ

ऐसा माना जाता है कि बदरीनाथ सत्ययुग का, रामेश्वर त्रेता का व द्वारका द्वापरयुग का धाम है; किन्तु कलिकाल का पावन धाम जगन्नाथपुरी है और वहां के स्वामी हैं जगत के नाथ ‘जगन्नाथजी’ ।

भगवान जगन्नाथजी के प्रसाद को ‘महाप्रसाद’ क्यों कहते हैं ?

ऐसी मान्यता है कि महाप्रभु जगन्नाथजी अन्य तीनों धामों में स्नान, श्रृंगार और शयन करते हैं लेकिन पुरुषोत्तमक्षेत्र (पुरी) में भगवान अर्पित किये हुए नैवेद्य, अन्न आदि के व्यंजनों को साक्षात् ग्रहण करते हैं । 

भगवान जगन्नाथजी के मन्दिर के बाहरी परिक्रमा मार्ग में एक विशाल पाकशाला (रसोई) है जिसे पृथ्वी की सबसे बड़ी पाकशाला माना जाता है । इस पाकशाला में दो सौ चूल्हे (अग्निकुण्ड) हैं । यहां नित्य 600 सूपकार (रसोइए) जगन्नाथजी का प्रसाद तैयार करते हैं । 

स्कन्दपुराण में इस तथ्य को दर्शाती राजा श्वेत की कथा है । पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथपुरी) में राजा श्वेत प्रतिदिन भगवान लक्ष्मीपति को अपने ही द्वारा तैयार किये गये षडरसों से पूर्ण तरह-तरह के भोज्य-पदार्थ भोग में निवेदित करते थे । एक दिन राजा श्वेत मन्दिर के द्वार पर खड़े थे तब उन्होंने भगवान को निवेदित तरह-तरह की भोजन-सामग्रियों को देखा । वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘क्या भगवान यह मनुष्य-निर्मित भोग ग्रहण करेंगे ? यह सामग्री भाव से दूषित होने के कारण भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकेगी ?’

तभी राजा की दृष्टि भगवान के दिव्य सिंहासन पर गई । राजा ने देखा कि श्रीहरि सिंहासन पर विराजमान हैं और दिव्य सुगन्ध, दिव्य वस्त्र और दिव्य मालाओं से सजी लक्ष्मीजी भगवान को भोजन-सामग्री परोस रही हैं और भगवान बड़ी प्रसन्नता से भोजन कर रहे हैं । इस अद्भुत झांकी को देखकर राजा कृतकृत्य हो गए और इसके बाद वे केवल भगवान को निवेदित किया हुआ प्रसाद खाकर ही रहने लगे ।

देवीपुराण के अनुसार यहां पुरी में सती के पैर का भाग गिरा था, वहां महाशक्ति का रूप विमलादेवी प्रकट हुईं । इस मन्दिर में जगन्नाथजी की प्रतिष्ठा से पूर्व विमलादेवी ही मन्दिर की मुख्य अधिकारिणी देवी थीं । उन्होंने जगन्नाथजी को मन्दिर में प्रवेश की इस शर्त पर अनुमति दी कि जगन्नाथजी को समर्पित प्रत्येक भोग उनको निवेदित किया जायेगा । इस शर्त के अनुसार जगन्नाथजी के प्रसाद का विमलादेवी को भोग लगता है और तब वह महाप्रसाद माना जाता है । इसे ‘दुर्गा-माधव पूजा’ की विशेष पद्धति कहते हैं जो केवल इसी क्षेत्र में प्रचलित है ।

प्रसाद और महाप्रसाद

देवताओं को निवेदित किये जाने वाले नैवेद्य को ’प्रसाद’ कहा जाता है जबकि भगवान जगन्नाथजी को अर्पित भोग को ‘महाप्रसाद’ या ‘कैवल्य’ कहा जाता है क्योंकि निवेदित भोग को भगवान जगन्नाथजी स्वयं अरोगते हैं । ऐसी मान्यता है कि जगन्नाथजी का भोग मां लक्ष्मी की देखरेख में तैयार होता है ।

कैवल्य और महाप्रसाद में यह अंतर है कि कैवल्य थोड़ा ही खाये जाने वाला प्रसाद है जबकि महाप्रसाद भरपेट खाये जाने वाला प्रसाद है ।

जगन्नाथजी का महाप्रसाद कभी भी अपवित्र और जूठा क्यों नहीं माना जाता है ?

