जसुमति रिस करि-करि रजु करषै।
सुत हित क्रोध देखि माता कैं, मनहिं मन हरि हरषै।।
उफनत छीर जननि करि ब्याकुल, इहिं बिधि भुजा छुड़ायौ।भाजन फोरि दही सब डारयौ, माखन कीच मचायौ।।
लै आई जेंवरि अब बाँधौं, गरब जानि न बँधायौ।
अंगुर द्वै घटि होति सबनि सौं, पुनि-पुनि और मँगायौ।।नारद-साप भए जमलार्जुन, तिनकौं अब जु उधारौं।
सूरदास प्रभु कहत भक्त-हित जनम-जनम तनु धारौं।। (सूरसागर)
ऊखल-बंधन माखनचोरी की अंतिम लीला है। ऊखल-बंधन लीला को वात्सल्य-रस का रास कहते हैं। यह लीला कार्तिक मास में हुयी थी जिसे ‘दामोदरमास’ भी कहते हैं क्योंकि इसी मास में यशोदामाता ने श्रीकृष्ण को रस्सी (दाम) से उदर पर बाँधा था इसीलिए उनका एक नाम ‘दामोदर’ हुआ।
उस दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा थी। श्रीकृष्ण दो वर्ष दो मास आठ दिन के हो चुके थे। अभी वे माता का दूध ही रुचिपूर्वक पीते थे। घर की दासियां अन्य कामों में व्यस्त थीं; क्योंकि आज गोकुल में इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) होना था। यशोदामाता ने निश्चय किया कि आज मैं अपने हाथ से दधि-मन्थन कर स्वादिष्ट माखन निकालूंगी और उसे लाला को मना-मनाकर खिलाऊंगी। जब वह पेट भरकर माखन खा लेगा तो उसे फिर किसी गोपी के घर का माखन खाने की इच्छा नहीं होगी।
यशोदामाता सुबह उठते ही दधि-मन्थन करने लगीं क्योंकि कन्हैया को उठते ही तत्काल का निकाला माखन चाहिए। यशोदामाता शरीर से दधि-मन्थन का सेवाकार्य कर रही हैं, हृदय से श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का स्मरण कर रही हैं और मुख से उनका गान भी करती जा रहीं हैं। अपने प्यारे पुत्र के बाल चरित्र का स्मरण करना उनका नित्य का कर्म है। यशोदामाता भक्तिस्वरूपिणी हैं क्योंकि तन, मन व वचन सभी श्रीकृष्ण की सेवा में लगे हैं। कर्म भी उसके लिए, स्मरण भी उसके लिए और गायन (वचन) भी उसके लिए। सब कुछ कन्हैया के लिए।
दधि-मन्थन करती हुई यशोदाजी के श्रृंगार का बहुत ही सुन्दर वर्णन श्रीशुकदेवजी ने किया है। यशोदामाता अपनी स्थूल कमर में सूत की डोरी से बाँधकर रेशमी लहंगा पहने हुए हैं। रेशमी लहंगा डोरी से कसकर बंधा है अर्थात् उनके जीवन में आलस्य, प्रमाद और असावधानी नहीं है। रेशमी लहंगा इसीलिए पहने हैं कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायेगा (सूती वस्त्र की तुलना में रेशमी वस्त्र ज्यादा पवित्र माना जाता है)। दधि-मंथन करते समय उनके हाथों के कंगन व कानों के कर्णफूल हिल रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कंगन आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे हैं जो हाथ भगवान की सेवा में लगे हैं और कुण्डल यशोदामाता के मुख से भगवान की लीला का गान सुनकर आनन्दमग्न हो कानों की धन्यता की सूचना दे रहे हैं। हाथ वही धन्य हैं जो भगवान की सेवा करें और कान वही धन्य हैं जो भगवान के लीला गुणगान सुनें। यशोदामाता थक गयीं हैं इसलिए उनके मुख पर पसीने की बूंदें झलक रही हैं। उनकी चोटी में गुंथे हुए मालती के पुष्प गिरकर उनके चरणों में पड़े हैं मानो सोच रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी मां के सिर पर रहने के हम अधिकारी नहीं हैं; हमें तो उनके चरणों में ही रहना है। पर यशोदाजी को अपने श्रृंगार और शरीर का किंचित भी ख्याल नहीं है।
