‘भक्तवांछा कल्पतरु ठाकुर श्री राधारमण जी’ का अर्थ है—भक्तों की इच्छा पूरी करने में कल्पवृक्ष के समान हैं ठाकुर श्री राधारमण जी ।
ब्रह्म भले ही निर्गुण हो पर उपासना के लिए वह सगुण होकर आकार विशेष ग्रहण करता है । भगवान रामानुज ने कहा है— ‘भक्तिरूपी आराधना भगवान को प्रत्यक्ष कर देती है ।’
जिस प्रकार प्रहृलाद जी के लिए भगवान खंभे से प्रकट हुए, नामदेव जी के लिए ब्रह्मराक्षस में से प्रकट हो गए थे; वैसे ही श्री गोपाल भट्ट की इच्छा पूर्ति के लिए श्री राधारमण जी की सुन्दर मूर्ति शालिग्राम से प्रकट हो गई थी । इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, भक्ति का प्रताप ही ऐसा है ।
वृन्दावन में संतों द्वारा स्थापित भगवान श्रीकृष्ण के विग्रहों में सात ऐसे प्रमुख विग्रह हैं, जो स्वयं प्रकट हैं–श्री गोविन्ददेव जी, श्री मदनमोहन जी, श्री गोपीनाथ जी, श्री जुगलकिशोर जी, श्री राधारमण जी, श्री राधाबल्लभ जी और श्री बांकेबिहारी जी ।
भक्ति का एक नाम है ‘श्रीकृष्णाकर्षिणी’ अर्थात् भक्ति श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित करने वाली है । भगवान का दूसरा नाम प्रेम है । प्रेमवश वह कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी सहज उपलब्ध हो सकते हैं ।
वृंदावन में विराजित ठाकुर श्री राधारमण जी के प्राकट्य के पीछे जो कथा है, वह इस तथ्य को सत्य सिद्ध कर देती है ।
श्री गोपाल भट्ट श्री चैतन्य महाप्रभु जी के बड़े कृपापात्र थे । उन्हें गण्डकी नदी में स्नान करते समय एक श्रीदामोदर-लक्षणयुक्त विलक्षण शालिग्राम मिला था, जिसे वे वृंदावन ले आए और केशी घाट के पास उस विग्रह को प्रतिष्ठित कर नित्य बड़े प्रेम से उसकी सेवा करते थे । गोपाल भट्ट जी जब भी रूप गोस्वामी को उनके ठाकुर ‘श्री गोविंद देव जी’ को, सनातन गोस्वामी को ‘श्री मदन मोहन जी’ को और मधु पंडित को ‘श्री गोपीनाथ जी’ को लाड़ लड़ाते देखते तो उनके मन में एक कसक उठती कि काश मैं भी अपने शालिग्राम जी को लाड़ लड़ा पाता । उनका सुंदर श्रृंगार करता, नूतन वस्त्र पहराता, शयन कराता ।
मेरे प्रभु के न तो हाथ हैं, न ही श्रीचरण, न ही ग्रीवा है, न ही कटिप्रदेश । ये तो एकदम गोलमटोल हैं । गोलमटोल का क्या श्रृंगार करुँ ? रोज पीला चंदन पोत देता हूँ तो कढ़ी-पकौड़े की तरह दिखाई पड़ते हैं ।
मेरे तो समझ ही नहीं आता इनको शयन कैसे कराऊं ? किधर सिर करुं, किधर पैर करुं ? मुझे तो यह भी नही पता कि इनका मुख किधर है जहां से ये खाते हैं, किधर से देखते हैं ? निराश होकर उनके मुख से एक पद निकला—
झूलौ झूलौ मेरे गण्डकि नन्दन ।
जैसे कढ़ी पकोड़ी फोरयो ऐसे लिपट्यो चन्दन ।।
हाथ न पांव नैन नहिं नासा ध्यानहिं होत आनन्दन ।
जालन्धर अरु वृन्दावल्लभ करत कोटि हौं वन्दन ।।
एक दिन एक सेठ वृंदावन आया । वह वृंदावन के सभी मंदिरों में भगवान के श्रीविग्रहों के लिए वस्त्र और आभूषण दे रहा था । जब वह श्री गोपाल भट्ट के ठाकुर जी के लिए वस्त्राभूषण देने लगा तो गोपाल भट्ट जी दु:खी होकर कहने लगे—‘यदि मेरे प्रभु साकार विग्रह रूप में होते तो मैं भी इनको सुन्दर वस्त्र धारण कराता, मुख पर चंदन से सुन्दर चित्ररचना करता ! सेठ द्वारा ठाकुर जी के लिए दी जाने वाले वस्त्राभूषणों को लेने से इंकार करता हूँ तो हो सकता है कि सेठ जी गुस्सा हो जाएं, उनको दु:ख पहुंचेगा और यदि ले लूं तो ठाकुर जी को धारण कैसे कराऊंगा ?’