भगवान जगन्नाथजी के प्रसाद की महिमा तो सारे संसार में प्रसिद्ध है । वास्तव में भगवान का प्रसाद कोई अन्न या खाद्य-पदार्थ नहीं होता है, वह तो चिन्मय तत्त्व है; उसे पदार्थ या खाद्य-सामग्री मानना ही दोषपूर्ण है । जैसे भगवान नित्य शुद्ध हैं वैसे ही उनका प्रसाद भी शुद्ध है । जगन्नाथजी का महाप्रसाद और गंगाजल की महिमा एक समान है । 

पद्मपुराण में कहा गया है—‘पुरुषोत्तम क्षेत्र (श्रीजगन्नाथपुरी) में चाण्डाल के द्वारा स्पर्श किया हुआ प्रसाद भी ब्राह्मणों को ग्रहण करना चाहिए । जैसे पृथ्वी में गंगाजल सब जगह पवित्र है, वैसे ही यह प्रसाद सदैव पवित्र और पापों का नाश करने वाला है ।’

जगन्नाथजी के महाप्रसाद में छुआछूत और उच्छिष्टता (जूठा अन्न, बासी) का दोष नहीं माना जाता है । यहां लोग एक साथ शूद्र रसोइये द्वारा पकाए अन्न का भोजन करते हैं और एक दूसरे के उच्छृष्ट को महाप्रसाद मान कर ग्रहण करते हैं । वास्तव में जगन्नाथजी की सेवा-पूजा सर्वधर्म समन्वय का प्रतीक है । 

जगन्नाथजी के प्रसाद में कभी अपवित्रता क्यों नहीं होती इसका कारण यह है कि रसोई बनाने वाले भी वहां लक्ष्मीजी की उपस्थिति के कारण पवित्र हो जाते हैं । इसलिए यहां तक कहा गया है कि वेश्या और पतित के छूने से भी वह प्रसाद दूषित नहीं होता है ।

▪️जगन्नाथपुरी में भगवान को निवेदित महाप्रसाद की बिक्री बाहर दुकानों (आनन्द बाजार) में होती है ताकि सभी भक्त लोग खरीद कर भगवान के महाप्रसाद को ग्रहण कर सकें । दुकानों पर जो दाल-भात का प्रसाद बिकता है, वह पुराना होने पर गौओं के लिए डाल दिया जाता है । श्रीरघुनाथ गोस्वामी भगवान के परम वैरागी भक्त थे । वे उस फेंके हुए प्रसाद को बटोरकर ले आते और उसमें बहुत सा जल डालकर उसको धो लेते थे । साफ-साफ चावल खाने के लिए निकाल लेते और नमक मिलाकर उसी प्रसादी को पाया करते थे । वह प्रसाद इतना पवित्र माना जाता था कि स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु ने एक दिन उनके हाथ से छीनकर उसको खा लिया और मुख में दिए हुए ग्रास को चबाते हुए ही कहा—‘सच कहता हूँ, ऐसा सुस्वादु अन्न मैंने आज तक नहीं खाया । वाह बच्चू ! अकेले-ही अकेले सब माल उड़ाया करते हो ।’

▪️एक बार महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी पुरी आये तो प्रसाद में उनकी निष्ठा की परीक्षा करने के लिए किसी ने एकादशी के दिन मन्दिर में ही उन्हें महाप्रसाद दे दिया । श्रीवल्लभाचार्यजी ने महाप्रसाद हाथ में लेकर उसका स्तवन करना शुरु कर दिया और एकादशी के पूरे दिन तथा रात्रि में महाप्रसाद का स्तवन करते रहे । दूसरे दिन द्वादशी में स्तवन समाप्त करके उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया । इस प्रकार उन्होंने भगवान के महाप्रसाद और एकादशी को अन्न न खाने के संकल्प—दोनों को ही आदर प्रदान किया ।

जगन्नाथजी के महाप्रसाद ग्रहण करने की महिमा

▪️भगवान जगन्नाथजी के प्रसाद ग्रहण करने से करोड़ों गौओं के दान का फल प्राप्त होता है और श्रीजगन्नाथपुरी के सभी स्थानों की यात्रा का फल मिलता है । इसलिए जब भी सौभाग्य से भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद मिले, मनुष्य को बिना बिचारे उसे ग्रहण कर लेना चाहिए । प्रसाद का अनादर कभी नहीं करना चाहिए ।

▪️जगन्नाथजी का महाप्रसाद यदि अधिक समय तक रखने से सूख गया हो तो भी उसको ग्रहण करने से वह मनुष्य के सब पापों का नाश करने वाला है ।

भगवान का प्रसाद सच्चे भक्तों के लिए साधारण अन्न नहीं है । वह तो परम दुर्लभ, सभी पापों का नाश करने वाला महाप्रसाद है । प्रसाद का स्वाद, उसकी बाहरी पवित्रता या उसका मीठा या कडुआ होना नहीं देखा जाता है । जिस चीज को हमारे प्रभु ने मुंह में रख लिया, वही हमारे लिए परम पवित्र और अमृत हो गयी । 

भगवान के प्रसाद में पवित्रता का विचार न कर उसे सिर-माथे पर रखना चाहिए परन्तु अपने दैनिक जीवन में मनुष्य को खान-पान में पवित्रता और शुद्धता का सदैव ध्यान रखना चाहिए ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here