bhagwan vishnu on sheshnaag surrounded by devtas

परब्रह्म परमात्मा ने जब विश्व की रचना की, तब वैसा ही मनुष्य का शरीर भी बनाया; इसीलिए कहा गया है—‘यद् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’ । वैसे तो परमात्मा ने अपनी माया से चौरासी हजार योनियों की रचना की, परन्तु उन्हें संतोष न हुआ । जब उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की को वे बहुत प्रसन्न हुए; क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है । 

मानव शरीर एक देवालय है

ऐतरेय उपनिषद् के अनुसार—

ईश्वर ने पंचभूतों से मानव शरीर का निर्माण कर उसमें भूख-प्यास भर दी । तब देवताओं ने परमात्मा से कहा कि हमारे योग्य स्थान बताएं, जिसमें रह कर हम अपने भोज्य-पदार्थ का भक्षण कर सकें । 

देवताओं के आग्रह पर जल से गौ और अश्व बाहर आए पर देवताओं ने यह कह कर उन्हें ठुकरा दिया कि यह हमारे रहने के योग्य नहीं हैं । जब मानव शरीर प्रकट हुआ तब सभी देवता प्रसन्न हो गए । तब परमात्मा ने कहा—‘अपने रहने योग्य स्थानों में तुम प्रवेश करो ।’

तब सूर्य नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बन कर, वायु छाती और नासिका-छिद्रों में प्राण बन कर, अग्नि मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बन कर, दिशाएं श्रोत्रेन्द्रिय बन कर कानों में, औषधियां और वनस्पति लोम (रोम) बन कर त्वचा में, चन्द्रमा मन होकर हृदय में, मृत्यु अपान होकर नाभि में और जल देवता वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गए । तैंतीस देवता अंश रूप में आकर मानव शरीर में निवास करते हैं ।

उपनिषद् का यह कथानक मानव शरीर के देवालय होने की पुष्टि करता है । हमारा शरीर ही भगवान का मंदिर है । यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां परमात्मा ज्योति रूप में प्रकट होता है और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं । 

मानव शरीर में स्थित विभिन्न देवता और उनके कार्य

संसार में जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में अप्रकट रूप से स्थित हैं; किन्तु दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां—बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं । जैसे—

. नेत्रेन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय)  के देवता—भगवान सूर्य नेत्रों में निवास करते हैं और उनके अधिष्ठाता देवता हैं; इसीलिए नेत्रों के द्वारा किसी के रूप का दर्शन सम्भव हो पाता है । नेत्र विकार में चाक्षुषोपनिषद्, सूर्योपनिषद् की साधना और सूर्य की उपासना से लाभ होता है ।

२. घ्राणेन्द्रिय (नासिका)  के देवता—नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनीकुमार हैं । इनसे गन्ध का ज्ञान होता है ।

३. श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के देवता—श्रोत-कान के अधिष्ठाता देवता दिक् देवता (दिशाएं) हैं । इनसे शब्द सुनाई पड़ता है ।

४. जिह्वा के देवता—जिह्वा में वरुण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है ।

५. त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के देवता—त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं । इससे जीव स्पर्श का अनुभव करता है ।

६. हस्तेन्द्रिय (हाथों) के देवता—मनुष्य के अधिकांश कर्म हाथों से ही संपन्न होते हैं । हाथों में इन्द्रदेव का निवास है ।

७. चरणों के देवता—चरणों के देवता उपेन्द्र (वामन, श्रीविष्णु) हैं । चरणों में विष्णु का निवास है । तीर्थयात्रा और मंदिर की परिक्रमा आदि धार्मिक कर्म चरणों से ही संपन्न होते हैं ।

. वाणी के देवता—जिह्वा में दो इन्द्रियां हैं, एक रसना जिससे स्वाद का ज्ञान होता है और दूसरी वाणी जिससे सब शब्दों का उच्चारण होता है । वाणी में सरस्वती का निवास है और वे ही उसकी अधिष्ठाता देवता हैं ।

९. उपस्थ (मेढ़ू) के देवता—इस गुह्येन्द्रिय के देवता प्रजापति हैं । इससे प्रजा की सृष्टि (संतानोत्पत्ति) होती है ।

१०. गुदा के देवता—इस इन्द्रिय में मित्र, मृत्यु  देवता का निवास है । यह मल निस्तारण कर शरीर को शुद्ध करती है ।

११. बुद्धि इन्द्रिय के देवता—बुद्धि इन्द्रिय के देवता ब्रह्मा हैं । गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की कामना की गई है इसीलिए यह ‘ब्रह्म-गायत्री’ कहलाती है । जैसे-जैसे बुद्धि निर्मल होती जाती है, वैसे-वैसे सूक्ष्म ज्ञान होने लगता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार भी करा सकता है ।

१२. अहंकार के देवता—अहं के अधिष्ठाता देवता रुद्र हैं । अहं से ‘मैं’ का बोध होता है ।

१३. मन के देवता—मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा हैं । मन ही मनुष्य में संकल्प-विकल्प को जन्म देता है । मन का निग्रह परमात्मा की प्राप्ति करा देता है और मन के हारने पर मनुष्य निराशा के गर्त में डूब जाता है ।

१४. चित्त के देवताप्रकृति-शक्ति, चिच्छत्ति ही चित्त के देवता हैं । चित्त ही चैतन्य या चेतना है । शरीर में जो कुछ भी स्पन्दन (चलन, चेतना) होती है, सब उसी चित्त के द्वारा होती है । भगवान ने ब्रह्माण्ड बनाया और समस्त देवता आकर इसमें स्थित हो गए; किन्तु तब भी ब्रह्माण्ड में चेतना नहीं आई और वह विराट् पुरुष उठा नहीं । किंतु जब चित्त के अधिष्ठाता देवता ने चित्त में प्रवेश किया तो विराट् पुरुष उसी समय उठ कर खड़ा हो गया । इस प्रकार भगवान संसार में सभी क्रियाओं का संचालन करने वाले देवताओं के साथ इस शरीर में विराजमान हैं 

अब मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भगवान द्वारा बनाए गए इस देवालय को कैसे साफ-सुथरा रखे ? इसके लिए निम्न कार्य किए जाने चाहिए—

१. नकारात्मक विचारों और मनोविकारों—काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार से दूर रहे ।

२. योग साधना, व्यायाम व सूर्य नमस्कार करके अधिक-से-अधिक पसीना बहाकर शरीर की आंतरिक गंदगी दूर करें ।

३. अनुलोम-विलोम व सूक्ष्म क्रियाएं करके ज्यादा-से ज्यादा शुद्ध हवा का सेवन करे ।

३. शुद्ध सात्विक भोजन सही समय पर व सही मात्रा में करके पेट को साफ रखें ।

४. ज्यादा-से-ज्यादा पानी पीकर अपने शरीर रूपी देवालय को शुद्ध (डिटॉक्स detox)  करे ।

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