भक्त के दु:ख को देख कर शालिग्राम शिला से रात्रि में भगवान मूर्ति रूप में प्रकट हो गए; उनका अर्चावतार हो गया । प्रात:काल जैसे ही श्री गोपाल भट्ट जी की दृष्टि शालिग्राम जी पर गई तो देखते हैं कि नीलकमल और नीलमणि के समान श्री राधारमण जी प्रेममयी चितवन के साथ हाथ में वंशी लिए हुए त्रिभंगी मुद्रा में खड़े हैं और गोपाल भट्ट की ओर कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं—‘अब तो मुझे वस्त्र, आभूषण धारण करा, मेरा सुंदर श्रृंगार कर ।’
भट्टजी ने श्रीविग्रह को तरह-तरह के वस्त्र और अलंकारों से सजा कर झूले में झुलाया और उनका नामकरण हुआ ‘श्रीराधारमण देव’ । भट्टजी का भाव-विभोर मन गा उठा—
श्रीराधारमण हमारे मीत ।
ललित त्रिभंगी श्याम सलोने, कटि पहिरे पट पीत ।।
मुरलीधर मन हरन छबीले, छके प्रिया की पीत ।
गुन मंजरी विदित नागरवर, जानत रस की रीत ।।
श्री राधारमण जी का यह बारह अंगुल का श्रीविग्रह पीछे से शालिग्राम जैसा ही है । उनका मुखकमल श्री गोविंद देव जी का है, कटि भाग श्री गोपीनाथ जी का है और चरण भाग श्री मदन मोहन जी का है । इसी कारण श्री राधारमण जी ‘त्रिभंग’ कहलाते हैं अर्थात् श्री राधारमण जी के स्वरूप में तीन ठाकुरों का एक साथ दर्शन होता है ।
भट्ट जी ने जब ठाकुर के इस रूप का वर्णन अन्य गोस्वामियों से किया तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा ।
छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला,
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवताओं से न्यारा है ।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत सोहै,
कान कुंडल मन मौहे, मुकुट सिर धारा है ।।
दुष्ट जन मारे, संतजन रखवारे, ‘ताज’
चित्त में निहारे, प्रेम प्रीति करन वारा है ।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावनवारा, राधारमन हमारा है ।।
ठाकुर राधारमण जी के साथ श्रीराधा जी का विग्रह नहीं है, परन्तु उनके वाम भाग में सिंहासन पर गोमती चक्र की पूजा होती है।
ठाकुर श्री राधारमण जी का प्राकट्य संवत् १५९९ को वैशाख मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था । भट्ट जी ने पूरे विधि-विधान के साथ ठाकुर जी का नाम रखा—‘श्री राधारमण’ । अत: तब से इस दिन ठाकुर जी का प्राकट्य महोत्सव बड़े हर्ष व उल्लास के साथ प्रतिवर्ष मनाया जाता है । इस दिन दिव्य विग्रह का ४१ मन दूध, दही, घी, शर्करा, शहद व केसर से वैदिक मंत्रों के साथ महाभिषेक होता है, जिसमें विभिन्न प्रकार की औषधियों का भी प्रयोग किया जाता है । बाद में यह पंचामृत सभी भक्तों में वितरित किया जाता है ।
श्री राधारमण जी का मंदिर माध्व गौड़ीय सम्प्रदाय का प्रमुख मंदिर है ।
ठाकुर राधारमन जी मंदिर की कुछ खास बातें
▪️ ठाकुर श्री राधारमण जी ही एकमात्र ऐसे ठाकुर हैं जिन्हें मुगलों के आक्रमण के समय में भी बिना भय के वृंदावन में रखा गया; जबकि अन्य सभी ठाकुर जी के स्वरूपों को सुरक्षा के लिए राजस्थान ले जाया गया ।
▪️ जब नंदबाबा के यहां श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था, तब सभी ब्रजवासियों ने आकर नंदलाला को आशीर्वाद दिया था—‘रानी तेरो चिरजीयो गोपाल ।’ उसी परम्परा को निभाते हुए आज भी जन्माष्टमी महोत्सव में सभी भक्तजन व ब्रजवासी श्री राधारमन जी को आशीर्वाद देते हैं ।
▪️ ठाकुर श्री राधारमन जी की स्थापना के बाद उन की सेवा पूजा के लिए जल एवं अग्नि की आवश्यकता पड़ने पर अरणि से गोपाल भट्ट द्वारा मंत्रों के मध्य अग्नि प्रविष्ट की गई थी । मंदिर के रसोईघर में पिछले लगभग ४८० साल से वह अखण्ड अग्नि जल रही है । दीपक से लेकर भोग-प्रसाद बनाने के लिए यही अग्नि प्रयोग में लाई जाती है ।
▪️ श्री राधारमन जी का कुलिया प्रसाद भी अद्भुत है । छोटी-छोटी मिट्टी की कुलियों में भरी हुई गाढ़ी रबड़ी का का प्रसाद जो एक बार ग्रहण कर लेता है, उसका स्वाद वह आजन्म नहीं भूलता है ।