एक बार यदुराजा ने देखा कि त्रिकालदर्शी अवधूत दत्तात्रेय जी निर्भर होकर घूम रहे हैं । उन्होंने दत्तात्रेय जी से पूछा—‘जब सारा संसार काम और लोभ की अग्नि में जल रहा है, आप उससे बिल्कुल प्रभावित नहीं हैं । आप इतने आनंद का अनुभव कैसे करते हैं ?’
दत्तात्रेय जी ने कहा—‘आनंद बाहर के विषयों में नहीं, अपने अंदर है । प्रारब्ध जो भी देता है, उसे मैं आनंद के साथ स्वीकार करता हूँ । दीक्षा-गुरु एक होता है; किंतु शिक्षा-गुरु अनेक हो सकते हैं । मैंने एक नहीं चौबीस गुरुओं से ज्ञान पाया है ।’
अवधूत दत्तात्रेय जी ने अपने जीवन-यापन के क्रम में पंचभूतों और छोटे-छोटे जीवों की स्वाभाविक क्रियाओं को बहुत ध्यान से देखा और उनमें उन्हें जो कुछ भी अच्छा लगा, उसे उन्होंने गुरु मान कर अपने जीवन में उतार लिया । इस प्रसंग का वर्णन श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में किया गया है ।
अवधूत दत्तात्रेयजी के 24 गुरु और उनकी शिक्षाएं
(१) पृथ्वी—दत्तात्रेय जी ने पृथ्वी को देख कर धैर्य और क्षमा जैसे गुणों की सीख ली । पृथ्वी अपनी छाती पर दिन-रात विचरने वाले और उस पर अनेक आघात करने वाले किसी भी प्राणी से कभी भी बदला नहीं लेती है । न तो वह अपना धीरज खोती है और न ही कभी क्रोध करती है । दत्तात्रेय जी को यह बात समझ में आ गई कि मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी बात में है कि वह पृथ्वी की तरह सदा क्षमाशील होकर दूसरों के हित में लगा रहे । पृथ्वी के इसी गुण के कारण उन्हें प्रात:काल वंदन किया जाता है ।
(२) वायु—वायु सदैव चलायमान है और अच्छी-बुरी सभी प्रकार की वस्तुएं उसके संपर्क में आती हैं; परंतु वह किसी में लिप्त नहीं होती है, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाती है । अत: मनुष्य को निर्लिप्त रहते हुए हर समय गतिशील रहना चाहिए ।
(३) आकाश—आकाश में असीमता और अखण्डता का गुण है । इससे सीख लेते हुए मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को छोटे उद्देश्यों में न बांट कर बड़े-बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे ।
(४) जल—जल स्वभाव से ही स्वच्छ, मधुर और पवित्र करने वाला होता है । वह अपने सम्पर्क में आने वाली सभी वस्तुओं को शुद्ध व शीतल कर देता है । अत: मनुष्य को स्वभाव से ही शुद्ध, मधुरभाषी और दूसरों का हित करने वाला होना चाहिए ।
(५) अग्नि—दत्तात्रेय जी ने अग्नि से पवित्रता की सीख ली । मनुष्य की शुभ कर्मों को उत्तेजित करने और अशुभ कर्मों को भस्म कर देने की प्रवृत्ति होनी चाहिए अर्थात् विवेक रूपी अग्नि में दूसरों के पापों और दोषों की बात जला दो और अपना हृदय पवित्र रखो । किसी का पाप सुनना नहीं चाहिए और यदि सुन लिया तो मन में रखना नहीं चाहिए ।
(६) चंद्रमा—चंद्रमा की कलाएं घटती-बढ़ती रहती हैं । मनुष्य का भी जन्म से लेकर मृत्यु तक आकार और शक्ति बढ़ते-घटते रहते हैं । मनुष्य को साधन की कमी या वृद्धि से प्रभावित नहीं होना चाहिए अर्थात् सम्पत्ति में विवेक न खोना और विपत्ति में दु:खी नहीं होना चाहिए ।
(७) सूर्य—जिस प्रकार सूर्य जल को सोख कर मनुष्यों के कल्याण के लिए उसे समय पर वर्षा के रूप में दान कर देता है; उसी प्रकार मनुष्य को प्राप्त होने वाली वस्तुओं की सार्थकता इसी में है कि उसमें त्याग की प्रवृत्ति भी जुड़ी हो । मनुष्य को सूर्य की तरह परोपकारी होना चाहिए ।
