ब्रज की सोभा फाग ते, ब्रज ते सोभित फाग
उडत गुलाल लाल भये बदरा, मारत भर भर झोरी।
आज है रही रे होरी, हम्बे आज है रही रे होरी।
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप, और नगाड़े की जोड़ी।
चन्द्रसखी भज बालकृष्ण प्रभु, चिरजीवो यह जोड़ी।।
व्रज में फागुन का उल्लास
भगवान श्रीकृष्ण के सहस्त्रों नामों में कुछ नाम हैं–’नित्योत्सवो नित्यसौख्यो नित्यश्रीर्नित्यमंगल:।’ अर्थात् वे नित्य उत्सवमय, सदासुखसौख्यमय एवं सदा शोभामय और मंगलमय हैं। इसी कारण व्रजमण्डल में भी नित्य उत्सव होते रहते है। भगवान की भक्ति दो प्रकार की बतायी गयी है–वैधी (विधान के अनुसार) और रागानुगा (प्रेममय)। भगवान श्रीकृष्ण रस के सागर हैं। अत: रसमय ब्रह्म श्रीकृष्ण को रागानुगा भक्ति अधिक प्रिय है। इसीलिए व्रज में व्रत-त्यौहार विधि-विधानमय कम, रसमय अधिक होते हैं। प्रेम की प्रधानता के कारण आनन्द, उल्लास एवं मस्ती व्रज के उत्सव-त्योहारों की विशेषता है।
फाल्गुन लाग्यौ सखि जब तें,
तब तें ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचै नाहिं एक,
बिसेख मरै सब प्रेम अच्यौ है।।
व्रज की होली तीनों लोकों से न्यारी है। व्रज में भी बरसाना-नंदगांव की लठामार होली और दाऊजी के हुरंगा का विशेष आनंद है। समूचे व्रज में वसन्तपंचमी से ही होली के चालीस दिनों का उत्सव शुरु हो जाता है जब व्रज का कण-कण होली के अनोखे प्रेमरंग में सराबोर होने को उतावला हो जाता है। वसन्त पंचमी को दांडा रोपकर होली प्रारम्भ हो जाती है। और मन्दिरों में भगवान की सेवा में गुलाल का प्रयोग होने लगता है। यहां के प्रत्येक गांव में ढप-ढोल की ध्वनि व बालक-बालिकाओं की ठिठोरी देखते ही बनती है। एक तो व्रजवासी स्वभाव से ही मस्त होते हैं, उस पर फाल्गुन की मादकता उनकी मस्ती को और भी बढ़ा देती है। व्रज के गाँव-गाँव और नगर-नगर में फाल्गुन लगते ही फाग और होली के रसियों का गायन प्रारम्भ हो जाता है। श्यामा-श्याम के अनुराग के पर्व रंगीली होली का आनंद उठाने को समूचा जग लालायित रहता है। इनमें बरसाना की लठामार होली, दाऊजी का रंग-रंगीला हुरंगा और होली की प्राचीनता का रूप-स्वरूप संजोये जाव-बठैन का हुरंगा विशेष हैं। व्रज में होली फागुन के महीने में होती है और हुरंगे चैत्र के महीने में होते हैं।
फाग खेलन बरसाने आये हैं नटवर नन्दकिसोर (बरसाने की लठामार होली)
बरसाने में सावरे की होरी रे।
लाल गुलाल लाल भये बदरा, मारत भरि भरि झोरी रे।
कै मन तो याने रंग घुरायो, कै मन केसरि घोरी रे।
नौ मन तो याने रंग घुरायो, दस मन केसरि घोरी रे।।
द्वापरयुग में बरसाना-नंदगांव में रसिकशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वालबालों के संग रसिया बनकर फाग की मस्ती में सराबोर हो श्रीराधा व व्रजगोपियों के साथ पावन होली खेली थी। लेकिन बाद में यह होली लुप्त हो गई। करीब 550 वर्ष पूर्व दक्षिण भारत से आये श्रीलनारायण भट्ट ने व्रजमण्डल के प्राकट्य के साथ बरसाना-नंदगांव की अद्भुत अलौकिक होली का भी प्राकट्य किया। द्वापर की होली के प्रतीक के रूप में आज भी