‘भक्त के हृदय की करुण पुकार कभी व्यर्थ नहीं जाती, वह चाहे कितनी भी धीमी क्यों न हो, त्रिभुवन को भेदकर वह भगवान के कानों में प्रवेश कर ही जाती है और भगवान के हृदय को उसी क्षण द्रवित कर देती है ।’
ऐसा ही एक प्रसंग है—भगवान विट्ठल और संत तुकाराम का ।
एक बार पंढरपुर में भगवान विट्ठल से रुक्मिणी जी ने कहा—‘नाथ ! इतने सारे भक्तजन रोज-रोज आपके दर्शन के लिए आते हैं, फिर भी आप सदैव अपनी दृष्टि (नजरें) झुका कर ही रखते हैं, किसी से दृष्टि मिलाते ही नहीं हैं । आखिर ऐसी क्या बात है ?’
भगवान ने कहा—’जो केवल मुझसे ही मिलने आते हैं, उन पर ही मैं कृपादृष्टि करता हूँ । लोग मंदिर में अलग-अलग भाव लेकर आते हैं, वह सब मैं जानता हूँ । मंदिर में अधिकांश लोग मुझसे कुछ-न-कुछ मांगने ही आते हैं, मुझसे मिलने तो शायद ही कभी कोई बिरला आता है । जो मुझसे मिलने आता है, उसी से मैं नजरें मिलाता हूँ ।’
एक दिन फिर रुक्मिणी जी ने भगवान विट्ठल से पूछा—‘इतने सारे भक्त आपके दर्शन के लिए मचल रहे हैं, फिर भी आप उदास नजर आ रहे हैं, क्यों ?
भगवान ने उत्तर दिया—‘ये जो लोग आए हैं, ये सभी स्वार्थी हैं; किंतु जिसके दर्शन करने की मेरी इच्छा है, वह तुकाराम अभी तक नहीं आया है ।’
तुकाराम बीमार थे । वे अपने घर में बिस्तर पर लेटे हुए सोच रहे थे कि आज मैं अस्वस्थ होने के कारण भगवान विट्ठलनाथ के दर्शन के लिए जा नहीं पाऊंगा ।
तुकाराम जी का विश्वास था कि—‘भगवान तो अंतर्यामी हैं । घट-घट की उन्हें पता रहती है । मेरे मन में कुछ भाव होगा तो भगवान यहां मेरे घर अवश्य आएंगे । क्यों न वे दर्शन देने के लिए मेरे घर पर आ जाएं !’
परमात्मा प्रेम के भूखे हैं । वैष्णव ठाकुर जी के दर्शन के लिए आतुर होता है, उसी प्रकार सच्चे भक्त के दर्शन के लिए भगवान व्याकुल रहते हैं—प्रेम का यही स्वभाव है । इसमें बिना मिले दोनों तरफ पीड़ा होती है ।
जब भी किसी भक्त का हृदय प्रेम से भर आता है, तो निष्काम ईश्वर भी सकाम बन जाता है । भगवान के मन में भी अपने भक्त से मिलने की कामना उत्पन्न होती है ।
भगवान विट्ठल ने रुक्मिणी जी से कहा—‘तुकाराम बीमार होने के कारण मंदिर तो नहीं आ सकता । चलो हम ही उसके घर चलते हैं ।’
लाखों लोग भगवान विट्ठलनाथ के दर्शन के लिए मंदिर के द्वार पर उमड़ रहे थे और भगवान विट्ठल तुकाराम के दर्शन के लिए व्याकुल होकर जा पहुंचे उनके घर पर । भगवान आते क्यों नहीं, उन्होंने तो स्वयं नारद जी से कहा है—
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च ।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।। (पद्मपुराण)
अर्थात्—‘नारद ! न तो मैं वैकुण्ठ में निवास करता हूँ और न योगियों के हृदय में; अपितु मेरे भक्त जहां मेरा गुणगान करते हैं, मैं वहीं रहता हूँ ।’
भक्ति की उच्च अवस्था में पहुंचे तुकाराम भगवान पंढरीनाथ (विट्ठल) जैसे हो गए हैं । अब उन्हें भजन करने की आवश्कता नहीं है; परंतु तुकाराम को भजन करने की ऐसी आदत पड़ गई है कि भजन छूटता ही नहीं है । भक्त के लिए भक्ति एक व्यसन जैसी होती है, जो छोड़ने पर भी नहीं छूटती है ।
देह गेह की सुधि नहीं छूट गयी जग प्रीत ।
नारायण गावत फिरै प्रेम भरे संगीत ।।
ज्ञान से प्रेम श्रेष्ठ है । तुकाराम पहले सत्संग करते थे फिर उनको जप करने की आज्ञा मिली । तुकाराम नहीं जानते कि जिसका वह कीर्तन कर रहे हैं, वे बिना आमंत्रण के आज उनके द्वार पर साक्षात् खड़े हैं ।
भगवान विट्ठल की कृपा से कीर्तन करते समय इनके मुख से ‘अभंग-वाणी’ निकलने लगी । ऐसे भगवान के प्रेमी-भक्त जितने दिन संसार में रहते है, उनके द्वारा लाखों लोगों का उद्धार होता रहता है ।
भक्ति जब व्यसन बन जाए तो मनुष्य का बेड़ा पार हो जाता है । सं. १७०६ चैत्र कृष्ण द्वितीया के दिन प्रात:काल तुकाराम जी इस लोक से विदा हो गए; लेकिन उनका मृत शरीर किसी ने नहीं देखा । भगवान स्वयं उन्हें सदेह विमान में बिठा कर अपने वैकुण्ठ धाम में ले गए ।
इस प्रसंग का सार यही है कि मनुष्य को ऐसे सद्कर्म करने चाहिए कि बिना बुलाए ही भगवान स्वयं उसके पास आने की इच्छा करें । ऐसा तभी संभव है जब संसार से प्रेम उतना ही हो जितना बहुत जरुरी हो। परमात्मा से ही सच्चा प्रेम हो ।
प्रेम लग्यो परमेस्वर सौं,
तब भूलि गयो सब ही घरबारा ।
ज्यौं उनमत्त फिरै जित ही तित,
नैकु रही न सरीर सँभारा ।।
साँस उसास उठै सब रोम,
चलै दृग नीर अखंडित धारा ।
‘सुंदर’ कौन करै नवधा बिधि,
छाकि पर्यौ रस पी मतवारा ।।