bhagwan vishnu maharoop

श्रीमद्भगवद्गीता का ग्यारहवां अध्याय ‘विश्वरूप-दर्शन योग’ के नाम से जाना जाता है । परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन को विराट रूप का दर्शन करा कर यह अनुभव कराया कि समस्त ब्रह्माण्ड उनके अंदर विद्यमान है ।

मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।। (गीता ७।७)

अर्थात—हे अर्जुन ! मुझसे उत्कृष्ट अन्य कुछ नहीं है । माला के सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान यह समस्त ब्रह्माण्ड मुझमें पिरोया हुआ है ।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं—

‘मैं सभी प्राणियों की आत्मा हूँ । आदित्यों में मैं विष्णु, ज्योतियों में सूर्य, नक्षत्रों में चंद्रमा, देवताओं में इंद्र हूँ । प्राणियों में चेतना, रुद्रों में शंकर, पर्वतों में सुमेरु, सेनापतियों में स्कन्द, देवर्षियों में नारद, घोड़ों में उच्चै:श्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, दैत्यों में प्रह्लाद, पक्षियों में गरुड़, सर्पों में वासुकि, शस्त्रधारियों में राम, नदियों में गंगा, विद्याओं में अध्यात्म विद्या, तथा सृष्टि का आदि-अंत और मध्य मैं ही हूँ और अविनाशी काल भी मैं ही हूँ ।’

भगवान श्रीकृष्ण के मुख से उनकी विभूतियों को सुनकर अर्जुन को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण साक्षात् परमपिता परमेश्वर हैं और यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उनके मानव रूप में दर्शन कर रहा हूँ; किंतु अब जब साक्षात् नारायण मेरे सम्मुख हैं और उनका अनुग्रह भी मुझ पर है तो उनके परम ऐश्वर्य-पूर्ण रूप के दर्शन के बिना मुझे संतुष्टि नहीं मिल रही है । अत: अर्जुन ने श्रीकृष्ण से उनके ईश्वरीय रूप को देखने की इच्छा प्रकट की । 

भगवान ने अर्जुन से कहा—‘मेरा यह विराट रूप (विश्वरूप) तुम अपने इन प्राकृत नेत्रों से नहीं देख सकते; इसलिए तुम्हें दिव्य चक्षु (दृष्टि) प्रदान कर रहा हूँ, उनसे समस्त विभूतियों और ब्रह्माण्ड को मुझमें देखो । तुम मेरे नाना प्रकार के एवं नाना वर्ण और आकार वाले सैकड़ों तथा हजारों रूपों को मुझमें देखो । आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों, मरुद्गणों तथा बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय मेरे रूपों को देखो । मेरे शरीर में एक ही जगह स्थित समस्त चराचर जगत को और अन्य जो कुछ भी देखना चाहते हो, उसे देखो ।’

अर्जुन द्वारा भगवान के विराट रूप के दर्शन

जिस प्रकार ‘पुरुष सूक्त’ में परमात्मा के दिव्य स्वरूप के दर्शन होते हैं—

ॐ सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात् ।
स भूमिँ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।। १ ।।

अर्थ—परमात्मा अनंत सिरों, अनंत चक्षुओं (नेत्रों) और अनंत चरणों वाले हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि को सब ओर से व्याप्त करके दस अंगुल (अनंत योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उसके बाहर भी व्याप्त हैं । 

उसी प्रकार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के विराट रूप में सब कुछ देखा—

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ।। (गीता ११।१०)
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ।। (गीता ११।११)

जो अनेक मुख वाला, अनेक अद्भुत दर्शन वाला, अनेक दिव्य आभूषणों वाला, अनेक दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाए हुए, दिव्य मालाएं व वस्त्रों को धारण किए हुए, दिव्य गंध का शरीर में लेप किए हुए, सब प्रकार से आश्चर्यमय, प्रकाशमय, अनंत रूप और सब ओर मुख वाला था । 