यहां होली खेली जाती है, जिसमें नंदगांव के हुरियारे (कृष्ण व उनके साथी ग्वाल के रूप में) बरसाने की हुरियारिनों (राधा एवं उनकी सखियों की प्रतीक महिलाओं) के साथ होली खेलते हैं। बरसाना-नंदगांव के ब्राह्मण समाज के विवाहित युवक-युवती इस होली में हिस्सा लेते हैं। कहा जाता है कि जब मुगलों के शासन में हिन्दू स्त्रियों की अस्मिता सुरक्षित नहीं थी तब श्रीलनारायण भट्ट ने होली के माध्यम से स्त्रियों को लाठी चलाना सिखाया। एक अन्य मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण ने व्रज में गोपियों को राक्षसों से लड़ने के लिए लाठी चलाना सिखाया था।
परम्परानुसार फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को राधारानी की सखी एक हांडी भरकर गुलाल, प्रसाद, पान का बीड़ा व इत्र-फुलेल लेकर होली खेलने का निमन्त्रण देने बरसाने से नंदगांव जाती है–होली खेले तो आजइयो बरसाने रसिया। नंदभवन में इस सखी का सत्कार किया जाता है। सखी राधाजी का संदेश सुनाकर लौट आती है। रात्रि में नंदभवन में आमन्त्रण का गुलाल प्रत्येक नंदगांववासी को लगाया जाता है और समस्त ग्वालबाल आनन्दित होकर गाते हैं–
कान्हा तोइये बुलाय गयी नथवारी।
वा नथवारी को गाम न जानू, बरसानो गांव बताय गई प्यारी।।
श्रीकृष्ण अपने रिश्ते के काका को दूत बनाकर बरसाना भेजते हैं जो राधाजी और उनकी सखियों को जाकर बताता है कि कान्हा नवमी के दिन अपने सखाओं के साथ होली खेलने आने वाले हैं। राधाजी के महल में श्रीकृष्ण के दूत की लड्डुओं से इतनी खातिर की जाती है कि वह लड्डू खाने के साथ ही लड्डू लुटाने लगता है और शुरु हो जाती है लड्डू होली। समाज गायन के साथ पंडा (दूत) का नृत्य और लड्डुओं की बरसात और लड्डू लपकने की होड़ इस होली को अलौकिक बना देती है।
नंदगांव को पाड़ौ ब्रज बरसाने आयो,
होरी कौ पकवान भर भर झोरी खायौ।
इसके लिए अगले दिन फाल्गुन शुक्ल नवमी तिथि को नंदगांव के गोस्वामी समाज के हुरियारे नन्दीश्वर महादेव व नंदबाबा और यशोदामाता की आज्ञा लेकर अपनी सजी-धजी पोशाक, रंगबिरंगी बगलबंदी-धोती पहने, दुपट्टा कंधे पर डाले तथा सिर पर फेंटा बांधे, इत्र का फाहा लगाकर, माथे पर वल्लभकुलीय तिलक लगाकर, कमर के फेंटा के भीतर गुलाल की पोटली दबाकर और हाथ में ढालों के साथ ठाकुरजी के प्रतीकस्वरूप पीताम्बरी ध्वजा (जिसे वे श्रीजी के महल के शिखर पर लगाते हैं) को लेकर नाचते रसिया गाते बरसाना आते हैं–
बरसाने चलो खेलें होरी।
पर्वत पै वृषभान महल है, जहाँ बसे राधा गोरी।।
प्रियाकुण्ड पर बरसानावासियों के स्वागत-सत्कार के बाद हुरियारे ‘खबर करियो रे, खबर करियो रे रसिया आयौ’ गाते हुए श्रीजी के मन्दिर पहुँचते हैं जहां श्रीजी (लाडिली श्रीराधाजी) अपनी ससुराल के इतने सारे लोग देखकर परदाकर लेती हैं। तब नंदगांव के हुरियारे याचना करते हैं–’दर्शन दे निकसि अटा में ते, लट सरकाय दरस दे प्यारी, जैसे निकस्यो चंद घटा में ते।’
(श्रीकृष्णजी का विवाह श्रीराधाजी के साथ स्वयं ब्रह्माजी ने संकेतवन में कराया था, अत: नंदगांव राधारानी की ससुराल है।)