हर रोज का यह नियम था कि यशोदामाता के मंगलगीत गाने पर ही कन्हैया जागते थे। यशोदामाता बहुत प्रेम से कन्हैया को जगातीं तब कन्हैया जागते थे। लेकिन आज माता की इच्छा है कि जल्दी से दधि-मन्थन कर माखन निकाल लूं फिर लाला को जगाऊंगी। यशोदामाता दधि मथती जा रही थीं और श्रीकृष्ण की एक-एक लीला का स्मरण करते-करते उनके शरीर में रोमांच हो उठता है, आंखें गीली हो जाती हैं। कन्हैया अभी सो रहे थे। वह कब उठ गये, मैया देख न सकी। भक्त उठकर परिश्रम करे और भगवान आलस्य में सोता रहे–यह संभव नहीं हो सकता। इसलिए श्रीकृष्ण उठे, उठकर अंगड़ाई ली। शय्या पर इधर-उधर लोट-पोट किया और आंखे मलने लगे। फिर वह अपने-आप शय्या से उतरकर आये और मैया के पास आकर ‘मा-मा’ पुकारकर स्तनपान करने की हठ करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं स्तन्य-काम होकर यशोदामाता के पास आये।
मन, वचन और कर्म के द्वारा यशोदाजी की स्नेह-साधना ने श्रीकृष्ण को जगा दिया। वे निर्गुण से सगुण, अचल से चल और निष्काम से सकाम हो गये।
यदि कोई मन, वचन, कर्म से अपने कर्तव्य में तन्मय है तो उसको भगवान के पास जाना नहीं पड़ता, भगवान स्वयं उसके पास आ जाते हैं। केवल आते ही नहीं, दूध पीने के लिए रोने भी लगते हैं। निष्काम भगवान के मन में अपने भक्त का दूध पीने की कामना हो जाती है। यही भक्ति की महिमा है। वह अपुत्र को भी पुत्र बना देती है, निष्काम को भी सकाम बना देती है, नित्य तृप्त को अतृप्त बना देती है, निर्मम में भी ममता जगा देती है, शान्त में भी क्रोध उत्पन्न कर देती है, सबके मालिक को भी चोर बना देती है और निर्बन्ध को भी बन्धनों में बाँध देती है।
निद्रा से जागने के बाद तो कन्हैया की शोभा कुछ और ही होती है। बालकृष्ण के बाल रेशम की तरह मुलायम हैं। काले-काले घुंघराले बाल उनके गालों पर आ गये हैं और प्रेमभरी आंखों से वह माता की ओर देख रहे हैं। माता दधि-मन्थन में तल्लीन थी। मैया ने ध्यान नहीं दिया और न ही साधन (दही मथना) छोड़ा। स्तनपान की जिद करते हुए कन्हैया ने दही की मथानी पकड़कर माता को रोक दिया। मानो कह रहे हों–साधन तभी करना चाहिए, जब तक मैं न मिलूं। मैया, अब तो तू मथना छोड़ दे। यह कहकर श्रीकृष्ण अपने-आप माता की गोद में चढ़ गये। यशोदामाता पुत्र को अंक में लेकर अपने हृदय का रस (दूध) पिलाने लगीं। मां-बेटे की आंखें मिली हुईं हैं। परस्पर रस का आदान-प्रदान हो रहा है।
अंकाधिरूढं शिशुगोपगूढं,
स्तनं धयन्तं कमलैककान्तम्।
सम्बोधयामास मुदा यशोदा,
गोविन्द दामोदर माधवेति।।
अर्थात्–अपनी गोद में बैठकर दूध पीते हुए बालगोपालरूप भगवान लक्ष्मीकान्त को देखकर प्रेम में मग्न हुयी यशोदामाता उन्हें ‘ऐ मेरे गोविन्द ! ऐ मेरे दामोदर ! ऐ मेरे माधव !’–इन नामों से बुलाती थीं।