(८) कबूतर—एक कबूतर को अपने परिवार के मोहजाल में पड़ कर अपने प्राण गंवाते देख कर दत्तात्रेय जी ने यह सीख ली कि परिवार से बहुत अधिक मोहग्रस्त होने पर मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है । अत: इस अत्यधिक मोह से बचने में ही मनुष्य का कल्याण है । किसी की मृत्यु पर विलाप करने वाला स्वयं भी एक दिन जाने वाला है, फिर दूसरों के लिए क्यों रोते हो, अपने लिए ही रोओ ।
(९) अजगर—अजगर जैसे आलसी प्राणी से दत्तात्रेय जी ने संतोष-वृत्ति की शिक्षा ली । मनुष्य को प्रारब्ध अनुसार जो प्राप्त हो उसी में ही संतुष्ट रहना चाहिए ।
(१०) समुद्र—समुद्र को देख कर उन्होंने सदा गंभीर और अविचलित रहने का गुण अपनाया । जैसे समुद्र वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और गर्मी में घटता नहीं; वैसे ही मनुष्य को सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में प्रसन्न और उनके घटने पर उदास नहीं होना चाहिए ।
(११) पतिंगा—दत्तात्रेय जी ने दीपक की लौ से आकृष्ट होकर पतिंगे को उसमें जल कर मरते देखा । इससे उन्होंने सीखा कि विषय-भोगों के चक्कर में पड़ने से प्राणी का विनाश निश्चित है । जगत के विषय बाहर से सुंदर हैं, भीतर से नहीं, सुंदरता तो कल्पना मात्र है । एकमात्र श्रीकृष्ण ही सुंदर हैं उनसे ही प्रेम करना चाहिए ।
(१२) भौंरा और मधुमक्खी—भौंरा विभिन्न पुष्पों से चाहे वे छोटे हों या बड़े, उनका सार (रस) संग्रह करता है । इससे दत्तात्रेय जी ने सीखा कि मनुष्य को भौंरों की तरह छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से जहां भी उपयोगी और कल्याणकारी तत्त्व मिले, बटोर लेना चाहिए; किंतु में भी आसक्त नहीं बनना चाहिए । भौंरा लकड़ी तो छेद सकता है; परंतु कमल में आसक्ति के कारण उसकी कोमल पंखुड़ी को छेद कर बाहर नहीं आ पाता । भ्रमर कमल की पंखुड़ियों के खुलने का इंतजार करता है; किंतु काल रूपी हाथी आकर उसके सारे सपने तोड़ देता है । उसी तरह मनुष्य विषय-सुख में फंस कर काल रूपी हाथी के द्वारा नष्ट हो जाता है ।
मधुमक्खी—मधुमक्खी से उन्होंने अत्यधिक संग्रह न करने की सीख ली । मधुमक्खी का जीवन संग्रह करने के चक्कर में दूभर हो जाता है और अंत में वह उसी में अपनी जान गंवा बैठती है । लोग मधुमक्खी को मार कर उसका मधु छीन लेते हैं ।
(१३) हाथी—हाथी पकड़ने वाले तिनकों से ढके हुए गड्डे पर कागज की हथिनी खड़ी कर देते हैं । उसे देख कर हाथी वहां आता है और गड्डे में गिर कर फंस जाता है । हाथी जैसा विशाल जीव भी स्पर्श-सुख के चक्कर में बंधनग्रस्त हो जाता है । अत: स्पर्श इंद्रिय-सुख के त्याग में ही मनुष्य की भलाई है ।
(१४) शहद निकालने वाला पुरुष—उससे उन्होंने संग्रह न करने की सीख ली । उन्होंने देखा कि अत्यधिक संचय के कारण मधुमक्खी का मधु लुट जाता है; उसी तरह अत्यधिक कंजूसी से बटोरा गया धन भी मनुष्य के काम नहीं आता है । अत: मनुष्य को अधिक धन का दान करना चाहिए ।
(१५) हिरण—कानों से संगीत की मधुर ध्वनि को सुन कर उसकी ओर आकृष्ट होने वाले हिरण शिकारी के बाण का निशाना बन जाते हैं । अत: दत्तात्रेय जी ने कर्णेन्द्रिय-सुख की छलना से बचने की सीख ली ।
(१६) मछली—जीभ को वश में न रखने के कारण मछली कांटे में लगे मकोड़े की ओर लपकती है और अपने प्राण गंवा बैठती है । इससे जिह्वा-स्वाद की लोलुपता से बच कर आत्म रक्षा करने की सीख दत्तात्रेय जी को मिली । कहा गया है—‘जो रसना को जीतता है, वह सर्वस्व को जीत लेता है ।’
इस प्रकार पांच इंद्रियों से विषयों का सेवन करने से पतंगा, हाथी, भौंरा, हिरन और मछली का नाश हो जाता है तो सभी विषयों का भोग करने वाले मनुष्य की कैसी दुर्गति होगी, कहा नहीं जा सकता ?