इसके बाद श्रीजी मन्दिर के प्रांगण में गायन, वादन एवं नृत्य की त्रिवेणी के साथ टेसू के फूलों से बने रंग की दिव्य सुगन्ध, रंग की बौछार, रंग-बिरंगे गुलाल के बादलों की छटा निराली होती है। यह सब लठामार होली में तब परिवर्तित हो जाता है जब बरसाने की रंगीली गली में नंदगांव के गोप (कृष्णसखा) जिन्हें ‘हुरियारे’ कहते हैं, श्रीराधाजी की सखियों (गोस्वामी समाज की महिलाएं जो सोलह श्रृंगार किये, गोटा लगे रंग-बिरंगे लहंगा पहने, घूँघट काढ़े, हाथ में प्रेमपगे लट्ठ लिए) से होली खेलती हैं। हुरियारे जब इनसे परिहास करते हैं तो हुरियारिनें लाठियों से उनका स्वागत करती हैं और उनको मजा चखाने के लिए बेताब रहती हैं।। नंदगांव के हुरियारे मुढ़ासा (सिर पर बड़ी सी पगड़ी) बांधे मजबूत ढालों से अपने सिर और शरीर की रक्षा करते हैं और घुटनों के बल फुदक-फुदककर बचाव करते हैं और हुरियारिनों से कहते हैं–’अई भाभी लग जावेंगी, नैक प्रेम ते दई दै।’ यह कशमकश दो-तीन घंटे चलती है। इस अलौकिक लीला के लिए हुरियारिनें सूरज से गुहार लगाती हैं–’सूरज छिप मत जइयो आज, श्याम संग होरी खेलूंगी।’ इस लठामार होली में हुरियारों व हुरियारिनों के बीच हंसी-ठिठोली व छींटाकशी होती है पर मर्यादा में रहकर। इस हुरदंग के मध्य रसिया भी गाये जाते हैं। यथा–
फाग खेलन बरसाने आये हैं नटवर नंदकिसोर।
घेर लयी सब गली रंगीली छाय रही छवि घटा रंगीली।
ढप ढोल मृदंग बजाये हैं, बंशी की घनघोर।।
बरसाने की हुरियारिनों (स्रियों) को एक महीने पहले से विशेष खाना (घी, दूध, मेवा आदि) दिया जाता है जिससे वह होली में अच्छी तरह से लाठी से हुरियारों पर प्रहार कर सकें। इस लठामार खेल में यदि किसी को चोट लग जाये और खून निकल आये तो केवल व्रजरज ही लगा देने से वह ठीक हो जाता है। लाड़ली लाल (राधाकृष्ण) की जयकार के साथ यह होली सम्पन्न होती है। होली के समय रंग-गुलाल डालने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो होली का यह मौसम सदा के लिए स्थिर हो गया हो। इसीलिए–ऐसो रंग बरसे बरसाने में, जो रंग तीन लोक में नायँ। देवता भी इस आनंद को प्राप्त करने के लिए तरसते हैं।
तारी दे गारी गावहीं।
एकते एक बनी व्रजवनिता नाना रंग बरसावहीं।।बाजत ताल मृदंग झांझ डफ मोहन वेणु बजावहीं।
चोवाचंदन अगर कुंकुमा सुरंग गुलाल उडावही।।इत मोहन उत सखी समूह मिस खेलें हँसें हँसावहीं।
सूरदास प्रभु तुम बहुनायक फगुवा दे घर आवहीं।।
बरसाना से होली खेलकर जब ये युवक नंदगांव लौटते हैं तो बरसाना की गोपियां उनसे होली का फगुआ (नेग) मांगती हैं। वे उन्हें नंदगाँव में होली खेलने का आमन्त्रण देते हैं। जिसके बाद बरसाना की गोपियां फगुआ मांगने नंदगांव जाती हैं तो युवक उन्हें अपनी भाभियों से छड़ी से पिटवाते हैं। इसका भाव यह है कि बरसाना में लाठियों से पिटाई पर नंदगांव के सखा कृष्ण को उलाहना देते हैं कि तुमने ही बरसाना में बहुत पिटवाया। इसका बदला लेने के लिए कृष्ण बरसाना की गोपियों को नंदगांव बुलाते हैं। बरसाना की होली के अगले दिन सायंकाल ऐसी ही लठामार होली नंदगांव में नंदचौक पर होती है। यहाँ नंदगांव की स्रियाँ होती हैं और बरसाने के पुरुष (पुरुष लोग सखी वेष में जाते हैं)। अगले दिन एकादशी से व्रज-वृन्दावन के सारे मन्दिरों और नगर-गाँवों में रंगीली होली आरम्भ हो जाती है। इस रंगीली होली में बाहर से डाला गया रंग-गुलाल तो थोड़े समय के पश्चात् छूट जाता है, किन्तु मन के भीतर पड़ चुकने वाला कृष्णप्रेम का रंग स्थायी हो जाता है।
