श्रीगणेश आद्य पूज्य देव हैं। उनका स्वरूप असामान्य और ध्येय है। उनका मुख छोटे हाथी के शिशु के समान बड़ा ही लावण्यमय है। गणपति अथर्वशीर्ष में श्रीगणेश के रूप का वर्णन इस प्रकार है–
एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
अभयं वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।।रक्तं लम्बोदरं शूपकर्णकमं रक्तवाससम्।
रक्तगन्धानुलिप्ताँगं रक्तपुष्पै: सुपूजितम।।
श्रीगणेश का प्रत्येक अंग किसी-न-किसी विशेषता को लिए हुए है जिनका गूढ़ अर्थ है। यथा–
बौना रूप–उनका ठिंगना रूप यह शिक्षा देता है कि मनुष्य को सरलता और नम्रता आदि गुणों के साथ सदैव अपने को छोटा मानना चाहिए जिससे उसके अन्दर अभिमान न आए।
गजमुख–श्रीगणेश बुद्धिदाता हैं और मस्तक ही बुद्धि व विचार शक्ति का प्रधान केन्द्र है। हाथी में बुद्धि, धैर्य एवं गाम्भीर्य की प्रधानता होती है। वह अन्य पशुओं की भाँति खाना देखते ही उस पर टूट नहीं पड़ता बल्कि धीरता एवं गम्भीरता के साथ उसे ग्रहण करता है।
शूपकर्ण–श्रीगणेश के कान बड़े होते हैं। इसका अर्थ है कि साधक को सबकी सुनना चाहिए, परन्तु उसके ऊपर गम्भीरता से विचार कर कार्य करना चाहिए। यह सफलता का मन्त्र है। हाथी जैसे लम्बे कानों का एक अर्थ यह भी है कि मनुष्य को अपने कान इतने विस्तृत बना लेने चाहिए कि उनमें सैंकड़ों निंदकों की बात भी समा जाए और वह कभी जिह्वा पर भी न आए अर्थात् मनुष्य में निन्दा पाचन की क्षमता होनी चाहिए।
लम्बोदर–इस रूप से यही अर्थ निकलता है कि मनुष्य का पेट बड़ा होना चाहिए यानि सबकी अच्छी बुरी बातों को अपने पेट में रखे तुरन्त उसकी इधर उधर चुगली ना करे।
एकदन्त–श्रीगणेश का एक दाँत हमें यही ज्ञान कराता है कि जीवन में सफल वही होता है जिसका लक्ष्य एक हो। श्रीगणेश अपने एकदन्तरूपी लक्ष्य के कारण ही जीवन में न केवल सफल रहे अपितु अग्रपूजा के अधिकारी बने।
दीर्घनासिका–नाक मनुष्य की प्रतिष्ठा की प्रतीक है और मनुष्य हरसंभव उपाय से अपनी नाक बचाने का प्रयास करता है। श्रीगणेश की दीर्घनासिका मानव को नाक की प्रतिष्ठा की रक्षा का संदेश देती है।
छोटे नेत्र–हाथी के नेत्र प्रकृति ने कुछ इस प्रकार बनाए हैं कि उसे छोटी वस्तु भी बड़ी दिखायी देती है। श्रीगणेशजी की आँखें हाथी की होने के कारण हमें बताती हैं कि मानव का दृष्टिकोण उदार होना चाहिए। उसे अपने गुणों की अपेक्षा दूसरे के गुणों को अधिक विकसित रूप में देखना चाहिए।
वक्रतुण्ड–मनुष्यों को भ्रान्ति में डालने वाली भगवान की माया वक्र (दुस्तर) है। उस माया को अपनी तुण्ड (सूँड) से दूर करने के कारण गणेशजी वक्रतुण्ड कहलाते हैं।
चतुर्भुज–गणपति जलतत्व के अधिपति हैं। जल के चार गुण होते हैं–शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस। सृष्टि चार प्रकार की होती है–स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज तथा जरायुज। पुरुषार्थ चार प्रकार के होते हैं–धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। श्रीगणेश ने देवता, मानव, नाग और असुर इन चारों को स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल में स्थापित किया। भक्त भी चार प्रकार के होते हैं–आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथी एवं ज्ञानी। उपासना के भी चार प्रकार होते हैं। अत: गणेशजी की चार भुजाएँ चतुर्विध सृष्टि, चतुर्विध पुरुषार्थ, चतुर्विध भक्ति तथा चतुर्विध उपासना का संकेत करते हैं।
मोदक का भोग— मोदक के भोग का अभिप्राय है कि अलग-अलग बिखरी हुयी बूँदी के समुदाय को एकत्र करके मोदक के रूप में भोग लगाया जाता है। व्यक्तियों का सुसंगठित समाज जितना कार्य कर सकता है उतना एक व्यक्ति से नहीं हो पाता।
सिंदूर–सिंदूर सौभाग्यसूचक एवं मांगलिक द्रव्य है। अत: मंगलमूर्ति गणेश को मांगलिक द्रव्य समर्पित करना चाहिए।
दूर्वा–हाथी को दूर्वा प्रिय है। दूसरे दूर्वा में नम्रता और सरलता भी है। यही कारण है कि तूफानों में बड़े-बड़े पेड़ गिर जाते हैं और दूर्वा जस-की-तस खड़ी रहती है। एक और तथ्य है कि दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने आप चारों ओर फैलतीं हैं । अत: दूर्वा की भाँति भक्तों के कुल की वृद्धि होती रहे और स्थायी सुख सम्पत्ति प्राप्त हो।
मूषक वाहन–मूषक का स्वभाव है वस्तु को काट डालना। वह यह नहीं देखता कि वस्तु नयी है या पुरानी, बस उसे काट देता है। इसी प्रकार कुतर्कीजन भी यह नहीं देखते कि यह विचार कितना अच्छा है बस उस पर कुतर्क करना शुरू कर देते हैं। गणेशजी बुद्धिप्रद हैं अत: वे कुतर्करूपी मूषक को वाहन रूप में अपने नीचे दबा कर रखते हैं।
पाश, अंकुश, वरदहस्त और अभयहस्त–पाश राग का और अंकुश क्रोध का संकेत है। गणेशजी भक्तों के पापों का आकर्षण करके अंकुश से उनका नाश कर देते हैं। उनका वरदहस्त भक्तों की कामना पूर्ति का तथा अभयहस्त सम्पूर्ण भयों से रक्षा का सूचक है।
नाग-यज्ञोपवीत और सिर पर चन्द्रमा–नाग-यज्ञोपवीत कुण्डलिनी का संकेत है तथा सिर पर चन्द्रमा सहस्त्रार के ऊपर स्थित अमृतवर्षक चन्द्रमा का प्रतीक है।
इक्कीस पत्रों से पूजा–गणेशजी को चढ़ाये जाने वाले विभिन्न पत्ते जैसे-शमी पत्र, विल्ब पत्र, धतूरा, अर्जुन, कनेर, आक, तेजपत्ता, देवदारू, गांधारी, केला, भटकटैया, सेम, अपामार्ग, अगस्त, मरुआ आदि के पत्ते आरोग्यवर्धक व औषधीय गुणों से युक्त हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गणेशजी के स्वरूप, पूजा के उपकरणादि का गहरा अर्थ है। इनके चिन्तन से ही मनुष्य सहज भक्ति का अधिकारी होकर समस्त सिद्धियों का अधिकारी हो जाता है।