प्रत्येक स्थान का वायुमंडल, वातावरण और पर्यावरण मनुष्य के मन और फिर तन को प्रभावित करता है; इसीलिए हमारे शास्त्रों में क्षेत्र शुद्धि को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है । कुछ स्थान जैसे मंदिरों में भक्ति के परमाणु अधिक होते हैं; अत: वहां जाने पर मन में भक्ति जाग्रत होती है, मन शांत रहता है । कुछ स्थान ज्ञान-प्रधान होते हैं, तो कुछ कर्म-प्रधान । कई जगह जाकर मन में दया भाव आ जाता है, तो कुछ स्थानों पर जाकर मन में वीरता के भाव जाग्रत होते हैं ।
जिस भूमि पर मनुष्य या प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है । शुभ वास्तु के रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से मन बेचैन, चिंताग्रस्त और नकारात्मक ऊर्जा से ग्रस्त रहता है ।
विभिन्न पुराणों की रचना करते समय भगवान वेदव्यास जी ने रामायण की कथा कही है । मार्कण्डेय पुराण में भी थोड़े हेर-फेर के साथ रामायण की कथा मिलती है ।
मार्कण्डेय पुराण में भगवान श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के वनवास के समय का एक प्रसंग दिया गया है, जो ‘भूमि दोष का मनुष्य के विचारों पर प्रभाव’ को दर्शाता है—
वनवास काल में श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी जी विभिन्न वनों में भ्रमण कर रहे थे । एक दिन उन्होंने एक ऐसे वन में प्रवेश किया, जहां आने के बाद लक्ष्मण जी के मन में थोड़ा कुभाव आ गया । वे मन में विचार करने लगे—माता कैकेयी ने श्रीराम को वनवास दिया है, मुझे वन में भटकने की क्या आवश्यकता है ? मैं अयोध्या वापिस चला जाऊँ, मेरी पत्नी उर्मिला वहां है, मैं भी वहां जाकर सुख भोगूँ । राम जी के पीछे भटकने में मुझे कोई लाभ नहीं है ।
प्रभु श्रीराम भांप गए कि लक्ष्मण का मन आज कुछ बिगड़ा हुआ है । उन्होंने लक्ष्मण जी को आज्ञा दी कि—‘लक्ष्मण ! इस क्षेत्र की थोड़ी मिट्टी तो ले आओ और उसे अपने पास पोटली में डाल कर रख लो ।’
लक्ष्मण जी ने श्रीराम की आज्ञा मान कर थोड़ी मिट्टी ली और उसकी पोटली बनाकर अपने साथ रख ली ।
लक्ष्मण जी जब स्नान करते समय पोटली अपने से अलग रखते तो उनका मन पवित्र हो जाता । उनके मन में यह भाव रहता कि सीताराम जी तो प्रत्यक्ष परमात्मा हैं, इनकी सेवा से ही मेरा जीवन सफल होगा, सांसारिक भोगों में कोई सुख नहीं है । लेकिन जैसे ही वे स्नान के बाद उस मिट्टी की पोटली को अपने कमर में फेंटे से बांधते, उनका मन सीताराम जी के प्रति कुभाव से भर जाता और वे सोचने लगते कि मैं अयोध्या लौट जाऊँ, यहां वन में श्रीराम के पीछे भटकने से मुझे कोई लाभ होने वाला नहीं है ।
ऐसा तीन-चार दिन तक होता रहा । लक्ष्मण जी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये मेरे मन को क्या हो गया है ?
एक दिन लक्ष्मण जी ने श्रीराम को अपने मन की व्यथा बताते हुए ऐसा होने का कारण पूछा ।
श्रीराम ने कहा—‘लक्ष्मण ! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । यह यहां की मिट्टी का दोष है । तुम यह मिट्टी फेंक दो । जिस भूमि में जो काम होता है, उसके परमाणु उस भूमि मे और उस क्षेत्र के वातावरण में रहते हैं ।
अब मैं तुम्हें वह कारण बता रहा हूँ, जिसके कारण तुम्हारे मन में मेरे प्रति कुभाव आता है ।’
सुन्द और उपसुन्द नामक दो भाइयों की कथा
पूर्व काल में सुन्द और उपसुन्द नाम के दो राक्षस सगे भाई थे । उन्होंने उग्र तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया । ब्रह्मा जी ने उनसे वरदान मांगने को कहा ।
सुन्द और उपसुन्द ने कहा—‘ब्रह्मन् ! ऐसा वरदान दो कि हमें कोई मार न सके ।’
ब्रह्मा जी ने कहा—‘जिसका जन्म हुआ है, उसे मरना ही पड़ता है । तुम मरने के लिए कोई कारण रखो ।’
सुन्द और उपसुन्द—दोनों भाइयों में प्रगाढ़ प्रेम था । उन्होंने विचार किया कि हममें आपस में कभी वैर तो होना नहीं है; इसलिए हम एक-दूसरे को मारने वाले हैं नहीं । अमर रहने के लिए यही उपाय उत्तम है । इससे मरने का कारण भी बन जाएगा और कभी मरण संभव भी नहीं होगा ।
उन्होंने ब्रह्मा जी से वर मांगा—‘हम दोनों भाइयों के बीच यदि किसी दिन झगड़ा हो तो हमारी मौत हो जाए; परंतु अन्य कोई हमें न मार सके ।’
ब्रह्मा जी ‘तथाऽस्तु’ कह कर चले गए ।
जो अपनी तपस्या से प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग करता है, उसे ही ‘राक्षस’ कहते हैं और जो अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों की सेवा-सहायता में करता है, वही ‘देवता’ कहलाता है ।
सुन्द और उपसुन्द की भी उग्र तपस्या के कारण शक्ति बहुत बढ़ गई और वे देवताओं को सताने लगे । सभी देवता मिल कर ब्रह्मा जी के पास गए और दोनों राक्षसों के मरण का कोई उपाय बताने की प्रार्थना की ।
ब्रह्मा जी ने तिलोत्तमा नाम की एक अप्सरा प्रकट की और उससे कहा—‘तुम जाकर दोनों भाइयों में वैर उत्पन्न करो ।’
तिलोत्तमा, सुन्द और उपसुन्द जहां रहते थे, वहां गई । उस सुंदर अप्सरा को देखते ही सुन्द के मन में आया कि यह मुझको मिले । उधर उपसुन्द भी सोचने लगा कि यह अप्सरा मुझको मिलनी चाहिए । तिलोत्तमा को प्राप्त करने के लिए दोनों भाई आपस में झगड़ने लगे ।
तिलोत्तमा ने कहा—‘तुममें से जो मुझे पसंद होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुंगी ।’
सुन्द उपसुन्द से बोला—‘यह तेरी भाभी है ।’
उपसुन्द ने सुन्द से कहा—‘मैं इससे विवाह करुंगा, यह तेरी भाभी है ।‘
इस तरह आपस में कहा-सुनी करते-करते दोनों एक-दूसरे को मारने लगे और आपसी वैर से स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त हो गए ।
श्रीराम ने लक्ष्मण जी से कहा—‘यह वही भूमि है, जहां सुन्द और उपसुन्द आपस में युद्ध करके मरे थे; इसलिए इस भूमि में वैर के संस्कार है । भूमि दोष का असर मनुष्य के मन पर होता है ।’
अशुद्ध भूमि के कारण भी मनुष्य का मन भक्ति में नहीं लगता । जो भूमि पवित्र होती है, वहां भक्ति फलती-फूलती है; इसीलिए शास्त्रों में मनुष्य को कुछ समय तीर्थ में जाकर रहने का विधान किया गया है ।