दाऊजी का रंग-रंगीला हुरंगा
मथुरा के पास श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलरामजी की नगरी है बलदेव। बलदेव दाऊजी के नाम से भी प्रसिद्ध है। दाऊजी अर्थात् भगवान बलराम। बलदेव में दाऊजी का विशाल मन्दिर है जिसमें भगवान बलराम की प्रतिमा के समक्ष उनकी पत्नी रेवतीजी विराजमान हैं। इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में जब औरंगजेब अन्य मन्दिरों को ध्वंस करता हुआ दाऊजी के मन्दिर की खोज में आया तो सारी रात उसकी सेना घूमती रही किन्तु उसे यह मन्दिर ही नहीं मिला। अंत में सेना निराश होकर लौट गयी।
होली के दो दिन बाद चैत्र कृष्ण द्वितीया को जबकि सारे देश में होली-उत्सवों की समाप्ति हो जाती है, दाऊजी का हुरंगा बलदेवग्राम में होता है। हुरंगे का अर्थ है होली का विशाल रूप। इसीलिए कहा जाता है–होरी नांइ आज हुरंगा है।
बलदेव में दाऊजी के हुरंगे से पूर्व ही वातावरण होली के रस में डूब जाता है। धुलैंडी के दिन अपराह्न में महारास होता है जिसे दहनावर कहते हैं। इस आयोजन में नृत्य का समा देखते ही बनता है। रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से सजी व्रजांगनाएं दहनावर के वैभव को और बढ़ा देती हैं।
दहनावर के अगले दिन प्रात:काल दाऊजी के मन्दिर में एक ओर बने हौजों में टेसू के फूलों का रंग भर दिया जाता है। ढप, झांझ, मृदंग, और मंजीरे के साथ मन्दिर के जगमोहन में अष्टछाप कवियों के पदों का गायन होता है। दोपहर लगभग बारह बजे मंदिर में बलरामजी और उनकी पत्नी रेवतीजी के समक्ष हुरंगा शुरु होता है। दाऊजी के इस हुरंगे में श्रीराधाजी, श्रीकृष्ण और बलरामजी होते हैं।
आयौ फागुन मास, कहैं सब होरी होरा,
एक ओर वृषभानुनन्दिनी, एक ओर हरि हलधर जोरा।
मंदिर की छत से बोरियों में भरकर अबीर-गुलाल स्त्री-पुरुषों पर उड़ाया जाता है। दाऊजी का हुरंगा वहां के पण्डों के परिवारों के बीच होता है जिसमें पुरुष बाल्टियों से हौजों में भरा रंग स्रियों पर फेंकते हैं और स्रियां उनके कपड़े फाड़-फाड़कर कोड़े बनाती हैं। रंग में भीगे इन्हीं कोड़ों से वह हुरियारों के नंगे बदन पर कोड़े मार-मारकर उन्हें भगाती हैं। पुरुष स्वेच्छा से इस पिटाई को झेलते हैं क्योंकि उनमें दुर्भावना नहीं, प्रेम का भाव होता है। हुरंगे के हर रंग में, हर रूप में नेह का, स्नेह का रंग घुला रहता है।
नेह रंग बोरि देवतान कूं लुभैन वारौ,
ब्रज में बिसाल बलदेव कौ हुरंगा है।
