god bhagwan vitthal of maharashtra

जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ।
नदियों में तू है, पहाड़ों में तू है ।।
सागर में तू है, और झीलों में तू है ।
पेड़ों में तू है, औ पत्तों में तू है ।।
भीतर भी तू है, बाहर भी तू है ।
नेकों में तू है, बदों में भी तू है ।।

पण्ढरपुर के पास अरणभेंडी नामक ग्राम में सांवता नाम के भक्त-संत हुए । वे माली का काम करते थे और वनमाली श्रीविट्ठल को भजते थे । 

संत सांवता का भगवान की सर्वव्यापकता पर विश्वास

संत सांवता सब जगह सब पदार्थों में भगवान को ही देखा करते थे । जो भगवान की भक्ति में तन्मय हैं, उन्हें अपने आराध्य के सिवा कहीं कुछ नहीं दिखता है ।

नारायन जाके दृगन सुन्दर स्याम समाय ।
फूल, पात, फल, डार में ताको वही दिखाय ।।

संत सांवता माली को मूली, लहसुन, मिर्ची, धनिया आदि सब्जियों में भगवान विट्ठल दिखाई देते थे । दुनिया के बगीचे का प्रत्येक पुष्प भगवान का ही स्वरूप है । उन खिले पुष्पों, पके फलों और सब्जियों में वही तो हंसता है—

जिस सिम्त नजर कर देखे हैं,
उस दिलवर की फुलवारी है,
कहीं सब्जी की हरियाली है,
कहीं फूलों की गिलकारी है ।

अर्थात्—जहां भी देखो वहां मेरा प्यारा कृष्ण ही मौजूद है, सब तरफ उसी का जल्वा है, कहीं वह सब्जियों की फुलवारी के रूप में स्थित है; तो कहीं पर महकती हुई फूलों की क्यारियों के रूप में अपना जलबा बिखेर रहा है । जिस फूल को सूंघिए उसी परमात्मा की गंध मिलेगी । सच ही तो है, यह संसार भगवान की ही झांकी है, उनके सिवाय इस निखिल विश्व में और है क्या ?

संत सांवता ने अपने एक प्रसिद्ध अभंग (भजन) में कहा है—

कांदा मुळा भाजी अवधी विठाबाई माझी ।
लसूण मिरची कोथिंबिरी ।
अवधा झाळा माझा हरि ।
सावता म्हणे केळ मळा ।
विट्ठल पायी गोविळा गळा ।।

जहां सब में ही ‘प्रभु के दर्शन’ होने लगते हैं, फिर वहां कहां ठहरता है काम, कहां ठहरता है क्रोध ? मद, अभिमान, द्वेष और भय तो उसके सामने टिक ही नहीं पाते हैं ।

भगवान विट्ठल और संत सांवता माली का अद्भुत प्रेम

गीता (६।३०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।

अर्थात्–जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।’

एक बार श्रीज्ञानेश्वरजी और नामदेवजी भगवान विट्ठल के साथ संत कूर्मदास से मिलने जा रहे थे । रास्ते में जब भक्त सांवता का गांव अरणभेंडी समीप आया तो भगवान ने उन दोनों से कहा—‘तुम लोग जरा ठहर जाओ, मैं अभी सांवता से मिल कर आता हूँ ।‘

यह कर भगवान विट्ठल संत सांवता के पास पहुंचे और कहा—‘सांवता ! तू मुझे जल्दी से कहीं छिपा दे, दो चोर मेरे पीछे पड़े हैं ।’

संत सांवता ने तुरंत खुरपी से अपना पेट चीरा और उसमें भगवान को छिपा कर ऊपर से चादर ओढ़ ली । 

इधर ज्ञानेश्वरजी और नामदेवजी भगवान की प्रतीक्षा कर रहे थे । जब बहुत समय बीत गया तब वे दोनों संत सांवता के घर पहुंचे । सांवता भगवान के नाम जप में मग्न थे । भक्त सांवता की भगवान के नाम में बड़ी निष्ठा थी ।

ज्ञानेश्वरजी और नामदेवजी—दोनों को निश्चय हो गया कि भगवान यहीं कहीं छिपे हैं । ज्ञानेश्वरजी और नामदेवजी ने सांवता से प्रार्थना की—‘भाई ! भगवान के दर्शन तो करा दो ।’

संत सांवता ने भगवान को पेट से बाहर निकाला । तब सभी भक्त सांवता और भगवान विट्ठल के प्रेम को देखकर गद्गद् हो गए ।

एक अभंग में भक्त सांवता कहते हैं—

‘नाम का ऐसा बल है कि मैं अब किसी से नहीं डरता और कलिकाल के सिर पर डंडे जमाया करता हूँ । ‘विट्ठल’ नाम गाकर और नाच कर हमलोग उन वैकुण्ठपति को यहीं अपने कीर्तन में बुला लिया करते हैं । इसी भजनानन्द की दीवाली मनाते हैं और चित्त में उन वनमाली को पकड़कर पूजा किया करते हैं । भक्ति के इस मार्ग पर चले चलो, चारों मुक्तियां द्वार पर आ गिरेंगी ।’

भक्त सांवता की भगवान विट्ठल के प्रति प्रेम की मस्ती कुछ इस प्रकार थी—

दिल के आइने में है तस्वीरे यार,
जब जरा गर्दन झुकायी, देख ली ।

मनुष्य का जीवन कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूंद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की वीणा कब शान्त हो जाए, किसी को नहीं पता । इस दुस्तर संसार-सागर से शीघ्र पार उतरने का सबसे सरल उपाय है—संतों का संग अर्थात् सत्संग; इसलिए मनुष्य को सत्संग का आश्रय अवश्य लेना चाहिए ।

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