shri krishna

‘मुझको कहां ढूंढ़ता बंदे, मैं तो तेरे पास में’

पृथ्वी पर भगवान कहां निवास करते है, यह जानने के लिए मनुष्य भगवान को बाहर—मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों, गुरुद्वारों, मठों व वन-पर्वतों में खोजता फिर रहा है; लेकिन उसे भगवान मिलें कैसे ? क्योंकि वे तो उसके ही हृदयकमल में निवास करते हैं ।

पुष्प मध्य ज्यों वास बसत है,
मुकुट माहि जस छाई ।
तैंसे ही हरि बसें निरंतर,
घट ही खोजो भाई ।। (गुरुनानकदेवजी)

मनुष्य के हृदयकमल में विराजित हैं भगवान

वेद, पुराण, उपनिषद्, श्रुति आदि में भगवान का निवासस्थान मनुष्य का हृदय बताया गया है ।

गीता (१०।२०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ।’

अर्थात्—‘हे अर्जुन ! मैं वासुदेव सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ ।’

भगवान ने मनुष्य के हृदय को अपने निवास के लिए क्यों चुना ?

इससे सम्बन्धित एक सुन्दर कथा है—एक बार भगवान ने देवर्षि नारद से पूछा—‘आप तो त्रिलोकी में घूमते-फिरते हैं, आपसे कोई स्थान छुपा नहीं है । आप ही मुझे बताइए कि मैं कहां निवास करुँ ?’

नारदजी ने काफी सोच-विचार कर कहा कि इस संसार में सबसे शांत स्थान प्राणियों का हृदय ही है, अत: आप सबके हृदय में निवास कीजिए । तभी से भगवान प्राणियों के हृदयकमल पर विराजमान हैं ।

घट घट बसता राम रमैया ।
या घट अंदर मंदिर मस्जिद,
याही में सिरजनहारा ।। (कबीर)

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कई श्लोकों में कही है कि यद्यपि मैं सभी जगह समान भाव से परिपूर्ण हूं फिर भी सभी प्राणियों के हृदय में मेरी विशेष स्थिति है । जैसे—

गीता (१३।१७)—‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।’ अर्थात् भगवान सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित हैं ।

गीता (१५।१५)—‘मैं समस्त प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से स्थित हूँ ।’

गीता (१८।६१) में भी भगवान ने यही बात दोहराते हुए कहा है—‘हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्र में आरुढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ।’

सूरदासजी जन्म से अंधे थे परन्तु उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त थी । इसलिए जैसा भगवान का स्वरूप व लीला होती थी, वे अपने हृदय में स्थित श्रीकृष्ण का दर्शन करके उसे वैसा ही वर्णन कर देते थे । एक बार गुंसाई श्रीविट्ठलनाथजी के पुत्रों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही । उन्होंने बालकृष्ण की मूर्ति का कोई श्रृंगार नहीं किया । नग्न मूर्ति पर मोतियों की माला लटका दी और सूरदासजी से कीर्तन करने के लिए प्रार्थना की । दिव्य दृष्टि प्राप्त सूरदासजी ने पद गाया–

देखे री हरि नंगम नंगा।
जलसुत भूषन अंग बिराजत,
बसनहीन छवि उठत तरंगा।।

भगवान श्रीराम का कथन है—‘मैं राम सबमें रमने वाला हूँ और हृदयकमल में स्थित हूँ । जिस तरह चक्कर काटता हुआ भौंरा कमल में प्रवेश करके स्थिर हो जाता है, उसी प्रकार मैं आत्मारूपी सागर में स्थिर हूँ ।’

तुलसीदासजी ने भी भगवान का निवासस्थान मनुष्य के हृदय को माना है—

स्वामी सखा पितु मातु गुरु जिन्ह के सब तुम्ह तात ।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात ।। (राचमा २।१३०)

अर्थात्—जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, ऐसे ही भक्तों का मन-मन्दिर सीताजी और लक्ष्मण सहित आपके रहने का स्थान है ।

जाहि न चाहिअ कबहुं कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।। (राचमा २।१३१)

अर्थात्—जिसे संसार में कुछ नहीं चाहिए तथा जिसका आपके प्रति स्नेहभाव है, ऐसे ही भक्तों का हृदय आपके रहने योग्य सबसे अच्छा स्थान है ।

राम-दरबार में हनुमानजी ने अपनी छाती चीरकर सबको हृदयकमल में विराजमान सीताराम के दर्शन कराए थे ।

कबीरदासजी का बहुत प्रसिद्ध भजन है—

घूंघट के पट खोल री,
तोहे पिया मिलेंगे ।।
घट घट रमता राम रमैया,
कटुक वचन मत बोल री ।।

इस भजन का भाव भी यही है कि अपनी आंखों पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हटा लें तो तुम्हें अपने भगवान के दर्शन हो जाएंगे क्योंकि वह राम तो सभी प्राणियों के भीतर बसता है इसलिए किसी से भी कटु वचन मत बोल ।

निष्कपट और निष्कलुष हृदय में ही विराजते हैं भगवान

भक्त का निष्कपट हृदय ही भगवान का निवासस्थान है । भगवान वहीं रहते हैं, कहीं नहीं जाते; भक्त जब चाहे सच्चे मन से आंखें बंद करके और गर्दन झुकाकर हृदय में स्थित भगवान के दर्शन कर सकता है ।

जब मनुष्य किसी दुविधा में फंस जाता है तो यही कहा जाता है, ‘अपनी आत्मा से पूछो या अंतरात्मा/मन में झांककर देखो’।  मनुष्य की आत्मा में स्थित सत्यस्वरूप परमात्मा उसे अच्छे-बुरे की पहचान करा देता है । इसी बात को कबीरदासजी ने इस प्रकार कहा है—‘तेरा साहिब है घर मांही, बाहर नैना क्यों खोले ।’

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