सामने पद्मगंधा गाय का दूध अग्नि पर चढ़ाया था। यह दूध बड़ा विलक्षण है। हजार गायों का दूध सौ गायों को, सौ गायों का दूध दस गायों को और दस गायों का दूध एक पद्मगंधा गाय को पिलाकर उस पद्मगंधा गाय से निकाला हुआ दूध है यह। यही दूध लाला पीता है। यशोदामाता की दृष्टि उफनते हुए दूध पर गयी। मैया ने देखा कि दूध उफनने वाला है; यदि यह दूध उफनकर गिर गया तो कन्हैया क्या पियेगा? स्तनपान तो पीछे भी कराया जा सकता है।
दूध में उफान क्यों आया?–इस की संतों ने बहुत सुन्दर व्याख्या की है। पद्मगंधा गाय के दूध की यह इच्छा थी कि यशोदामाता श्रीकृष्ण को अपना दूध कम पिलावें। कम दूध पिलाने पर लाला को भूख बनी रहेगी तो कन्हैया मुझे पियेगा। इससे मेरा उद्धार हो जायेगा। मैं कन्हैया के होठों का स्पर्श पाने के लिए व्याकुल होकर तप-तपकर मर रहा हूं। किन्तु यशोदामाता कन्हैया को खूब दूध पिलाती हैं अत: मेरा उपयोग कृष्णसेवा में नहीं होगा। इसलिए मेरा जीवन व्यर्थ है। अच्छा होगा कि मैं उनकी आंखों के सामने अग्नि में गिरकर मर जाऊं। दूसरे, दूध ने सोचा परमात्मा के दर्शन से दुख का अंत हो जाता है। मुझे माता की गोद में श्रीकृष्ण के दर्शन हो रहे हैं फिर भी मुझे अग्नि का ताप सहन करना पड़ता है। इससे तो में अग्नि में गिरकर मर जाऊं। इसलिए दूध में उफान आया।
यद्यपि दूध श्रीकृष्ण के लिए ही था, फिर भी स्वयं यशोदामाता का स्तनपान कर रहे श्रीकृष्ण से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता था। अगर कुछ उफनकर गिर भी पड़ता तो क्या अनर्थ हो जाता? शेष तो बर्तन में बचा ही रहता। यशोदामाता अतृप्त बालकृष्ण को गोदी से उतारकर दूध सम्भालने चली गयीं। जीव का एक स्वभाव है कि उसे जो मिलता है, उसकी उपेक्षा करता है। माता ने भी यही सोचा कि कन्हैया कहां जाने वाला है? उसे मैं बाद में दूध पिलाऊंगी, पहले इस दूध को अग्नि में गिरने से बचा लूं। यह कहकर मैया ने दूध को अग्नि पर से उतार दिया।
यशोदामाता ने जलते हुए दूध को उतारा–इसका भी एक भाव संतों ने दिया है। माता ने मानो यह कहा कि जो भगवान का नाम ले, वह तर जाता है और उसको भव-ताप नहीं होता। किन्तु तुम भगवान के सामने भगवान के लिए ताप सहन कर रहे हो, यह उचित नहीं है। यह कहकर माता ने उसको उतार दिया अर्थात् तार दिया।
लाला से यह सहन नहीं हो सका। बस, अनर्थ हो गया। मैया उसे अतृप्त छोड़ गयी, इससे उन्हें बड़ा रोष हुआ। पतले-पतले अधर फड़कने लगे। उन्होंने लाल-लाल होंठों को श्वेत दूध की दँतुलियों से दबा दिया। दांत श्वेत हैं, सत्त्वगुणी हैं, अधर लाल हैं, रजोगुणी हैं। मानो सत्वगुण रजोगुण पर शासन कर रहा हो। नेत्रों में अश्रु आ गये। श्रीकृष्ण अपने भक्तजनों के प्रति अपनी ममता प्रकट करने के लिए क्या-क्या भाव नहीं अपनाते? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रह्म-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये। श्रीकृष्ण को पहले काम (भूख) आया। काम के बाद गोद में आ गये और दूध पीकर भोक्ता हो गये और भोक्ता होने के बाद लोभ के कारण अतृप्त हो गये और फिर क्रोध आ गया। वह क्रोध उतरा दधिमन्थन के मटके पर। पास पड़ा एक चटनी पीसने का पत्थर दही के मटके पर दे मारा। उससे दही भरी मटकी फूट गई। संसार की आसक्ति ही मटकी है। भगवान में आसक्ति ही भक्ति है। मनुष्य जब यह सोचता है कि अपने संसार को ठीक करके भक्ति करुंगा तो यह गलत है। भगवान संसार की आसक्ति रूपी मटकी को ही फोड़ देते हैं।
