भगवान को पाने का रास्ता बड़ा सीधा है और बड़ा उलझा भी । बुद्धि से चलो तो बहुत उलझा और भक्ति से चलो तो बड़ा सीधा । विचार से चलो तो बहुत दूर और भाव से चलो तो बहुत पास । नजरों से देखो तो कण कण में और अंतर्मन में देखो तो जन-जन में; लेकिन भक्ति का मार्ग बाधाओं से शून्य नहीं है । विपदाएं जिनसे हम साधारण सांसारिक मनुष्य दब जाते हैं, वे भक्तों के उल्लास और मस्ती का कारण होती हैं । उसमें वे भगवान का हाथ देख-देखकर प्रसन्न होते हैं ।
भगवान भी अपने भक्त को कितना प्यार करते है, उसका कितना ध्यान रखते हैं; यह सोचा भी नहीं जा सकता । कभी-कभी भक्त सोचता है कि मैं ही भगवान का ध्यान रखता हूँ, परन्तु सच तो यह है कि भगवान भी भक्त का ध्यान रखते हैं । मनुष्य जब सब आश्रयों को छोड़कर अनन्यभाव से भगवान की शरण लेता है, तभी परमात्मा उसकी रक्षा और योगक्षेम अपने हाथों में लेते हैं ।
श्यामा वेश्या और उसकी पुत्री कान्होपात्रा
पूर्वकाल में महाराष्ट्र में मंगलवेढ़ा नामक स्थान पर श्यामा नाम की एक वेश्या थी, जिसकी पुत्री का नाम कान्होपात्रा (कान्हूपात्रा) था । वह इतनी सुन्दर थी कि उसके सौंदर्य के जोड़ का वहां आस-पास कोई भी नहीं था । मां की वेश्यावृत्ति देखकर उसे ऐसे जीवन से घृणा हो गई थी । नाचना-गाना तो उसने मन लगा कर सीखा और इस कला में वह निपुण भी हो गयी । बड़े-बड़े कामी पुरुष उसके सौंदर्य और लावण्य पर झपटने के लिए श्यामा के कोठे के चक्कर लगाते रहते थे । कान्होपात्रा की मां भी अपनी दुष्प्रवत्ति के चलते उसे अपने मलिन कर्म में ढकेल कर रूपये कमाना चाहती थी । उसने अपनी बेटी को बहकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पर कान्होपात्रा अपने निश्चय से विचलित नहीं हुई ।
जब वह पन्द्रह वर्ष की हुई तो उसने निश्चय किया कि मैं अपनी देह पापियों को बेच कर उसे अपवित्र और कलंकित नहीं करुंगी । हार कर श्यामा ने पुत्री से कहा—‘यदि तुम धंधा नहीं करना चाहती हो तो कम-से-कम किसी एक पुरुष को तो वर लो ।’
कान्होपात्रा ने कहा—मैं ऐसे पुरुष को वरुंगी जो मुझसे अधिक सुन्दर, सुशील और सुकुमार हो ।’ परन्तु उसे ऐसा कोई वर मिला ही नहीं; इसलिए उसने मां से साफ कह दिया—‘‘ऐसे वर को क्या वरुं जो आज जिए, कल मर जाए ।’
महाराष्ट्र के शोलापुर में चन्द्रभागा (भीमा) नदी के तट पर पण्ढरपुर भारत का दूसरा वृन्दावन है, जहां श्रीकृष्ण भगवान विट्ठल के रूप में रुक्मिणीजी संग विराजित हैं । यहां श्रीकृष्ण पण्ढरीनाथ, विट्ठल, विठोबा और पांडुरंग के नाम से जाने जाते हैं । वे महाराष्ट्र के संतों के आराध्य हैं । यह महाराष्ट्र का प्रधान तीर्थ है । देवशयनी और देवोत्थानी एकादशी को ‘वारकरी सम्प्रदाय’ के लोग यहां यात्रा करने आते हैं ।
कुछ समय बाद कान्होपात्रा को वारकरी (श्रीविट्ठलनाथ के भक्तों) के भजन सुनने को मिले, जिससे प्रभावित होकर वह श्रीपण्ढरीनाथ के दर्शनों के लिए पण्ढरपुर गई । वहां भगवान पण्ढरीनाथ के दर्शन कर उसकी उनमें ऐसी लगन लगी कि उन्हीं को वरण कर, उन्हीं के चरणों की दासी बनकर वह सदा के लिए वहीं रह गई ।
व्रज के एक संत ने सही कहा है—
लाग गई तब लाज कहा री !
