हो चाहे प्रतिकूल परिस्थिति, हो चाहे सब विधि अनुकूल ।
दोनों ही प्रभु-प्रेरित हैं, दोनों में प्रभु-अनुकम्पा मूल ।।
उनसे लाभ उठाओ, चाहो सबका सदा परम कल्याण ।
निज सुख-तन-मन-धन दे, चाहो पर का सदा विपद से त्राण ।। (भाई हनुमानप्रसाद जी पोद्दार)
हर हाल में खुश रहने का मंत्र
भगवान की इस संसार-लीला में कुछ भी अनहोनी बात नहीं होती है । जो कुछ होता है, वही होता है जो होना है और वह सब भगवान की शक्ति ही करती है । और जो होता है मनुष्य के लिए वही मंगलकारी है ।
एक बार महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत एकनाथ जी महाराज दर्शन करने के लिए भगवान विट्ठल के मंदिर गए । एकनाथ जी की पत्नी बड़ी सुंदर व सुशील थी; इसलिए वे भगवान का बड़ा उपकार मानते और कहते—‘भगवान ने मुझे पत्नी का संग नहीं, सत्संग दिया है ।’
उसी मंदिर में संत तुकाराम भी दर्शन करने आए थे । तुकाराम जी की पत्नी बड़ी कर्कशा और बदसूरत थी । लेकिन कर्कशा पत्नी मिलने पर भी तुकाराम जी भगवान को धन्यवाद देते हुए कहते—‘हे भगवान ! यदि आपने मुझे सुंदर और मृदुभाषी पत्नी दी होती तो मैं सारा दिन उसी के पीछे लगा रहता और आपको भूल जाता । अत: कर्कशा पत्नी मिलने पर मेरा तो भला ही हुआ है; इसलिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ।’
गुजरात के प्रसिद्ध संत नरसी मेहता की पत्नी का स्वर्गवास हुआ तो उन्होंने उस घटना को भगवान की कृपा माना और भगवान को धन्यवाद देते हुए कहा—
भलुं थयुं भांगी जंजाल ।
सुखे भजीशुं श्री गोपाल ।।
अर्थात् अच्छा हुआ कि कुटुम्ब का झंझट छूट गया । अब तो मैं बड़े सुख से निश्चिंत होकर श्रीगोपाल का भजन करुंगा ।’
एकनाथ जी को अनुकूल पत्नी मिली तो उन्हें उसमें आनंद है और तुकाराम जी को प्रतिकूल पत्नी मिली तो वे उसमें खुश हैं और तीसरे नरसी जी की पत्नी संसार छोड़ कर चली गई; फिर भी तीनों संत अपनी-अपनी परिस्थिति से संतुष्ट हैं और वे इसके लिए भगवान का उपकार मानते हैं ।
भगवान ने दी जो परिस्थिति, वही साधन रूप है ।
विश्वास करके उसे बरतो, फल महान अनूप है ।।
विश्वासहीन मनुष्य को सर्वत्र अंधा कूप है ।
विश्वास से मिलते हरी, विश्वास प्रभु का रूप है ।। (भाई हनुमानप्रसाद जी पोद्दार)
जब हमारे मन का होता है, तब हमें यह शंका रहती है कि यह भगवान के मन से हुआ है या नहीं । परंतु जब हमारे मन का नहीं होता है, तब तो निश्चित रूप से भगवान के मन का होता है । उस समय हमें यह सोचना चाहिए कि भगवान हमें इतना प्यार करते हैं कि हमारे मन की न मान कर अपने मन का करते हैं ।
सच्चा वैष्णव वही है जो हर परिस्थिति में परमात्मा की कृपा का अनुभव कर शांत और संतुष्ट रहता है । मन को शांत रखना ही सबसे बड़ा पुण्य है ।
संसार की समस्त सुख-सुविधाएं का मनुष्य के कदमों में ढेर लग जाए, तो भी मनुष्य संतुष्ट नहीं रह सकता; क्योंकि इच्छाएं अनन्त हैं । एक पूरी होती है, तुरंत दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है । संतुष्टि नहीं है तो हर समय ‘और प्राप्ति की भावना’ में पड़ कर मनुष्य असंतोष अनुभव करेगा ।
भाई हनुमानप्रसाद जी ने बहुत सुंदर बात कही है—
जैसे नट नाटक में रखता कहीं नहीं ममता-आसक्ति ।
पर वह यथायोग्य सब अभिनय करता बन वैसा ही व्यक्ति ।।
भूल न हो अभिनय में, बिगड़े नहीं न नाट्य-मंच पर खेल ।
रस का उचित उदय हो, पर मन में न कहीं हो विग्रह-मेल ।
वैसे ही ईश्वर के इस जग-नाट्य-मंच पर भली प्रकार ।
खेलो अपना खेल यथोचित, तत्प्रीत्यर्थ, स्वांग-अनुसार ।।
संसार एक रंगमंच है और इस रंगमंच पर हम सभी कठपुतलियों की तरह परमात्मा के इशारे पर नाच रहे हैं, अपना पात्र अदा कर रहे हैं । एक जाता है, दूसरा प्रकट हो जाता है; ऐसे ही अनन्तकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा । कठपुतली नचाने वाला जानता है कि इस पुतली को कब तक और किस-किस रूप में नाचना है, फिर भी मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानकर अहंकार में रहता है । मनुष्य को अपने ‘मैं पन’ और ममता और आसक्ति का परित्याग कर के जो भी परिस्थिति या साधन मिले हैं, उसी का उचित प्रयोग करना चाहिए ।
‘मनुष्य परिस्थिति का दास नहीं, वरन् परिस्थिति मनुष्य की दास होनी चाहिए ।’