इतना करके कन्हैया वहां से खिसक गये। गोरस रखने वाले घर का द्वार खुला था। वे वहां जाकर एक दिन पहले का निकला बासी माखन खाने लगे। पास ही एक ऊखल उल्टा रखा था। कन्हैया ने सोचा कि यदि बच्चे को माता अपनी गोद में नहीं बैठायेगी तो वह कहां जायेगा? वह खल के पास जाकर उसकी संगति करेगा। ऐसा सोचकर कन्हैया उस ऊखल पर चढ़ गये। एक मोटा-सा बंदर कहीं से कूद कर आ गया। कन्हैया की और बंदरों की तो नित्य मैत्री है। भगवान को यह बात याद आई कि ये मेरे रामावतार के भक्त हैं। उस समय तो मैं इन्हें कुछ खिला न सका। ये सब पेड़ के पत्ते खाकर मेरे लिए युद्ध करते थे। इसलिए वे कृष्णावतार में छीके पर धरे पात्र में से निकाल-निकालकर बंदर को माखन खिलाने लगे। बीच-बीच में चौंकन्ने होकर द्वार की ओर देखते जाते थे कि मैया आ तो नहीं रही है। श्रीकृष्ण सामने देख रहे हैं, परन्तु तिरछी आंखों से पीछे का भी सब देखते जा रहे थे। आज श्रीकृष्ण के नेत्र ‘चौर्य विशंकित’ हैं।
मैया दूध उतारकर लौटी तो देखती है कि दहेड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं। उन्होंने दूध-दही के पात्र फोड़ दिये, वहां पर दूध-दही फैलने से समुद्र सा हो गया। पूरा घर दधिसागर बन गया है जैसे आदिदेव नारायण क्षीरसागर में विहार करते हैं, उसी प्रकार कन्हैया भी विहार करने लगे और यह सब करके उनका लड़ैता कहीं खिसक गया है। मैया को हंसी आ गयी। फिर उसने सोचा, ऐसे तो बालक बिगड़ जायेगा। माता ने लाला को दूध पिलाने की जगह दण्ड देने का विचार किया। अत: एक छड़ी लेकर श्रीकृष्ण को धमकाने चलीं। दही में सने कन्हैया के चरणचिह्न उनका पता अपने-आप बता रहे थे। कन्हैया ने मैया को छड़ी लेकर अपनी ओर आते देखा तो ऊखल से उतर कर आँगन में भागे। चंचल कन्हाई के पीछे दौड़ रही थी मैया। बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म व शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, उन्हीं भगवान को पकड़ने के लिए यशोदाजी पीछे-पीछे दौड़ीं। किन्तु श्रीकृष्ण हाथ नहीं आते।
यशोदामाता के स्थूल शरीर का वर्णन करते हुए श्रीशुकदेवजी कहते हैं–उनके नितम्ब बड़े-बड़े हैं, कमर पतली है और उनकी वेणी में फूल गुंथे हुए हैं। जब मैया ने भागते हुए श्रीकृष्ण का पीछा किया तब उनके नितम्बों ने अपने भार से उनकी गति में अवरोध उत्पन्न कर दिया। पतली कमर ने कहा कि मैया अधिक दौड़ोगी तो मैं टूट जाऊंगी और चोटी के फूलों ने भी धरती पर गिरकर माता का साथ छोड़ दिया। उनके केश खुल गये थे, वस्त्र अस्त-व्यस्त हो रहे थे, मुख पर पसीना आ रहा था। किन्तु वह आज अपने लाला को पकड़कर रहेंगी।
यशोदाजी के दौड़ने पर भी कन्हैया क्यों हाथ में नहीं आता?
