मनुस्मृति के अनुसार कलियुग में धर्म के चार चरणों में से केवल एक धर्म ‘दान’ ही बच गया है—‘दानमेकं कलौ युगे’ । तुलसीदासजी ने भी राचमा (७।१०३ख) में यही बात कही है—
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुं एक प्रधान ।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ।।
जीवन के लिए आवश्यक पदार्थों में अन्न और जल का सबसे अधिक महत्त्व है । ये ही पृथ्वी के वास्तविक रत्न हैं । अन्नदान करने वाला मनुष्य प्राणदाता और सर्वस्वदान करने वाला कहा जाता है । छोटे-से-छोटा दानकर्म भी यदि निष्कामभाव से किया जाए तो वह भगवान को प्रसन्न करता है । यह भगवान कहां हैं ? वह हमारे इर्दगिर्द अनन्त रूपों में—भूखों, बीमारों, गरीबों व अतिथि के रूप में रहता है । इस लोक में किया गया दान बैंक में सावधि जमा कराई गयी राशि के समान है जो समय आने पर परलोक में अनन्तगुना हो जाती है । अत: सभी सक्षम मनुष्यों को अन्न का दान अवश्य करना चाहिए ।
वैशाखमास में सत्तू का दान क्यों ?
भगवान मधुसूदन को अति प्रिय वैशाखमास में दान का विशेष महत्त्व है । वैशाखमास में ही अक्षयतृतीया तिथि पर विभिन्न वस्तुओं जैसे—सत्तू, चीनी, जल सहित घड़े, शर्बत, खरबूजा, ककड़ी, पंखा, चटाई आदि ठंडक देने वाली वस्तुओं के दान करने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
वैशाखमास में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश आदि स्थानों पर भीषण गर्मी पड़ती है । ग्रीष्मकाल शुरू होते ही भारत में अधिकांश लोग सत्तू का प्रयोग करते हैं, क्योंकि यह ठंडा पेय पदार्थ है। विभिन्न अनाजों जैसे जौ, चना, गेहूं आदि को सूखा भूनकर और उसको पीस कर बनाए गए चूर्ण को सत्तू कहते हैं ।
ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद और सस्ता भोजन है सत्तू
ग्रीष्मकाल में जौ-चने के सत्तू को पानी में घोलकर घी और शक्कर मिलाकर पीने से शीतलता प्राप्त होती है । नमकीन सत्तू बनाने के लिए सत्तू को पानी, काला नमक और नींबू के साथ घोलकर पीने से पाचनतंत्र ठीक रहता है । सत्तू गर्मी में पेट की बीमारी और शरीर के तापमान को नियंत्रित रखने में भी मदद करता है । सत्तू का सेवन करने से मधुमेह रोग में राहत मिलती है। सत्तू में प्राकृतिक रूप से रक्त शोधन का गुण होता है, जिसकी वजह से ख़ून की गड़बड़ियों से भी बचा जा सकता है। सत्तू भूखे व्यक्ति की क्षुधा शान्त करने वाला अत्यन्त उपयोगी, सस्ता व सुपाच्य अन्न है ।
यज्ञकार्य में सत्तू को प्रजापति का स्वरूप कहा गया है—अत: सत्तूदान से भगवान प्रजापति मुझपर प्रसन्न हों—ऐसा कहकर सत्तूदान करना चाहिए ।
सेर भर सत्तूदान का राजसूय यज्ञ से बढ़कर पुण्य
यह कथा महाभारतकाल में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय की है । कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया । दूर-दूर से आए हजारों लोगों को बड़े पैमाने पर दान दिया गया । यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पाण्डवों की जय-जयकार हो रही थी । पांचो पाण्डव तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मग्न थे । पाण्डव इस बात से संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा ।
युधिष्ठिर और सुनहरा नेवला
तभी एक नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा और आधा भूरा था, राजमहल के भण्डारगृह से बाहर निकला और यज्ञभूमि पर लोटने लगा । फिर वापस भण्डार गृह में चला गया । यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई । इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ । धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा जानते थे । उन्होंने नेवले से कहा—‘यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है ?’
नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला—‘हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है । इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है । मैं तो इस पुण्य के अनन्त सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा कण अपने लिए ढूंढ रहा हूं । लोग झूठ कहते हैं कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ, पर यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है । यज्ञ तो वह था जहां लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था ।’
युधिष्ठिर के उस यज्ञ के बारे में पूछने पर नेवले ने कहा—
एक बार भयानक अकाल पड़ा । लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे । चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी । उस समय एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था । कई दिन तक ब्राह्मण परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला । एक दिन वह ब्राह्मण कहीं से थोड़ा-सा सत्तू मांगकर लाया और उसमें जल मिलाकर उसके चार गोल लड्डू जैसे बना लिये । जैसे ही ब्राह्मण अपने परिवार सहित उस सत्तू के लड्डूओं को खाने लगा, उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण ने दरवाजे पर आकर कहा—‘मैं छ: दिनों से भूखा हूं कृपया मेरी क्षुधा शान्त करें ।’
अन्नदान है प्राणियों को प्राण और क्रियाशक्ति का दान
अतिथि को भगवान का रूप मानकर पहले वाले ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया, मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी । तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया । अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को खाकर तृप्त हो गया और उसी स्थान पर हाथ धोकर चला गया । उस रात भी ब्राह्मण परिवार भूखा ही रह गया और कई दिन की भूख से उन चारों का प्राणान्त हो गया ।
जहां अतिथि ब्राह्मण ने हाथ धोए थे वहां सत्तू के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे । मैं (नेवला) उन कणों पर लोटने लगा तो जहां तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया । मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया ?’ मैं एक ऋषि के पास पहुंचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का आधा भाग सोने का कैसे हो गया?
ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे और बोले—‘जिस जगह तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर सत्तू का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। वह चमत्कारिक सत्तू तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है ।’
इस पर मैंने ऋषि से कहा—‘कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए।’
ऋषि ने कहा, ‘उस परिवार ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है । यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्शमात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया । भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्मपूर्ण कार्य करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा । तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूं कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है ।’
जब मैंने आपके राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ में अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है, उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा । यह सोचकर मैं बार-बार यज्ञभूमि में आकर धरती पर लोट रहा था किंतु मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है ।’
नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए ।
भगवान श्रीकृष्ण ने बताया आडम्बररहित दान का महत्व
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो बोले—यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी । आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया । अतः आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है ।’
श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी पांडवों को समझ में आ गया कि दान, यज्ञ, तप आदि में आडम्बर होने से कोई फल प्राप्त नहीं होता है । दान आदि कार्य सदैव ईमानदारी के पैसे से ही करने चाहिए ।
दान ही है भाव भक्ति दान ही है ज्ञान शक्ति ।
दान कर्मयोग की भी सुखद कहानी है ।।
सबके कल्याण हेतु दान का प्रचार हुआ,
प्रेम सद्भाव इसकी पावन निशानी है ।।