हुरंगे में गोप-गोपिकाओं के प्रतीक स्री-पुरुष गीतों के द्वारा एक-दूसरे से परिहास करते हैं और नृत्य भी चलता रहता है। छज्जों से बिखरता अबीर-गुलाल और टेसू के रंग से भरी बड़ी-बड़ी पिचकारियों की धार से होली का यह वातावरण और अधिक रस-रंगमय हो जाता है। कोड़ों द्वारा पुरुषों की पिटाई के समय दर्शकों का उल्लास इसमें और वृद्धि कर देता है। हुरियार पत्तों और पुष्पों से बना झंडा लेकर होली के रसिया गाते हुए मन्दिर की परिक्रमा लगाते हैं। यह हुरंगा मन्दिर के पट बन्द होने के साथ समाप्त होता है। इसी समय स्त्री और पुरुष दोनों ही अपनी-अपनी विजय का यशोगान करते है। पुरुष गाते हैं–हारी री गोरी घर चाली रे, कोई जीत चले हैं ब्रज ग्वाल। तो स्रियां गाती हैं–हारे रे रसिया घर चाले रे, कोई जीत चली है ब्रज नार।
जाव-बठैन का हुरंगा
मथुरा से 44 किमी दूर कोसी नंदगाव मार्ग पर एक छोटा सा गांव है ‘जाव’ और उसी के पास स्थित है ‘बठैन। पुराणों में जाव का जावक बट नाम से उल्लेख हुआ है। ऐसा माना जाता है कि यहां श्रीकृष्ण ने अपनी प्रियतमा राधा को रिझाने के लिए उनके पैरों में महावर (जावक) रचाया था। यहां एक वटवृक्ष था जिसकी शाखाओं का झूला बनाकर श्रीकृष्ण ने राधा को झुलाया था। यह भी कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की बांसुरी सुनकर व्रजगोपिकाएं रास से पूर्व यहीं एकत्रित हुई थीं। बठैन को बैठना क्रिया से जोड़ते हुए यह माना जाता है कि यहां बैठकर बलरामजी ने कृष्ण की प्रतीक्षा की थी।
होली के बाद चैत्र कृष्ण द्वितीया को जाव का हुरंगा होता है और उसके अगले दिन तृतीया को बठैन का हुरंगा मनता है।
इस हुरंगे की पौराणिक पृष्ठभूमि है। फाल्गुन के उन्मुक्त उल्लास में कृष्ण के बड़े भाई ‘अलबेले छैल छिनकियां’ बलरामजी राधाजी से कहते हैं–भाभी ! होरी खेलेंगे। जेठ होकर भाभी का सम्बोधन और देवर के समान होली खेलने की आकांक्षा ! राधाजी ने श्रीकृष्ण को बलरामजी की इच्छा बताई। तो श्रीकृष्ण ने उन्हें सन्तुष्ट करते हुए कहा–त्रेता युग में बलराम लक्ष्मण थे और उसी नाते उन्होंने भाभी कह दिया होगा। राधाजी ने बलरामजी से होली खेली किन्तु अनूठे ढंग से। राधा और बलराम की उस होली का प्रतीक ही है–जाव-बठैन का हुरंगा। जाव का सम्बन्ध श्रीराधा से है तो बठैन का सम्बन्ध बलरामजी से है। बरसाना-नंदगांव की होली में श्रीराधा-कृष्ण का नाता है किन्तु यहाँ श्रीराधा और बलरामजी की होली है।
जिस प्रकार बरसाना में नंदगांव के हुरियार होली खेलने आते हैं, उसी प्रकार जाव में बठैन के हुरियार होली खेलने आते हैं और दूसरे दिन बठैन में हुरिहार होते हैं जाव के तथा होली खेलने वाली स्रियां होती हैं बठैन की। जब जाव गाँव में गाते बजाते हुरियारों की मंडली निकलती है तो जाव गाँव की महिलाएं घर की छत पर बैठ जाती हैं और वहां से हाथ में दर्पण लेकर उसका प्रतिबिम्ब देखती हैं तब 5000 वर्ष पूर्व की वह कथा साकार हो उठती है जब श्रीराधा ने बलरामजी के साथ होली खेली किन्तु सामने न आकर एक दूरी और मर्यादा के साथ। राधा की प्रतीक जाव गांव की गोपियां आज भी उस परम्परा का निर्वाह कर रही हैं।