संतों ने इसके कई कारण बतलाये हैं–यशोदाजी हाथ में छड़ी लेकर श्रीकृष्ण को पकड़ने के लिए दौड़ रही हैं। छड़ी अर्थात् अभिमान। यशोदाजी में एक सूक्ष्म अभिमान है कि कन्हैया मेरा बेटा है, मैं उसकी माता हूं। यशोदामाता दौड़ते-दौड़ते थक गयीं हैं पर श्रीकृष्ण हाथ में नहीं आते। अत: श्रीकृष्ण को पकड़ना हो तो अभिमान छोड़ना होगा।
यशोदामाता की यह भूल है कि वह श्रीकृष्ण की पीठ पर नजर रखकर दौड़ती हैं। भगवान की पीठ में अधर्म है और उनके हृदय में धर्म है। ईश्वर को वही पकड़ सकता है जो उनके चरण या मुखारबिन्द पर नजर रखकर दौड़ता है। पुत्र को डरा देखकर मां का वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया और उन्होंने छड़ी दूर फेंक दी। मैया यह समझ जाती है कि मेरे छड़ी फेंकने से लाला को यह विश्वास हो गया है कि अब माता मुझे मारेगी नहीं। इसलिए कन्हैया पास आकर खड़े हो गये। जब तक जीव हाथ में जड़ (छड़ी) को पकड़े रहेगा तब तक चेतन (श्रीकृष्ण) पकड़ में नहीं आयेगा। अत: मैया ने जब जड़ को फेंक दिया तो श्रीकृष्णरूप परमब्रह्म परमात्मा उनके पास आकर खड़े हो गये। कन्हैया ने कहा–मैया मैं तो तेरा अभिमान उतर जाने के कारण तेरे पास आया हूं।
कन्हैया को डांटते हुए यशोदामाता ने कहा–’अरे वानरबन्धो ! चंचलप्रकृते ! मन्थनीस्फोटक ! तू बहुत ऊधमी हो गया है। अब तुझे माखन कहां से मिलेगा? ठहर, आज मैं तुझे बिल्कुल छोड़ने वाली नहीं हूं। तूने जिस ओखली पर चढ़कर चोरी की है उसी से आज तुझे बांधे देती हूँ।’ यशोदामाता ने सोचा कि ऊखल भी चोर है; क्योंकि माखनचोरी करते समय इसने श्रीकृष्ण की सहायता की थी। चोर का साथी चोर। इसलिए दोनों बंधन के योग्य हैं। यह ऊखल भी कृष्ण के साथ बंधकर दूसरों (नलकूबर और मणीग्रीव) के उद्धार में समर्थ हो गया।
श्रीकृष्ण मां के सामने अपराधी बनकर खड़े हैं, जोर-जोर से रो रहे हैं, आंखों को मल रहे हैं, काजल मिली आंसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें उनके कपोलों पर गिरने लगीं हैं, ऊपर-नीचे देख रहे हैं और उनके नेत्र भय से विह्वल हो गये हैं। माता यशोदा और श्रीकृष्ण का यह अद्भुत रूप वेदों और उपनिषदों में ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलने वाला। ऐसा दृश्य तो केवल प्रेम की भूमि व्रज में ही संभव है।
मैया ने सोचा–आज सुबह से इसे खिजाया है, डांटा है। अब पता नहीं कहां भाग जाय। इसलिए थोड़ी देर तक बाँधकर रख लूं। दूसरा दही मथकर माखन निकाल लूं तब खोलकर मना लूंगी। यही सोच-विचारकर माता ने बांधने का निश्चय किया। बांधने में भी माता का वात्सल्य ही था। लेकिन मैया के इस सौभाग्य और कन्हैया के इस भक्तवात्सल्य का स्मरण देवी कुन्ती को कभी भूलता नहीं। महाभारत का युद्ध हो जाने पर जब श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से द्वारिका लौट रहे थे, तब वे स्तुति करती हुई कहती हैं–
‘जब बचपन में आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदामाता को खिझा दिया था और उन्होंने आपको बांधने के लिए रस्सी हाथ में ली थी, तब आपकी आंखों में आंसू झलक आये थे। कपोलों पर काजल बह चला था, नेत्र चंचल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका लिया था। आपकी उस लीला छवि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूं। जिससे भय भी भय मानता है उसकी यह दशा।’ (श्रीमद्भागवत १।८।३१)
मैया ने रस्सी ली और बांधने लगी। रस्सी दो अंगुल छोटी हो गयी। संतों ने इसका एक बहुत ही सुन्दर भाव बताया है–जो ब्रह्मस्पर्श करता है उसका स्वभाव सुधरता है। श्रीकृष्ण के कोमल शरीर का स्पर्श करते ही डोरी में दया आ गई। डोरी सोचती है कि कन्हैया अत्यन्त कोमल है, उसे बाँधने पर कष्ट होगा। आज डोरी भगवान का स्पर्श करती है तो दयावश दो अंगुल छोटी हो जाती है। हर बार दो अंगुल की ही कमी होती है, न तीन की, न चार की, न एक की। यह कैसा अलौकिक चमत्कार है।
रस्सी दो अंगुल ही छोटी क्यों पड़ती है?
