महाभारत के द्रोण पर्व (अध्याय २०१) का प्रसंग है—
अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद जब अश्वत्थात्मा ने क्रोधवश नारायणास्त्र का प्रयोग किया, तब चारों ओर से अग्नि की ज्वालाएं भभकने लगीं; जिससे सारी पाण्डव-सेना जलने लगी । श्रीकृष्ण ने अर्जुन सहित पाण्डवों और सात्यकि आदि इष्टजनों को बचाने के लिए अपने-अपने वाहनों से उतर कर अस्त्र-शस्त्र फेंक देने को कहा; क्योंकि नारायणास्त्र से बचने का एकमात्र उपाय शस्त्रविहीन होकर भूमि पर खड़ा हो जाना ही है । इस रहस्य को केवल श्रीकृष्ण ही जानते थे और उन्होंने इस उपाय से पाण्डवों सहित सभी प्रियजनों को नारायणास्त्र की अग्नि से जलने से बचा लिया ।
जब नारायणास्त्र बहुत-सी सेना को दग्ध करके अदृश्य हो गया, तब अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण सहित पाण्डवों को सही-सलामत देखा । वह अपने मन में सोचने लगा कि नारायणास्त्र से ये लोग कैसे बच गए ? तभी उसने व्यास जी को रणभूमि से होकर गंगाजी की ओर जाते हुए देखा ।
व्यास जी को देखकर अश्वत्थामा अपने रथ से कूद कर उनके पास पहुंचा और प्रणाम करके बोला—‘भगवन् ! कृपया करके मैरे मन के संशय को दूर कीजिए । मेरे पिता (द्रोणाचार्य) ने मुझे अस्त्र-विद्या सिखाने में कोई भेद रख लिया या कलिकाल के आ जाने से मंत्रों का सामर्थ्य नष्ट हो गया है या मेरे अंदर कोई दुर्गुण आ गया है; जिसके कारण मेरे द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग किए जाने पर भी श्रीकृष्ण और पाण्डव आदि बच गए । यह तो पांडवों की केवल एक अक्षौहिणी सेना को ही जला कर शांत हो गया ।’
व्यास जी ने अश्वत्थामा से कहा—‘तेरे पिता ने तुझे अस्त्र-विद्या देने में कोई भेद नहीं रखा । यदि कलिकाल में मंत्रों की सामर्थ्य समाप्त हो जाती तो पाण्डवों के सिवाय और सब क्यों जल गए ? तेरे अंदर भी कोई दुर्गुण आने की संभावना नहीं है । सही बात तो यह है कि तुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन के स्वरूप का ज्ञान नहीं है । इसी कारण तेरे मन में इतनी शंकाएं हो रही हैं ।’
(पाठकों की सुविधा के लिए बता दूँ कि श्रीकृष्ण और अर्जुन—एक ही आत्मा के दो रूप हैं । श्रीकृष्ण नारायण हैं और अर्जुन नर हैं । एक ही आत्मा दो रूपों में प्रकट हुए हैं ।’)
तब व्यासजी ने अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण और अर्जुन का परिचय देते हुए कहा—‘तू जिनके सम्बंध में आश्चर्य के साथ प्रश्न कर रहा है, उनकी महिमा सुन ।
एक बार ये पूर्वजों के भी पूर्वज, कमललोचन भगवान नारायण विश्व का कार्य करने के लिए धर्मपुत्र के रूप में प्रकट हुए थे । इन्होंने हिमालय पर्वत पर केवल वायु पीकर साठ हजार वर्षों तक घोर तप करते हुए जगत्पति भगवान शंकर की स्तुति की । नारायण ऋषि की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान नीलकंठ ने उन्हें कई वर देते हुए कहा—
नारायण ! मेरी कृपा से किसी प्रकार के अस्त्र, वज्र, अग्नि, वायु, गीले या सूखे पदार्थ और देव, गंधर्व और स्थावर-जंगम प्राणी तुम्हें कभी कोई चोट नहीं पहुंचा सकता । रणभूमि में तुम मुझसे भी अधिक बलवान हो जाओगे ।’
ये वही नारायणदेव अपनी माया से जगत को मोहित करते हुए विचरते हैं । इन्हीं के समान महामुनि नर को तू अर्जुन रूप में जान । इनका प्रभाव भी नारायण के समान है । ये दोनों ऋषि संसार को धर्म-मर्यादा में रखने के लिए प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं । तुम शिव-मूर्ति का पूजन करते हो और ये दोनों शिवलिंग में ‘हरार्चन’ (शिवलिंग को सर्वभूतमय जानकर उसका पूजन) करते हैं । यह बात इनके अंदर विशेष है ।’
‘जयद्रथ को यदि सूर्यास्त के पहले न मार सकूं तो मैं चिता-प्रवेश’ करुंगा’—ऐसी प्रतिज्ञा जब अर्जुन ने की, तब सारी रात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शिवलिंग-पूजन में लगा कर उसे पाशुपतास्त्र पुन: प्राप्त कराया ।
‘मेरे रथ के आगे यह त्रिशूलधर कौन हैं ?’ युद्धभूमि में जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार पूछा, तब श्रीकृष्ण ने कहा—‘जिसकी तू आराधना करता है, वही तेरी रक्षा के लिए यहां उपस्थित हैं और उन्हीं की कृपा से सब जगह तेरी विजय होती है ।’
इस प्रकार यद्यपि अश्वत्थामा भी शिव-भक्त था; तथापि शिवलिंग की अर्चना करने के कारण श्रीकृष्ण और अर्जुन उसके द्वारा अजेय हो गए ।