shri krishna, krishna

एक बार ऋषियों ने विचार किया कि संसार में सबसे बड़ा कौन है, जिसका भजन किया जाए ? किसी ने कहा कि पृथ्वी सबसे बड़ी है; क्योंकि यह सारे संसार को धारण किए हुए है । दूसरे ऋषि ने कहा कि उस पृथ्वी को शेष भगवान ने अपने फणों पर धूल के कण के समान धारण कर रक्खा है, अत: शेष भगवान सबसे बड़े हैं । तीसरे ने कहा कि शेषनाग को भगवान शंकर ने अपने हृदय पर आभूषण की तरह धारण कर रक्खा है, अत: शंकर जी सबसे बड़े हैं । चौथे ने कहा कि शिव के निवासस्थान कैलास को उनके सहित रावण ने अपनी भुजाओं पर उठा लिया । उस रावण को बालि ने जीत लिया और बालि का वध श्रीरामचन्द्र जी ने किया । अत: भगवान श्रीराम सबसे बड़े हैं । यह सुनकर पांचवे ऋषि ने कहा—ऐसे परमात्मा श्रीराम को भक्त अपने हृदय में धारण करते हैं; इसलिए भक्त ही त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ हैं ।

भक्तों की मुक्ति किस प्रकार की होती है ?

भक्त की जब इतनी महिमा है तो प्रश्न यह है कि मृत्युपर्यन्त उनकी किस प्रकार की गति होती है ?

गीता (८।१४) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मेरा स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।’

भगवान के वचनानुसार भक्त अपने आराध्य के लोक (भगवद्धाम) में जाते हैं । वहां उनकी ५ प्रकार की मुक्ति होती है—

१. भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है । 

२. भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है । 

३. भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है । 

४. भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है । 

५. भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति कहलाती है ।

जिस भक्त को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है । वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है । संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है ।

भगवान के वचन सत्य करती एक कार्तिक महात्म्य की लोक कथा

कार्तिक महीने में एक बुढ़िया तुलसी जी को सींचती और कहती—‘हे तुलसा महारानी, हरि की पटरानी ! यदि मैं सच्चे मन से तेरा बिरवा (पौधा) सीचती हूँ, तो मुझे चटक की चाल दे, पटक की ग्यारस की मोंत दे, चंदन का काठ दे, श्रीकृष्ण का कंधा दे !’

रोज-रोज बुढ़िया की बात सुन कर तुलसी माता सूखने लगीं । एक दिन भगवान ने पूछा–‘हे प्रिये ! तुम क्यों सूख़ रही हो ?’

तुलसी जी ने कहा कि एक बुढ़िया रोज आती है और कहती है—‘हे तुलसा महारानी, हरि की पटरानी ! यदि मैं सच्चे मन से तेरा बिरवा सीचती हूँ, तो मुझे चटक की चाल दे, पटक की ग्यारस की मोंत दे, चंदन का काठ दे, श्रीकृष्ण का कन्धा दे !’  बुढ़िया की सब बात पूरा करना तो मेरे वश में है; किंतु कृष्ण का कंधा देना मेरे वश में नहीं है । 

भगवान श्रीकृष्ण बोले—‘जब बुढ़िया मरेगी तो में अपने-आप उसे कंधा दे आऊंगा । तुम बुढ़िया से कह देना ।’

एक दिन बुढिया की मौत हो गई । सब लोग उसे अंतिम-संस्कार के लिए ले जाने के लिए आ गये; परंतु वह तो किसी से उठी ही नहीं ।

तब भगवान श्रीकृष्ण एक बारह बर्ष के बालक का रूप धारण करके वहां आये । बालक ने बुढ़िया के कान में कहा—‘माई मन की निकाल ले, ले कृष्ण का कंधा ले ।’

इतना सुनते ही बुढिया का पार्थिव शरीर हल्का हो गया । भगवान ने कंधा दिया और बुढिया को मुक्ति मिल गई ।

ऐसी होती है भक्तों की मुक्ति 🌹

शुकदेव जी बड़ी उमंग व तन्मयता से गोपीजनों का वर्णन कर रहे थे । बीच में ही परीक्षित बोल उठे–’हे महामुनि ! वे गोपिकाएं तो भगवान को अपना एक प्रियजन मानती थीं, उनका श्रीकृष्ण में ब्रह्मभाव तो था नहीं, तब उन्हें संसार से मुक्ति कैसे मिल गयी ? मुक्ति तो ज्ञान के बिना होती नहीं ।’

शुकदेव जी को बड़ा आश्चर्य हुआ–गोपियों की और मुक्ति ! जब विष पिलाने वाली पूतना और दुष्टबुद्धि वाला शिशुपाल श्रीकृष्ण से द्वेष करके ही मुक्त हो गए, तब गोपियां तो श्रीकृष्ण की प्रियाएं थी । श्रीकृष्ण से कैसा भी सम्बन्ध हो–चाहे वह काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो, स्नेह का हो–सम्बन्ध होना चाहिए । जब उनसे द्वेष करने पर असुरों को मुक्ति मिलती है, तो प्रेम करने वालों को, उनमें भी गोपियों को, जिन्होंने अपना सर्वस्व उन प्रभु को ही समझ रखा है–मुक्ति की तो चले क्या, उन्हें क्या मिला, यह कोई नहीं बता सकता ? भगवान स्वयं उनके ऋणी हो गए ।

श्रीमद्भागवत में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–’जो मेरे गोपीजन हैं वे मेरी सेवा के अतिरिक्त मुक्ति भी स्वीकार नहीं करते । ऐसे इच्छारहित, शान्त, निर्वैर और समदर्शी भक्तों की चरण-रज से अपने को पवित्र करने के लिए मैं सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ ।’

या ब्रजरज के परस (स्पर्श) से, मुकति मिलत हैं चार ।
वा रज को नित गोपिका, डारत डगर बुहार ।।

आंगन की जिस रज में कन्हैया खेलते हैं, वह रज कोई ले ले तो उसको चारों प्रकार की मुक्ति मिल जाए । पर यशोदा माता नित्य सुबह उसी रज को बुहार कर घर से बाहर फेंक देती हैं । मैया के लिए तो वह कूड़ा-करकट है । अब मुक्ति किसको चाहिए ? मैया ने तो केवल कन्हैया को चाहा है ।

स्वयं मुक्ति भी अपनी मुक्ति (मोक्ष) के लिए उस ब्रज की रज को जहां गोपीजन निवास करते थे, अपने मस्तक पर धारण करने के लिए लालायित रहती है—

मुक्ति कहै गोपाल सौं मेरी मुक्ति बताय ।

ब्रज रज उड़ि मस्तक लगै मुक्ति मुक्त होइ जाय ।।वैष्णव मुक्ति इसलिए स्वीकार नहीं करते; क्योंकि उन्हें भगवान की सेवा में आनंद, रस आता है । वैष्णवों को जो मुक्ति मिलती है, उसे ‘भागवती मुक्ति’ कहते हैं, जिसमें वे भगवान के धाम में अति दिव्य, अप्राकृत रूप धारण कर नित्य भगवान की सेवा करते हैं और उनकी लीलाओं में सम्मिलित होते हैं ।

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