जाव गाँव के एक मैदान में पहुँचकर बठैन के हुरिहारे एक गोल बाड़ा-सा बना लेते हैं जिसके बीच में हाथ में झंडी लिए एक हुरियार बलराम के रूप में होता है। बाड़े के बाहर बलरामजी के सखा बबूल की झाड़ियां लेकर परिक्रमा लगाते रहते हैं।इसका भाव यह है कि लता-पता की ओट में सखागण बलरामजी को छुपाये हुये हैं। जाव गांव की स्रियां बठैन के हुरिहारों पर लाठियां बरसाती हैं जिन्हें वे लकड़ी के विशेष प्रकार के डण्डे (गरद्या) से रोकते हैं। बलरामजी के हुरिहारों का यह प्रयास होता है कि वे बलरामजी को गोपिकाओं की पकड़ में न आने दें क्योंकि यदि गोपिकाओं ने बलरामजी को पकड़ लिया तो वे जीत जायेंगी और बलरामजी से फगुआ मांगेंगी। इस हुरंगे में भी यदि किसी को लाठी की चोट लग जाय तो बुरा नहीं मानते। साथ ही यह विश्वास रहता है कि इस प्रकार की चोट से न कोई अंग टूटता है और न पकता है। यदि खून भी निकल आये तो वहाँ व्रजरज लगा देते हैं।
इस हुरंगे में आस-पास के गांवों व कस्बों से हजारों लोग आते हैं लेकिन अन्य स्थानों के मेलों की तरह यहां कोई बाजार नहीं लगता। यहां एक अनूठी ही परम्परा है कि हुरंगे में आने वाले दर्शकों के लिए घर-घर में भोजन की व्यवस्था रहती है। आज के कलियुग के वातावरण में व बढ़ती मंहगाई के कारण जब लोगों के मनों में दूरियां बढ़ती जा रही हैं, यह परम्परा सतयुग के दर्शन कराती है।
जाव के इस हुरंगे के अगले दिन चैत्र कृष्ण तृतीया को बठैन का हुरंगा होता है। जाव में राधाजी का मन्दिर है और बठैन में बलदेवजी का। हुरंगे के दिन जाव के हुरियार यहां आकर दर्शन करते हैं और फिर संगीत समाज जुड़ता है। तीन बजे गांव में ‘चौपई’ (गायक मंडलियों की शोभायात्रा) निकलती है और शाम को मैदान में जाव की भांति हुरंगा होता है। जहां एक बड़ा-सा गोला बना दिया जाता है जिसमें एक ओर बठैन गांव की हुरियारिनें हाथ में लम्बी लाठियां लिए खड़ी हो जाती हैं और दूसरी ओर बबूल की झाड़ियां लिए जाव गांव के हुरियार खड़े हो जाते हैं। स्रियां पुरुषों की कटीली झाड़ियों को लाठियों से पीटती हैं। हुरंगे की समाप्ति पर अनेक व्यक्ति हुरंगा-स्थल की मिट्टी अपने माथे पर लगाते हैं। उनका यह विश्वास है कि कृष्ण तथा गोपियों के चरणों से यह रज पवित्र हो गयी है।
होरी को रस रसकहि जानै, रस कूँ कूर कहा पहिचाने।
जो रस ब्रज के माँहि, सो रस तीन लोक है नाहि।
देख देख या ब्रज की होरीय, ब्रह्मादिक मन ललचाय।।
‘खुमान’ कवि के शब्दों में–’देख्यौ री ब्रज देश निगोड़ा। जगत होरी ब्रज होरा।’
व्रज में होली के विभिन्न उत्सव
होली की रात्रि फालैन नामक गाँव में प्रह्लाद मेले में पण्डा जलती होली के बीच से निकलता है। उसके साथ मुखराई नामक ग्राम में चरकुला नृत्य होता है। चरकुला पहिया-जैसा होता है, जो बड़ा भारी होता है। कई चरकुलों को ऊपर-नीचे लगाकर एक झाड़-सा बना लेते हैं। उनमें सैंकड़ों दीपक जड़े होते हैं, जिन्हें जलाकर नगाड़ों की ताल और रसियों की धुन पर व्रज की युवतियाँ नृत्य करती हैं। मुखराई श्रीराधारानी की ननिहाल है। ऐसा कहा जाता है कि श्रीराधा के जन्म का समाचार सुनकर उनकी नानी ने आनन्दविभोर होकर चरकुला नृत्य किया था। अब यह होली पर उमरी, नगरी, रामपुर, मुखराई, अहमलकलाँ तथा सौंख गांवों में किया जाता है।
होली क्या है? क्यों जलायी जाती है? और इसमें पूजन किसका होता है?