जैसा प्रकाश उस विराट रूप के प्रकाश में था, वैसा शायद हजारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न प्रकाश में भी न हो । संपूर्ण जगत को अर्जुन ने देवों के देव भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में एक जगह स्थित देखा । ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तथा अन्य सभी देवी-देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सिद्ध आदि सभी उस विराट रूप में अर्जुन को दिखाई दिए ।

उस दिव्य रूप के दर्शन कर अर्जुन ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा—‘हे विश्वरूप ! मैं आपको सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूँ; परन्तु मैं आपके न अंत को देखता हूँ, न मध्य को और न आदि को ही अर्थात किसी ओर से भी आपकी कोई सीमा नहीं दीखती । मैं आपको मुकुट-युक्त, गदा-युक्त, और चक्र-युक्त तथा सब ओर से प्रकाशवान तेज के पुंज, प्रज्ज्वलित अग्नि और सूर्य के समान ज्योति-युक्त देखता हूँ । प्राकृत नेत्र आपके इस रूप के सामने खुले नहीं रह सकते, मैं तो दिव्य दृष्टि के कारण इसे देख पा रहा हूँ । आप ही परम अक्षर अर्थात् परब्रह्म परमात्मा, अविनाशी सनातन पुरुष हैं । आपका यह विराट रूप इतना विस्तृत है कि स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश और सभी दिशाएं उससे व्याप्त हो रही हैं । आपके इस अत्यंत उग्र रूप को देख कर त्रिलोकी के जीव भय के मारे त्रस्त हो रहे हैं । मैं भी इस रूप को देखकर व्याकुल हो रहा हूँ; क्योंकि मृत्युलोक के वीर—धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समूह, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कर्ण, पांडव पक्ष के प्रधान योद्धा सहित सब-के-सब आपके विकराल भयानक मुख में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं । आप बताइए कि उग्र रूप वाले आप कौन हैं ?

भगवान ने कहा—‘मैं लोकों का नाश करने वाला महाकाल हूँ । इस समय इन लोगों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ । यदि तुम युद्ध करके इन को न भी मारोगे, तो भी इन का मरण निश्चित है; जब मैं स्वयं इन का नाश करने के लिए प्रवृत्त हूँ ।’

अर्जुन ने कहा—‘आपके प्रभाव को न जानते हुए, ‘आप मेरे सखा हैं’—ऐसा मान कर प्रेम से या प्रमाद से जो मैंने ‘हे कृष्ण’ ! ‘हे सखे’ ! ‘हे यादव’ ! इस प्रकार कहा उसके लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ । आप भी मेरे अपराध को क्षमा करें और प्रसन्न हों और मुझे अपना चतुर्भुज रूप दिखाइए ।’ 

भगवान ने अर्जुन से कहा—‘मनुष्य लोक में तेरे अलावा मेरा यह विश्वरूप न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न क्रिया से और न ही उग्र तपस्या से देखा जा सकता है ।’

भगवान ने सौम्य रूप होकर अर्जुन को धीरज देते हुए युद्ध में विजयी होने का वरदान दिया और अपने विराट रूप से भयभीत हुए अर्जुन को भय मुक्त किया ।

विश्वरूप-दर्शन लीला से शिक्षा

मनुष्य के शरीर में जो आत्मा विद्यमान है, वही ब्रह्माण्ड में व्याप्त है । इसी सत्य को साकार करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपना विश्वरूप-दर्शन कराकर अर्जुन को यह शिक्षा दी कि—

▪️ मैं ही सब कुछ हूँ, संसार में सब मेरा ही स्वरूप है । मेरे अतिरिक्त जो भी दिखाई देता है, वास्तव में वह भ्रम ही है ।

▪️ अनन्य भक्ति द्वारा ही मैं प्राप्य हूँ; इसलिए जो मेरे लिए कर्म करने वाला, मेरे परायण, मेरा भक्त, अनासक्त तथा सब प्राणियों में वैर रहित होता है; वह ही मुझे प्राप्त होता है—

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित: ।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव ।। (११।५५)

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