- जब भक्त अहंकार करता है कि मैं भगवान को बांध लूंगा, तब वह उनसे एक अंगुल दूर हो जाता है और भक्त के अहं को देखकर भगवान भी एक अंगुल दूर हो जाते हैं। एक अंगुल यशोदाजी का अहं और एक अंगुल श्रीकृष्ण की दूरी, दोनों से दो अंगुल की कमी पड़ती गयी।
- भगवान को दो वृक्षों–यमलार्जुन (नलकूबर-मणिग्रीव) का उद्धार करना है। यह दिखाने के लिए रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गयी।
- जहां नाम-रूप होते हैं, वही बन्धन होता है। परन्तु परम ब्रह्म श्रीकृष्ण में ये दोनों नहीं है। दो अंगुल की कमी से यही बोध होता है।
माता उस रस्सी के साथ दूसरी रस्सी जोड़ती हैं और श्रीकृष्ण को बांधने का प्रयास करती है; किन्तु यह डोरी भी दो अंगुल छोटी पड़ती है। तीसरी जोड़ी, चौथी जोड़ी, पांचवीं जोड़ी; एक-पर-एक रस्सियां जोड़ती चली गयी; किन्तु वह दो अँगुल का अन्तर न घटा। मैया आश्चर्यचकित रह गयी। उसके पुत्र की मुट्ठी भर की कमर तो मोटी हुयी नहीं। कन्हैया की कमर में पड़ी करधनी ज्यों-की-त्यों है, फिर इतनी रस्सियां क्यों पूरी नहीं पड़ती?
यशोदाजी के हाथों कन्हैया को न बंधते देखकर पास-पड़ोस की गोपियां इकट्ठी हो गयीं। गोपियां हंस रही हैं। वे कहती हैं–’ब्रजरानी ! लाला की कमर तो मुट्ठी भर की ही है और छोटी-सी किंकणी इसमें रुनझुन कर रही है। अब यह नटखट इतनी रस्सियों से नहीं बँधता तो जान पड़ता है कि इसके भाग्य में विधाता ने बन्धन लिखा ही नहीं है। यह हम सब को बंधन से छुड़ाने आया है। कितना भाग्यशाली है तेरा बेटा। गुस्सा छोड़ और खुश हो जा।’ यह सुनकर कन्हैया धीरे-धीरे मन-ही-मन हंसने लगा। मैया ने सोचा कि यदि आज वह कन्हैया को छोड़ दे तो वह फिर कभी बात नहीं मानेगा और न ही मुझसे डरेगा। बच्चे को बिगड़ने देना तो ठीक नहीं है। मैया तो अड़ गयी है, कुछ भी हो वह आज कन्हैया को बांधकर रहेगी, चाहे सन्ध्या हो जाय और गांव भर की रस्सी क्यों न इकट्ठी करनी पड़े।
इसका भाव भी संतों ने इस प्रकार बतलाया है–श्रीकृष्ण के साथ उनकी सेवा में सदैव ऐश्वर्य शक्ति रहती है। यहां ऐश्वर्य शक्ति और वात्सल्य भक्ति में झगड़ा शुरु हो गया है। यशोदाजी में वात्सल्य भाव है। इसलिए वे कहती हैं कि यह मेरा बेटा है। इसे चोरी की आदत पड़ गयी है। इसकी आदत मैं नहीं सुधारुंगी तो कौन सुधारेगा? ऐश्वर्य शक्ति कहती है कि यह मेरा स्वामी है। मेरे स्वामी को कोई बांधे, तो मुझसे सहन नहीं होगा। मैं देखती हूं कि ये इसे कैसे बांधती हैं। ऐश्वर्य शक्ति डोरी में प्रवेशकर उसे छोटा कर देती है। भगवान की ऐश्वर्य शक्ति नहीं चाहती कि उसके स्वामी प्राकृत रज्जु से बंध जायँ।
