Shri Ram bhagwan

अयोध्या भगवान श्रीराम का धाम होने से उन्हीं की तरह दिव्य, चिन्मय, सर्वोपरि और मोक्षदायिका है । परमात्मा का अवतार जिस भूमि पर होता है, वह भूमि दिव्य बन जाती है । भगवान के प्राकट्य के साथ उनके दिव्य धाम का प्राकट्य भी पृथ्वी पर होता है । 

भगवद्धाम किसे कहते हैं ? जहां जाने पर पुन: इस संसार में लौटना नहीं होता, और जहां पहुंचने पर इस संसार से किसी भी काल में, या किसी भी अवस्था में पुन: कोई सम्बध नहीं हो सकता, वह भगवद्धाम कहलाता है ।

भगवान के धाम का माहात्म्य भगवान से कम नहीं होता है ।

प्रभु श्रीराम का धाम अयोध्या

अयोध्या की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि ‘जो देवताओं, राक्षसों व शत्रुओं से जीता न जा सके उसे अयोध्या कहते हैं ।’

वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम ने कहा है—

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।

अर्थात्—‘हे लक्ष्मण ! यद्यपि यह लंकापुरी स्वर्णमयी है पर मुझे अच्छी नहीं लगती क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं ।’

वनवास से लौटते समय स्वयं श्रीराम अयोध्या की महिमा बखानते हुए हनुमान व लक्ष्मणजी से कहते हैं—

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना ।
बेद पुरान बिदित जगु जाना ।।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ ।
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ।।
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि ।
उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ।।
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा।
मम समीप नर पावहिं बासा ।।
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी ।
मम धामदा पुरी सुख रासी ।। (राचमा ७।४।३-७)

विराट् पुरुष (भगवान विष्णु) के शरीर में ही उनके समस्त धाम—काशी, कांची, मथुरा, वृन्दावन, द्वारका, उज्जैन, अयोध्या और गया स्थित हैं । विराट् पुरुष के चरणों में उज्जैन है, मध्य भाग में कांचीपुरी है । नाभि में द्वारकाधाम है, हृदय में हरिद्वार है, ग्रीवामूल में मथुरा है, नासिका में काशीपुरी और मस्तक में अयोध्यापुरी है जो ‘अवध धाम’ कहलाता है । 

श्रीराम ने अयोध्या की महिमा बताने के लिए दिखाई लक्ष्मणजी को लीला

एक बार लक्ष्मणजी तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए श्रीरामजी से प्रार्थना करने लगे । श्रीराम ने मुसकराते हुए कहा—‘भैया ! यदि आपकी तीर्थ यात्रा जाने की इच्छा है तो जाओ परन्तु अयोध्या की व्यवस्था करके जाइए ।’ 

लक्ष्मणजी ने पूछा—‘आप मुस्करा क्यों रहे हैं ?’ 

श्रीरामजी ने कहा—‘लक्ष्मण ! समय आने पर तुम स्वयं ही समझ जाओगे ।’

श्रीराम की आज्ञा प्राप्त करके लक्ष्मणजी तीर्थ यात्रा जाने की तैयारी करने लगे । उनके साथ मन्त्री, मित्र, सेवक व अयोध्या के निवासी भी जाने की तैयारी में लग गए । गुरु वशिष्ठजी ने यात्रा का मुहुर्त श्रावण के शुक्ल पक्ष की पंचमी का निकाला । अयोध्या की व्यवस्था व यात्रा की तैयारी करते-करते लक्ष्मणजी को रात्रि के दो बज गए । 

लक्ष्मणजी ने सोचा—‘आज प्रात: पांच बजे से यात्रा करनी है, अब क्या विश्राम करुंगा । अब ब्राह्ममुहुर्त होने वाला है । अत: पहले जाकर सरयूजी में स्नान कर लूं ।’

यह सोचकर वे सरयू के किनारे आए। वहां बहुत प्रकाश हो रहा था । घाट पर हजारों राजा-महाराजा स्नान कर रहे थे । लक्ष्मणजी के सामने ही वे स्नान करके आकाशमार्ग से चले गए । लक्ष्मणजी सोचने लगे—आज कोई विशेष पर्व या उत्सव नहीं है फिर ब्राह्मवेला में यहां इतनी भीड़ क्यों है ? ऐसा सोचते हुए वे महिलाओं के घाट के पास गए तो वहां भी हजारों माताएं स्नान कर रही थीं । यह सब देखकर लक्ष्मणजी महल में लौट आए ।

श्रीरामजी ने पूछा—‘लक्ष्मण ! आज तुम्हारा तीर्थ यात्रा पर जाने का मुहुर्त था, परन्तु तुमने तो अभी तक स्नान भी नहीं किया है ?’