होली का उत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, दांडा (ढुंढा) और प्रहलाद तो है हीं, इसके अलावा इस दिन ‘नवान्नेष्टि’ यज्ञ भी सम्पन्न होता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डांडा रोप दिया जाता है। इसके लिए नगर से बाहर वन में जाकर शाखासहित वृक्ष लाते हैं और उसको गन्धादि से पूजकर पश्चिम दिशा में खड़ा कर देते हैं। इसी को ‘होली’, ‘होलीदंड’, ‘होली का दांडा’ या ‘डांडा’ एवं ‘प्रहलाद’ कहते हैं। इस अवसर पर लकड़ियां तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिकापूजन किया जाता है, फिर उसमें आग लगायी जाती है। इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। खेत से नवीन अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा है। उस अन्न को ‘होला’ कहते हैं। अत: फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को उपले आदि एकत्रकर उसमें यज्ञ की तरह अग्नि का स्थापन व पूजन करके हवन के चरू के रूप में जौ, गेहूँ, चने की बालियों की आहुति देते हैं और सिकीं हुई बालियों को घर लाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस तरह होली के रूप में ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ सम्पन्न होता है।
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। होली का त्यौहार मनाने के सम्बन्ध में कई मत हैं–एक मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ। एक अन्य मान्यता के अनुसार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्यप्रति अग्नि-स्नान करती और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहिन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने सोचा ऐसा करने से प्रह्लाद जल जायेगा और होलिका बच जायेगी। किन्तु ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद जीवित बच गये और होलिका जल गयी। तभी से इस त्यौहार को मनाने की प्रथा चल पड़ी।
भविष्यपुराण में एक कथा है कि एक बार नारदजी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा–राजन् ! फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिए, जिसे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। बच्चे गाँव के बाहर से लकड़ी-कंडे लाकर ढेर लगायें। फिर होलिका का विधिविधान से पूजन करे और होलिका-दहन करें। ऐसा करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं।
व्रज में होली में गाये जाने वाला एक रसिया
होरी खेलन आये श्याम आज याहि रंग में बोरो री।
रंग में बोरो री आज याहि रंग में बोरो री।
कोरे कोरे कलश मंगाओ केसर घोरो री।
याके मुख ते केसर मलो करो कारे ते गोरो री।
भाजि न जाय कितऊ कूँ गिरिधर, सब मिल घेरो री।
हा हा खाय परै जब पइयाँ, तब याहि छोड़ो री। हरे बांस की बाँसुरिया याहे तोर मरोरो री।
याहि करो होरी कौ भडुआ घर घर फेरो री।
पिटवे को जब बखत परयो बन बैठयो भोरो री।
लोक लाज कुल की मर्यादा फागुन में तोरी री।
चोवा चंदन अतर अरगजा सिर ते ढोरो री।
‘पुरुषोत्तम’ प्रभु या होरी में कोऊ बचे न कोरो री।
होरी खेलन आये श्याम आज याहि रंग में बोरो री।
Jai ho lella padhte padhte besufh ho gaye jaishri radhe
होली खेले मोहना सुदंर गिरधारी,नख सिर सुलभ सिंगार सजे सुखकारी
बहुत ही सुन्दर और अदभूत! समस्त बृज मण्डल का अलौकिक होली/ फाग दृश्य / विवरण – क्या राधा क्या कृष्ण!! सब गोप और गोपियाँ मानो भूमंडल पर साक्षात स्वर्ग से देवताओ देवियों और लक्ष्मीरूपी राधा और श्री हरि विष्णु/ कृष्ण का पदार्पण और रास/ फीग/ होली/ रंग/गुलाल की उड़ती मनमोहक रंगों की बौछारे!! प्यार अपनापन उल्लास और उमंग में रंग गया मन हर किसी का!!! होली आई रे कन्हाई होली आई रे……!!! बेमिसाल वर्णन जी!!!!! बधाईयाँ!! क्या करें छंद और चौपाईयाँ!!!!!””
धन्यवाद ! आपको ब्लॉग पसन्द आया।
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Bhut hi badhya aur informative hai🙏