(१७) पिंगला वेश्या—विदेह नगरी में रूप का व्यापार करने वाली एक वेश्या को सच्ची शान्ति इंद्रिय-संयम से ही मिली । पिंगला ने सोचा—कामी पुरुषों के लिए जागने की अपेक्षा प्रभु के लिए जाग कर उनको ही क्यों न पा लूं ? उससे दत्तात्रेय ने शिक्षा ली कि इस जगत में आशा परम दु:ख है और निराशा परम सुख, सो सुख की आशा न करें । आशा की जंजीर मनुष्य को किस हद तक जकड़े रहती है, इसका वर्णन करते हुए शंकराचार्यजी कहते हैं—
‘शरीर गला जा रहा है, केश श्वेत हो गए हैं, दांत गिर चुके हैं, दुर्बलता के कारण लकड़ी के सहारे चलना पड़ता है, फिर भी बूढ़ा आशा का पिंड नहीं छोड़ता है । ऐसे बूढ़े की तरह आचरण करने की बजाय मनुष्य को ‘भज गोविदं भज गोविदं, गोविदं भज मूढमते’ का आश्रय लेना चाह्ए ।
(१८) कुरर पक्षी—दत्तात्रेय जी ने एक दिन देखा कि मांस का टुकड़ा चोंच में दबा कर उड़ता हुआ कुरर पक्षी दूसरे बलवान पक्षियों द्वारा लगातार छीना-झपटी का दु:ख सह रहा है । दु:खी होकर जैसे ही उसने मुंह से टुकड़ा नीचे गिराया कि सभी पक्षी उसे छोड़ कर चले गए और उसे मानसिक शान्ति मिल गई । यह देख कर दत्तात्रेय जी ने यह सीख ली कि सच्ची शान्ति अपरिग्रह (संग्रह न करने) में है ।
(१९) बालक—बालक से दत्तात्रेय जी ने भोलेपन और निर्दोषता की शिक्षा ग्रहण की ।
(२०) कुंवारी कन्या—एक कुंवारी कन्या को देखने वर पक्ष के लोग आए । संयोग से परिवार के सभी वोग उस समय बाहर गए हुए थे । अतिथियों का सत्कार करने के लिए वह कन्या आंगन में बैठ कर धान कूटने लगी तो उसकी कलाई की चूड़ियां बजने लगीं । कहीं बाहर मेहमानों के पास आवाज न जाए इसलिए उसने अपनी दोनों कलाइयों में एक-एक चूड़ी छोड़ कर बाकी सारी चूड़ियां उतार दीं । यह देख कर दत्तात्रेय जी के मन में यह विचार आया कि जहां एक स्थान पर अधिक लोग एकत्र होते हैं, वहां कलह-कोलाहल होता है । अत: भीड़ ही अनर्थ की जड़ है; इसलिए साधक को एकांत वास करना चाहिए ।
(२१) बाण बनाने वाला कारीगर—एक कारीगर एकाग्रचित्त होकर बाण बना रहा था । सामने से बड़ी धूमधाम से राजा की सवारी निकली तो उसने बड़ी लापरवाही से उसे देखा । यह देख कर दत्तात्रेय जी ने तन्मयता की सीख ली । ईश्वर की आराधना में तन्मयता के बिना सिद्धि नहीं मिलती है ।
(२२) सांप—सांप को नि:शब्द सरकते देख कर दत्तात्रेय जी ने यह सीख ली कि मौन रहे, कम-से-कम बोले, किसी की सहायता न ले, पिछलग्गुओं से बच कर स्वात:सुखाय (अपने आप में सुख पाता हुआ) विचरण करे ।
(२३) मकड़ी—मकड़ी को अपने मुंह ले लार टपका कर जाला बुनते-बिगाड़ते देख कर दत्तात्रेय जी को जन्म-मरण के चक्कर और माया-मोह के ताने बाने का स्मरण हो गया । ईश्वर भी अपनी माया से सृष्टि का सृजन करते हैं और अंत में संहार भी कर देते हैं ।
(२४) भृंगी कीट—भृंगी कीट जिस प्रकार एक कीड़े को अपने बिल में कुछ समय तक बंद कर उसे अपने जैसा ही बना देता है; उसी प्रकार परमात्मा का सतत् चिंतन करने से मनुष्य में भी उनके गुण आने लगते हैं । दत्तात्रेय जी ने भृंगी कीट से यह शिक्षा ली ।
अब दत्तात्रेय जी ने स्वयं अपने शरीर को ध्यान से देखा और पाया कि उनकी इंद्रियां भी अपने-अपने अभीष्ट पदार्थों को लेकर आपस में खींचातानी करती रहती हैं । आसक्ति और अहंकार के झंझावत भी अलग से झकझोरते रहते हैं । शरीर नश्वर है; इसलिए मनुष्य को आलस्य छोड़ कर परम तत्त्व की खोज में संलग्न रहना चाहिए ।