श्रीकृष्ण ने देखा कि मैया बांधना ही चाहती है पर वह थक गयी है। उसका सारा शरीर पसीने से भीग गया है। उसके केशों में लगे फूल बिखर गये हैं। श्रुति कहती है–’मातृदेवो भव’। माता सबसे बड़ी है, अत: उसको थकाना उचित नहीं है। मैं गोकुल का दु:ख दूर करने के लिए प्रकट हुआ और माता का दु:ख दूर न करूँ, तो यह क्या ठीक होगा? सौभाग्यदान के लिए आया हूँ और माता के अलंकारों का ही तिरस्कार कर दूँ? जो भक्तों को भी दु:खी नहीं देख सकते, वे अपनी माता को दु:खी कैसे देख सकते हैं?
यही स्वर्णिम क्षण होता है जब साधक साधन-श्रम की सीमा पर पहुंच जाता है, जब चलने वाले के चरण थक जाते हैं और जब वह पूर्णत: थक जाता है, तब भगवान की कृपा जाग उठती है। भगवान श्रीकृष्ण इतने कोमल हृदय हैं कि अपने भक्त के प्रेम को पुष्ट करने वाला परिश्रम भी सहन नहीं करते हैं। वे अपने भक्त को परिश्रम से मुक्त करने के लिए स्वयं ही बंधन स्वीकार कर लेते हैं। यशोदाजी का हठ देखकर भगवान ने अपना हठ छोड़ दिया; क्योंकि जहां भगवान और भक्त के हठ में विरोध होता है, वहां भक्त का ही हठ पूरा होता है। भगवान बंधते हैं तब, जब भक्त की थकान देखकर कृपापरवश हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण ने ऐश्वर्य शक्ति से कहा कि मेरी माता मुझे बांधना चाहती है तो तू डोरी को क्यों छोटा कर देती है? इस समय मैं तेरा स्वामी नहीं हूँ, बल्कि यशोदामाता का पुत्र हूं। मैं प्रेमरस लेने और प्रेमरस देने के लिए पुत्र बन कर आया हूँ। प्रभु ने संकेत कर दिया कि मैं मधुरमयी बाललीला के लिए व्रज में आया हूँ। यहां वात्सल्य का प्रभाव अधिक है, इसमें तुम बाधक मत बनो। तुम द्वारिका चली जाओ। जब मैं द्वारिका आऊंगा तब तुम्हारा मालिक बन कर आऊंगा। दयामय स्वयं बंध जाते हैं मां के प्रेमपाश में। ऐश्वर्य शक्ति हट गयी, श्रीहरि बंध गये।
मैया की रस्सी पूरी हो गयी थी और विश्व को मुक्ति देने वाला स्वयं बंधा खड़ा था ऊखल से। भगवान न बंधने की लीला करते रहे और अंत में बंध गये किन्तु उनका बन्धन भी दूसरों की मुक्ति के लिए था। इस प्रकार बंधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के अधीन हूँ।
आत्माराम होने पर भी भूख लगना, पूर्णकाम होने पर भी अतृप्त रहना, सत्त्वस्वरूप होने पर भी क्रोध करना, लक्ष्मी से युक्त होने पर भी चोरी करना, यमराज को भी भय देने वाले होने पर डरना और भागना, मन से तीव्र गति वाले होने पर भी माता के हाथों पकड़े जाना, आनन्दमय होने पर भी रोना व दु:खी होना, सर्वव्यापक होने पर भी बंध जाना–ये सब भगवान भक्तों के वश में होकर ही करते हैं। व्रजवासियों ने यशोदामाता को ही दोषी बताया। गोपियों ने देखा कि ब्रजेश्वरी (यशोदाजी) आज उनकी अनुनय-विनय पर ध्यान ही नहीं देती तो वे खीझकर अपने घरों को चली गयीं।
ऊखल-बंधन लीला का रहस्य
