भारतवर्ष संतों और भक्तों की भूमि है । यहां पर भगवान और उनके प्रेमी-भक्तों के परस्पर प्रेम की ऐसी कथाएं पढ़ने को मिलती हैं कि उन पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है और मन में एक हूक सी उठती है कि काश ! मेरे अंदर भी भगवान के प्रति ऐसा समर्पण, प्रेम और विश्वास जग जाए । 

भगवान में प्रेम वह मादक मदिरा है, जिसने भी इसे चढ़ा लिया वह मस्त हो गया । उस मतवाले की बराबरी कोई नहीं कर सकता । संसार के शहंशाह भी उसके गुलाम हैं । त्रिलोकी का राज्य उसके लिए तिनके के समान है । वह तो सदा अपनी मस्ती में ही मस्त रहता है । भगवान के प्रेमी-भक्त को वे सारे पदार्थ और व्यक्ति बाधक लगने लगते हैं, जो भगवान से जुड़े नहीं हैं । ऐसे ही भगवान जगन्नाथ और भक्त माधवदास के अद्भुत प्रेम की कथा है इस ब्लॉग में दी जा रही है—

भगवान जगन्नाथ और भक्त माधवदास 

भगवान वेदव्यासजी ही मानो माधवदास जी के रूप में इस संसार में प्रकट हुए थे । भगवान के दर्शन-पूजन, लीलागान में जो ‘जै-जै’ शब्द बोला जाता है, वह माधवदासजी ने ही सबसे पहले संसार में प्रचलित किया । माधवदासजी के इष्ट भगवान जगन्नाथजी थे । पत्नी के परलोक सिधारने पर माधवदासजी ने वैराग्य ले लिया । ‘तजौ मन, हरि-बिमुखनि कौं संग’ की तर्ज पर माधवदास जगन्नाथपुरी में समुद्र के किनारे एक स्थान पर भगवान के ध्यान में पड़े रहते । न अन्न-जल की चिन्ता और न ही गर्मी-सर्दी की परवाह ।

इस प्रकार एक बार जब बिना अन्न-जल के कई दिन बीत गए तब दयालु भगवान जगन्नाथ से अपने भक्त माधवदास की दशा देखी नहीं गई । उन्होंने लक्ष्मीजी को आज्ञा दी कि सोने के थाल में पकवान सजा कर मेरे भक्त माधव के पास पहुंचा दें । भगवान की आज्ञानुसार लक्ष्मीजी स्वर्ण-थाल में सुस्वादु पकवान सजा कर माधवदास के पास रख आईं । 

जब माधवदास का ध्यान समाप्त हुआ, तब वे भोजन का थाल देख कर रोने लगे कि मेरे कारण मेरे प्रभु ने इतना कष्ट सहन किया । भगवान का भोग लगाकर उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया । थाल साफ करके एक ओर रख दिया और फिर ध्यानमग्न हो गए । उधर जब मंदिर के पट खुले तो पुजारियों ने भगवान के भोग का एक सोने का थाल कम पाया । जगन्नाथपुरी में सबकी तलाशी होने लगी । स्वर्ण-थाल को ढूंढ़ते हुए पुजारी लोग माधवदास के पास आए । वहां पर सोने का थाल रखा देखकर उन्होंने माधवदास को चोर समझ लिया और लगे चाबुक मारने ।

रात्रि में भगवान जगन्नाथ ने पुजारियों को स्वप्न में कहा—‘मैंने माधव की चोट अपने ऊपर ले ली, अब तुम लोगों का मैं अनिष्ट करुंगा; नहीं तो उनके चरणों में पड़ कर अपने अपराध क्षमा करवा लो ।’  पुजारीगण माधवदास के पास जाकर उनके चरणों में गिर पड़े और अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी । नवनीत हृदय संत ने उन्हें क्षमा कर अभय प्रदान कर दिया ।

मत कभी किसी से डरना, प्रभु-बल पर निर्भर रहना ।
पर प्रेम-पंथ मत तजना, प्रभु प्रेमरूप-साकार हैं ।।
प्रेम के कारण धरे विविध तन, सहे कष्ट प्रभु ने आकर ।
विप्र-धेनु-सुर-संत-धर्म की, रक्षा की प्रभु ने आकर ।। (पं. श्रीजानकीरामाचार्यजी)

भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है । यह प्रेम ही तो है जिससे भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं और उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं । एक दिन माधवदास रात्रि में मंदिर में ही रुके । उनको जाड़ा लगने लगा तो भगवान जगन्नाथ ने अपनी रजाई हटाकर उन्हें ओढ़ा दी ।

जब भगवान जगन्नाथ भक्त माधवदास के सेवक बने

एक बार माधवदास को अतिसार (दस्त) हो गया और वे इतने दुर्बल हो गए कि स्वयं उठ-बैठ भी नहीं सकते थे । माधवदास की ऐसी हालत देखकर भगवान जगन्नाथ स्वयं सेवक बन कर उनकी सेवा करने लगे । वे माधवदास के मल-मूत्र से सने वस्त्र स्वयं अपने हाथों से साफ करते । जब माधवदास को कुछ होश आया, तब वे अपने आराध्य को तुरन्त पहचान गए और उनके चरण पकड़ कर बोले—‘नाथ ! मुझ जैसे अधम के लिए आपने इतना कष्ट उठाया ? आप तो सर्वशक्तिमान हैं; अपनी शक्ति से ही आपने मेरे दु:ख क्यों नहीं हर लिये ? बेकार में इतना परिश्रम किया !’

भगवान ने कहा—‘मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, इसी कारण मैंने तुम्हारी सेवा की । तुम जानते हो कि ‘प्रारब्ध भोगने से ही नष्ट होता है’—यह मेरा नियम है । मैं अपना नियम क्यों तोडूं ? इसलिए भक्तों की सेवा करके मैं उनसे प्रारब्ध-भोग करवाता हूँ और इसकी सत्यता संसार को दिखलाता हूँ ।’  माधवदास को यह ज्ञान देकर भगवान जगन्नाथ अन्तर्ध्यान हो गए ।

एक बार माधवदास व्रज के तीर्थों का दर्शन करने आए । जब वे श्रीबांकेबिहारीजी के दर्शन करने लगे तो उन्हें वहां चने मिले । उन्होंने उन चनों का यमुनातट पर आकर अपने ठाकुर का भोग लगाया और प्रसाद पाया । उधर जब स्वामी हरिदासजी ध्यानस्थ होकर बांकेबिहारीजी को भोग लगा रहे थे तो उन्होंने ध्यान में देखा कि ठाकुरजी भोग नहीं अरोग रहे हैं । 

स्वामीजी ने ठाकुरजी से पूछा—‘जै-जै’, आज आप भोग क्यों नहीं अरोग रहे हैं ?’ तब बांकेबिहारीजी ने कहा—‘आज मेरी भोजन पाने की इच्छा नहीं है, माधवदास ने चने खिला दिए हैं ?’

स्वामी हरिदासजी ने पूछा—‘माधवदास कहां हैं ?’ तब बांकेबिहारीजी ने बताया कि वे इस समय यमुनातट पर हैं । हरिदासजी ने माधवदास को बुलाकर चने खिलाने की बात पूछी तो माधवदास ने कह दिया—‘यदि आपके ठाकुर ग्वारिया (गाय चराने वाले) होंगे तो चने पचा लेगें; और यदि महलों में रहने वाले होंगे तो वे चने नहीं पचा पाएंगे ।’

रामचरितमानस (५।४८।८) में भगवान अपने प्रेमी भक्त विभीषण से कहते हैं—

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें ।
धरहुँ देह नहिं आन निहोंरें ।।

अर्थात्—तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं । तुम लोगों के लिए ही मैं विग्रह धारण करता हूँ, अन्य किसी कारण से नहीं ।

चाहे कुछ भी हो जाय उम्र भर तुझी को प्यारे चाहैंगे ।
सहैंगे सब कुछ, मुहब्बत दमतक यार निबाहैंगे ।।
तेरी नजर की तरह फिरेगी कभी न मेरी यार नजर ।
अब तो यों ही निभैगी, यों ही जिंदगी होगी बसर ।।
लाख उठाओ कौन उठे है, अब न छूटेगा तेरा दर ।
जो गुजरैगी, सहैंगे, करैंगे यों ही यार गुजर ।।
जितना करोगे जुल्म हम उतना उलटा तुम्हें सराहैंगे ।
सहैंगे, सब कुछ, मुहब्बत दमतक यार निबाहैंगे ।। (भारतेन्दु)

1 COMMENT

  1. Radhey Radhey…ye katha mujhey bahaut achi lagti h..jab bhi samney aati Thakurji padhatey ki hum bhi aise bhakt baney..unki kripa hi banayegi….🙏🙏

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