जो दृग लगे नन्दनन्दन सों,
औरन सो फिर काज कहा री ।
भर-भर पियत प्रेम रस प्याले,
ओछे अमल कौ स्वाद कहा री ।
‘ब्रज निधि’ ब्रज रस चाख्योहि चाहे,
तौ या सुख आगे राज्य कहा री ।।
अर्थात् नंदनन्दन (श्रीविट्ठल) से जिसकी आंखें लड़ जाती हैं तो न तो जग की लाज-शर्म रह जाती है, न ही किसी दूसरे से कोई आस । उस दिव्य प्रेम-रस का प्याला जिसने पी लिया फिर संसार के और सभी रस चाहे वह राज-सुख ही क्यों न हो, सब फीके लगने लगते हैं ।
संसार और इसके भोग बहुत सुन्दर और उज्जवल दीखते है पर इनमें डूबते ही हृदय मलिन (काला) हो जाता है; परन्तु यह सांवरा रंग ऐसा है कि इसमें डूबते चले जाओ तो मन उज्जवल होता चला जाता है ।
कान्होपात्रा के सौंदर्य की ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी । बेदर के बादशाह की इच्छा हुई कि कान्होपात्रा मेरे हरम में आ जाए । उसने उसे पकड़कर लाने के लिए अपने सिपाही भेजे । बादशाह ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि कान्होपात्रा यदि खुशी से न आना चाहे तो उसे जबरदस्ती पकड़कर ले आओ । सिपाही पण्ढरपुर पहुंचे और कान्होपात्रा को पकड़कर ले जाने लगे ।
कान्होपात्रा ने सिपाहियों से कहा—‘मैं एक बार श्रीपण्ढरीनाथ के दर्शन कर आऊँ ।’
यह कर कर वह मंदिर में गई और अनन्य भाव से भगवान को पुकारने लगी । इस पुकार के पांच अभंग (भगवान विट्ठल की स्तुति में गाए गए छन्द) प्रसिद्ध हैं, जिनमें कान्होपात्रा भगवान से कहती है—
दीन पतित अन्यायी ।
शरण आले विठाबाई ।। १ ।।
मी तो आहे यातीहीन ।
न कळे काही आचरण ।। २ ।।
मज अधिकार नाही ।
शरण आळे विठाबाई ।। ३ ।।
ठाव देई चरणापाशी ।
तुझी कान्होपात्रा दासी ।। ४ ।।
‘हे पांडुरंग ! ये दुष्ट दुराचारी मेरे पीछे पड़े हैं; अब मैं क्या करुं, कैसे आपके चरणों में बनी रहूँ ? आप जगत की जननी हैं, इस अभागिनी को अपने चरणों में स्थान दो । त्रिभुवन में मेरे लिए कोई स्थान नहीं है ! मैं आपकी हूँ, इसे अब आप ही उबार लो ।’
यदि माता खीझकर बच्चे को अपनी गोद से उतार भी देती है तो भी बच्चा उसी में अपनी लौ लगाए रहता है और उसी को याद करके रोता-चिल्लाता और छटपटाता है । उसी प्रकार हे नाथ ! तुम चाहे मेरी कितनी ही उपेक्षा करो और मेरे दु:खों की ओर ध्यान न दो तो भी मैं तुम्हारे चरणों को छोड़कर और कहीं नहीं जा सकती । तुम्हारे चरणों के सिवा मेरे लिए कोई दूसरी गति ही नहीं है ।
वर्म वैरियाचे हाती ।
देऊ नको श्रीपती ।। १ ।।
तू तो अनाथाचा नाथ ।
दीन दयाळ कृपावंत ।। २ ।।
वेद पुराणे गर्जती ।
साही शास्त्रे विवादती ।। ३ ।।
चरणी व्रिद वागविसी ।
तुझी कान्होपात्रा दासी ।। ४ ।।
यह कहते-कहते कान्होपात्रा की देह अचेतन हो गई । उसमें से एक ज्योति निकली और वह भगवान की ज्योति में मिल गई । कान्होपात्रा की अचेतन देह भगवान पण्ढरीनाथ के चरणों पर आ गिरी ।
गिरे गर्दन ढुलक कर पीत पट पर,
खुली रह जायें ये आंखें मुकुट पर ।
गर ऐसा हो अन्जाम मेरा,
तो मेरा काम हो औ’ नाम तेरा ।।
कान्होपात्रा की अस्थियां मंदिर के दक्षिण द्वार पर गाड़ी गईं । मंदिर के समीप कान्होपात्रा की मूर्ति खड़ी-खड़ी आज भी पतितों को पावन कर रही है ।
गीता (१८।६५) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं क्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।
तू सारी चिन्ता छोड़ दे । धर्म-कर्म की परवाह न कर । केवल एक मुझ प्रेमस्वरूप के प्रेम का ही आश्रय ले ले । प्रेम की ज्वाला में तेरे सारे पाप-ताप भस्म हो जायेंगे । तू मस्त हो जाएगा । भगवान की इच्छा में अपनी सारी इच्छाओं को मिला देना, भगवान के भावों में अपने सारे भावों को भुला देना यही ‘मामेकं शरणम्’ है ।