भगवान श्रीकृष्ण की अनन्त लीलाओं में ऐश्वर्य-माधुर्ययुक्त ऊखलबन्धन लीला अत्यन्त शिक्षाप्रद है। कृष्णोपनिषद् के अनुसार जिस प्रकार भगवान के आभूषण, वस्त्र, आयुध सभी दिव्य और चिन्मय हैं; उसी प्रकार भगवान की लीला में भी ऊखल, रस्सी, बेंत, वंशी तथा श्रृंगार आदि सब वस्तुएं देवरूप बतायी गयी हैं। इसी भाव को दर्शाने के लिए ऊखल, रस्सी आदि का स्वरूप इस प्रकार बताया है–जो मरीचिपुत्र प्रजापति कश्यप हैं, वे नन्दगृह में ऊखल बन गये। उसी प्रकार जितनी भी रस्सियां हैं, वे सब देवमाता अदिति के स्वरूप हैं। यशोदाजी ने पकड़कर प्रभु को ऊखल में रस्सियों से बांध दिया और प्रभु का नाम ‘दामोदर’ पड़ा। भगवान अपनी इच्छा से पितृरूप ऊखल में मातृरूप रस्सियों से माता यशोदा के वात्सल्यवश बन्धन में आ गये। यह उनकी कृपा थी। यह है माधुर्यस्वरूप। ऐश्वर्यभाव है कि बन्धन के समय रस्सी का दो अंगुल छोटा पड़ना। इस लीला से प्रभु ने जगत को शिक्षा प्रदान की कि वासना या इच्छा की पूर्ति न होने पर व्यक्ति को क्रोध आता है, क्रोध से वह अपराध करता है और उस अपराध का उसे बन्धन आदि दण्ड मिलता है। अत: वासना या कामना को छोड़कर संयम से ही सुख और भगवत्-प्राप्ति सम्भव है।
मैया का नाम यशोदा क्यों पड़ा?
यशोदा नाम इसलिए पड़ा कि उन्होंने भगवान को यश दिया। उन्होंने उनको सगुण बना दिया, बांध दिया। संस्कृत में ‘गुण’ शब्द का एक अर्थ रस्सी है। ब्रह्म निर्गुण है जिसको रस्सी नहीं लगती। लेकिन प्रेम ऐसा है कि वह निर्गुण भगवान को भी बांधकर रख देता है। प्रेम की रस्सी दूसरी होती है। जो भौंरा सूखे काष्ठ में छेद करके घर बना लेता है, वही भौंरा जब कोमल पंखुड़ियों में कैद होता है तब उसकी क्रियाशीलता नष्ट हो जाती है। और वह कमल की पंखुरियों में बन्द होकर सवेरा होने की प्रतीक्षा करता है और अंत में घुटकर मर जाता है क्योंकि उसे कमल से प्रेम है। परमात्मा भी प्रेम बंधन नहीं तोड़ सकता। भगवान ऐसे कृपालु हैं कि कभी डरते भी हैं, कभी रोते भी हैं, कभी भागते भी हैं, कभी पकड़े भी जाते हैं और कभी बंध भी जाते हैं। इस प्रकार माता यशोदा ने नित्यमुक्त को बांधकर भक्ति की महिमा दिखा दी। भगवान में कितना अनुग्रह है और माता में कितना प्रेम है–इन दोनों का स्पष्ट दर्शन होता है इस लीला में। पृथ्वी पर यशोदाजी जैसा कोई नहीं, जिसने मुक्तिदाता को ऊखल से बांध दिया है और जिससे मुक्ति कह रही है कि मैया, मुझे मुक्त कर दे, मुक्त कर दे। भगवान का यह प्रसाद न तो ब्रह्मा को प्राप्त हुआ–जो पुत्र हैं, न शंकर को प्राप्त हुआ–जो आत्मा हैं और न लक्ष्मी (पत्नी) को–जो उनके वक्ष:स्थल में विराजती हैं। इसलिए यशोदाजी को जो प्रसाद मिला वह अनिर्वचनीय है।
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