लक्ष्मणजी ने घाट पर जो कुछ आश्चर्यजनक देखा, उसका सारा हाल श्रीराम को सुना दिया । श्रीराम ने कहा—‘आपने  उन लोगों से पूछा नहीं कि वे कौन है और कहां से पधारे हैं ?’ 

लक्ष्मणजी ने कहा—‘यह तो बहुत बड़ी भूल हो गयी । कल मैं फिर सरयू-स्नान के लिए जाऊंगा और सबसे उनका परिचय पूछूंगा ।’

दूसरे दिन लक्ष्मणजी फिर ब्राह्मवेला में सरयू के घाट पर गए । वहां कल की तरह हजारों लोग प्रसन्नतापूर्वक स्नान कर रहे थे । लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर सबसे उनका परिचय पूछा ।

वहां उपस्थित राजाओं ने कहा—‘हम लोग काशी, गया, जगन्नाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वर, द्वारकापुरी आदि समस्त तीर्थ देवताओं का रूप धारण करके यहां नित्य अयोध्याजी का दर्शन करने व सरयू का स्नान करने आते हैं ।’

इसके बाद लक्ष्मणजी ने सभी माताओं को प्रणाम करके उनसे उनका परिचय पूछा । माताओं ने कहा—‘हम गंगा, यमुना, सरस्वती, ताप्ती, तुंगभद्रा, गण्डक, कोसी, कृष्णा, नर्मदा आदि भारत की हजारों पवित्र नदियां देवियों के रूप में नित्य श्रीराम की पुरी का दर्शन करने और सरयूजी में स्नान करने आते हैं ।’

उसी समय आकाशमार्ग से एक विकराल, काला पुरुष आया और सरयू में जा गिरा । स्नान करके जब वह बाहर निकला तो गौरवर्ण, हाथ में शंख, चक्र, गदा आदि लिए हुए था । 

लक्ष्मणजी ने उनसे पूछा—‘आप कौन हैं ? अभी इतने काले थे और सरयू में गोता लगाते ही गौरवर्ण के हो गये ।’

उन्होंने कहा—‘मैं तीर्थराज प्रयाग हूँ । नित्य हजारों लोग स्नान करके मुझमें अपने पाप छोड़ जाते हैं, पाप का रंग काला होता है इसलिए मैं काला हो जाता हूँ । सरयू में स्नान करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं इसलिए मैं गौरवर्ण का हो गया हूँ ।’

महल में आकर इस आश्चर्यमयी घटना को लक्ष्मणजी ने श्रीराम को बताया । श्रीराम ने कहा—‘लक्ष्मण ! समस्त तीर्थ अयोध्या के दर्शन व सरयूजी में स्नान के लिए आते हैं और आप अयोध्या छोड़कर अन्य तीर्थों में जा रहे थे । आपने मुझसे मुसकराने का कारण पूछा था तब मैंने कहा था कि उचित समय आने पर आप स्वयं जान जाएंगे । अब आप स्वयं निर्णय कर लो कि तीर्थ यात्रा पर जाना है या नहीं ।’

लक्ष्मणजी श्रीराम के चरणों में गिर कर बोले—‘अब यह दास कहीं किसी तीर्थ में नहीं जाएगा ।’स्कन्दपुराण के द्वितीय वैष्णव खण्ड में अयोध्या का माहात्म्य वर्णित करते हुए कहा गया है—पुष्प नक्षत्र युक्त रामनवमी के दिन व्रत धारण करके भगवान श्रीराम के जन्मस्थान का दर्शन करने से प्रतिदिन सहस्त्रों कपिला गायों के दान का फल मिलता है । माता-पिता और गुरु-भक्ति का जो फल है, वह जन्मस्थान के दर्शन करने मात्र से मिल जाता है । अयोध्या स्थित तीर्थों में स्नान-दान करने से मनुष्य जन्म-बंधन से मुक्त हो जाता है ।

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