एक दिन गोलोक में अनंतकोटि ब्रह्माण्डनायक परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के साथ रासमण्डल में विराजमान थे । गोपियों के बजते हुए नूपुरों की ध्वनि, ताल-मृदंग और वंशी की ध्वनि और रास-रस में छकी गोपसुंदरियों के मधुर कंठ से निकले गीतों से पूरा रासमण्डल गुंजायमान हो रहा था । उस समय रासमण्डल के मध्य में विराजमान श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा—‘प्राणनाथ ! यदि आप रास में मेरे प्रेम से प्रसन्न हैं तो श्रीवृंदावन में यमुना के तट पर दिव्य निकुंज के पास रास के योग्य कोई एकांत और मनोरम स्थान प्रकट कीजिए ।’
गोलोक में श्रीगिरिराज गोवर्धन का प्राकट्य
श्रीराधा के वचन सुन कर श्रीकृष्ण ने तुरंत ‘तथाऽस्तु’ कह दिया । उन्होंने एकांत लीला के योग्य स्थान का चिंतन करते हुए नेत्रकमलों से अपने हृदय की ओर देखा । उसी समय सबके देखते-देखते श्रीकृष्ण के हृदय से अंकुर की भांति एक सघन तेज प्रकट हुआ, जो रास-भूमि में गिर कर पर्वत के आकार में बढ़ गया । वह सारा का सारा दिव्य पर्वत रत्नों से बना था । कदम्ब, बकुल, अशोक आदि के वृक्ष से सुशोभित उस पर्वत पर तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे थे । एक ही क्षण में वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत और सौ कोटि योजन लंबा हो गया । उसकी ऊंचाई पचास करोड़ योजन की हो गई । इतना विशाल आकार होने पर भी वह पर्वत और बढ़ने लगा तो गोलोक में भय के कारण कोलाहल होने लगा ।
तब श्रीकृष्ण ने उस पर्वत से कहा—‘संपूर्ण लोक को घेर कर तुम ही स्थित हो जाओगे तो यहां के निवासी कहां जाएंगे ?’
तब जाकर श्रीगोवर्धन का बढ़ना बंद हुआ । श्रीगोवर्धन को देख कर हरिप्रिया श्रीराधा बहुत प्रसन्न हो गईं ।
गोलोक से भूलोक में गिरिराज गोवर्धन का अवतरण
परमात्मा श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए जब भूलोक में पधारने लगे, तब उन्होंने अपनी प्राण-वल्लभा श्रीराधा से कहा—‘प्रिये ! तुम मेरे वियोग से भयभीत रहती हो, अत: तुम भी मेरे साथ पृथ्वी पर चलो ।’
यह सुन कर श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’प्रभो ! जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं हैं और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिलता ।’
श्रीराधा के इस प्रकार कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गोलोक धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा ।
श्रीगोवर्धन पर्वत ने भारतवर्ष से पश्चिम दिशा में शाल्मली द्वीप में द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया । सभी देवता, हिमालय व सुमेरु आदि पर्वत उनके दर्शन को आए । उन्होंने श्रीगोवर्धन की स्तुति करते हुए उन्हें ‘श्रीगिरिराज’ कह कर सम्मानित किया । तब से श्रीगोवर्धन ‘गिरिराज’ के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
ब्रज भूमि में गिरिराज गोवर्धन कैसे विराजमान हुए ?
पूर्व काल में एक बार पुलस्त्य मुनि तीर्थयात्रा करते हुए पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे । एक जगह उन्होंने द्रोणाचल (द्रोण पर्वत) के पुत्र श्याम वर्ण वाले गोवर्धन पर्वत को देखा । उस पर्वत पर बड़ी शांति विराज रही थी । अपनी दिव्य कंदराओं व सैंकड़ों शिखरों के कारण वह पर्वत बहुत ही सुंदर दिखाई दे रहा था । मुनि को वह पर्वत तपस्या करने के लिए बहुत पसंद आया ।
पुलस्त्य मुनि गोवर्धन पर्वत के पिता द्रोणाचल के पास गए और उनसे कहा—‘द्रोण ! तुम पर्वतों के स्वामी हो । सभी देवता तुम्हारा आदर करते हैं । मैं काशी में वास करने वाला मुनि हूँ और तुम्हारे पास याचक बन कर आया हूँ । तुम अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दो । मैं भगवान विश्वनाथ की महानगरी काशी में, जहां मरण को प्राप्त हुआ पापी मनुष्य भी मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, जहां गंगा नदी बहती है और जहां साक्षात् भगवान विश्वनाथ विराजमान हैं, तुम्हारे पुत्र को वहां विराजमान करुंगा; क्योंकि वहां कोई दूसरा पर्वत नहीं है । सुंदर लता-वृक्ष और दिव्य कंदराओं से सुशोभित जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, मैं उसके ऊपर रह कर तपस्या करुंगा । ऐसी इच्छा मेरे मन में जाग्रत हुई है ।’
यह सुन कर द्रोणाचल ने कहा—‘गोवर्धन मुझे बहुत प्रिय है, तथापि आपके शाप से भयभीत होकर मैं इसे आपको समर्पित करता हूँ ।’
द्रोणाचल ने अपने पुत्र को आज्ञा देते हुए कहा—‘बेटा ! तुम मुनि के साथ काशी जाओ जहां मनुष्य निष्काम कर्म और ज्ञान योग के द्वारा क्षण भर में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।’
तब गोवर्धन ने मुनि से कहा—‘मेरा शरीर तो बहुत विशाल है, ऐसी दशा में आप किस प्रकार मुझे काशी ले जाएंगे ।’
पुलस्त्य मुनि ने कहा—‘तुम मेरे हाथ पर सुखपूर्वक बैठ जाओ । जब तक काशी न आ जाए, तब तक मैं तुम्हें हाथ पर से नहीं उतारुंगा ।’
गोवर्धन ने कहा—‘मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है । आप जहां कहीं भी भूमि पर मुझे एक बार रख देंगे, वहां की भूमि पर से मैं पुन: नहीं उठुंगा ।’
मुनि ने कहा—‘मैं इस शाल्मली द्वीप से लेकर भारतवर्ष के कौसल देश तक तुम्हें कहीं भी रास्ते मैं भूमि पर नहीं रखूंगा । यह मेरी प्रतिज्ञा है ।’
इसके बाद गोवर्धन पर्वत पिता को प्रणाम कर मुनि की हथेली पर आरुढ़ हो गए । मुनि उन्हें अपनी हथेली पर रख कर लोगों को अपना प्रभाव दिखाते हुए चले जा रहे थे । जब वे ब्रजमण्डल में आए तो गोवर्धन पर्वत को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया ।
उन्होंने मन-ही-मन सोचा—‘यहां ब्रज में अनंतकोटि ब्रह्माण्डनायक साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वाल-बालों के साथ अनेक प्रकार की बाललीला और किशोरलीला करेंगे । यहां पर वे दानलीला और मानलीला भी करेंगे । अत: मुझे यहां से कहीं और नहीं जाना चाहिए । यह ब्रजभूमि और यमुना नदी गोलोक से यहां आई हैं । श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधा भी ब्रज में प्रकट होंगीं । उनके दर्शन पाकर मैं कृत-कृत्य हो जाऊंगा ।’
मन-ही-मन ऐसा विचार करके गोवर्धन ने मुनि की हथेली पर अपने शरीर का भार बहुत बढ़ा दिया । उस समय यात्रा के कारण मुनि वैसे ही बहुत थक गए थे । इसी बीच उन्हें बहुत जोर से लघुशंका लगी । मुनि ने पर्वत को हाथ से उतार कर ब्रजभूमि पर रख दिया और लघुशंका करने चले गए ।
जब मुनि शौचक्रिया संपन्न कर स्नानादि करके वापिस आए तो उन्होंने गोवर्धन से पुन: हथेली पर विराजमान होने को कहा; परंतु वे नहीं उठे । मुनि ने अपने तपोबल और तेज से उन्हें उठाने का बहुत प्रयास किया; परंतु गोवर्धन टस-से-मस नहीं हुए ।
मुनि ने झुंझलाते हुए कहा—‘पर्वतश्रेष्ठ ! तुम चलते क्यों नहीं ? सच-सच बताओ, तुम्हारे मन में क्या है ?’
तब श्रीगोवर्धन ने कहा—‘मुने ! इसमें मेरा जरा भी दोष नहीं है । आपने ही मुझे यहां स्थापित किया है, अब मैं यहां से नहीं उठुंगा । अपनी प्रतिज्ञा मैंने पहले ही आपको बता दी थी ।’
श्रीगोवर्धन का यह उत्तर सुन कर मुनि क्रोध से तिलमिला उठे । क्रोध से उनके होंठ फड़कने लगे । अपना सारा परिश्रम व्यर्थ जाते देख उन्होंने श्रीगोवर्धन को शाप देते हुए कहा—‘तू बड़ा ढीठ है । तूने मेरा मनोरथ पूरा नहीं किया; इसलिए तू प्रतिदिन तिल-तिल कर क्षीण होता चला जा ।’
यह कर पुलस्त्य मुनि काशी चले गए । उसी दिन से श्रीगोवर्धन पर्वत ब्रजमण्डल में विराजमान हैं और मुनि के शाप के कारण प्रतिदिन तिल-तिल करके घट रहे हैं । जब तक गंगा और श्रीगोवर्धन पर्वत पृथ्वी पर विराजमान हैं, तब तक कलियुग का प्रभाव नहीं बढ़ेगा ।
गोलोक के मुकुट व परमब्रह्म परमात्मा के छत्ररूप श्रीगिरिराज गोवर्धन श्रीवृन्दावन के अंक में स्थित हैं । श्रीगिरिराज गोवर्धन व्रजमण्डल का हृदय व सबसे अधिक पवित्र स्थल है । श्रीगिरिराज गोवर्धन मात्र पर्वत ही नहीं है, बल्कि भगवान श्रीकृष्ण का एक स्वरूप है ।
गिरिराज की जो है महामहिमा,
वह तो तुम श्री गिरिधारी से पूछो ।
प्रेम के तत्त्व परतत्त्वन को नहिं,
कृष्णसों, राधिका प्यारी से पूछो ।।