Shri krishna with yashoda
Shri krishna with yashoda

माया महा ठगनी हम जानी ।
तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरे बानी ।।
केसव के कमला वे बैठी, शिव के भवन भवानी ।
पंडा के मूरत वे बैठीं, तीरथ में भई पानी ।।
योगी के योगन वे बैठी, राजा के घर रानी ।
काहू के हीरा वे बैठी, काहू के कौड़ी कानी ।।
भगतन की भगतिन वे बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी ।।  (कबीर)

कबीरदासजी का कहना है कि माया महा ठगिनी है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । यह सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों की फांसी लेकर और मीठी वाणी बोलकर जीव को बंधन में जकड़ देती है ।

माया या योगमाया

भगवान की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशाली वैष्णवी ऐश्वर्यशक्ति है जिसके वश में सम्पूर्ण जगत रहता है । उसी योगमाया को अपने वश में करके भगवान लीला के लिए दिव्य गुणों के साथ मनुष्य जन्म धारण करते हैं और साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं । इसी मायाशक्ति का नाम योगमाया है ।

गीता (४।६) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—‘मैं अजन्मा और अविनाशी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।’

मायाधिपति श्रीकृष्ण और माया

सृष्टि के आरम्भ में परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने माया को अपने पास बुलाकर कहा कि मैंने संसार की रचना कर ली है अब इस संसार को चलाना तेरा काम है । माया ने कहा–‘भगवन् ! मुझे स्वीकार है, किन्तु एक प्रार्थना है ।’ भगवान ने कहा–‘कहो, क्या प्रार्थना है?’

माया ने कहा–’प्रभु ! इस संसार को चलाने के लिए जिन आकर्षणों की आवश्यकता है, वह तो सब-के-सब आपके पास हैं, उनमें से एक-आध मुझे भी दें ताकि मैं जीवों को अपने जाल में फंसाकर रख सकूं ।’

भगवान ने कहा–‘बोलो क्या चाहिए ?’  माया ने कहा–‘प्रभु ! आप आनन्द के सागर हैं, मेरे पास दु:ख के सिवाय क्या है ?  कृपया आप उस आनन्द के सागर की एक बूंद मुझे भी दे दें ताकि मैं उस एक बूंद का रस संसार के इन समस्त जीवों में बांटकर उन्हें अपने वश में रख सकूं, अन्यथा वे मेरी बात नहीं मानेंगे और सीधे आपके दरबार में पहुंच जाएंगे ।’

भगवान ने अपने आनन्द के सागर की एक बूंद माया को देकर कहा—‘जा, इस बूंद को पांच भागों में विभक्त करके मनुष्यों में बांट देना ।’ प्रसन्न होकर माया ने भगवान से कहा–‘प्रभु ! आप निश्चिन्त रहें, आपके द्वारा सौंपे गए कार्य में कोई विघ्न नहीं आने दूंगी ।’

माया ने आनन्द रूपी सागर की बूंद को पांच भागों–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श में विभक्त कर संसार में फैला दिया । इसलिए संसार में सुख और आनन्द प्राप्ति का इन पांच स्थानों के अलावा और कोई स्थान नहीं है । ये पांच गुण–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श क्रमश: हमें अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश और वायु से प्राप्त होते हैं ।

माया के पांच स्थान हैं पांच ज्ञानेन्द्रियां

इन्हीं पांच तत्त्वों से इस शरीर की रचना हुई है । इन्हीं पांच तत्त्वों को ग्रहण करने के लिए भगवान ने हमें आंख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा—ये पांच ज्ञानेन्द्रियां दे रखी हैं । नासिका के द्वारा हम पृथ्वी के गन्धरूपी गुण को, जिह्वा के द्वारा जल के रसरूपी गुण को, कानों के द्वारा आकाश के शब्दरूपी गुण को और आंखों के द्वारा अग्नि के रूप गुण अर्थात् सुन्दरता को और त्वचा द्वारा वायु के स्पर्श गुण को ग्रहण करते हैं ।

माया के द्वारा फेंके गए मायाजाल में मनुष्य बहुत बुरी तरह जकड़ा हुआ है । मायापति श्रीकृष्ण की माया से मनुष्य ही नहीं वरन् बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी भ्रमित हो जाते हैं ।

मायाधिपति श्रीकृष्ण का दुर्वासा ऋषि को अपनी माया का दर्शन कराना

कृष्णावतार में एक दिन दुर्वासा ऋषि परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए व्रज में आए । उन्होंने महावन के निकट कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण को गोपसखाओं के साथ बालु में लोटते और आपस में मल्लयुद्ध करते हुए देखा—‘धूलिधूसर सर्वांगं वक्रकेशं दिगम्बरम् ।’

श्रीकृष्ण का सारा शरीर धूल से भरा था, बाल टेढ़े-मेढ़े बिखरे हुए, नंग-धडंग—शरीर पर कोई वस्त्र नहीं और वे गोपबालकों के पीछे दौड़े चले जा रहे थे । परब्रह्म श्रीकृष्ण इस रूप में ! ऋषि आए थे परमात्मा के दर्शन की अभिलाषा से, परन्तु ब्रह्म को जिस वेष में देखा, वह आश्चर्य में पड़ गए। परब्रह्म के जो लक्षण उनके हृदय में बैठे हुए थे वे तो श्रीकृष्ण से मिलते नहीं थे ।

भगवान की माया ने उनके मन में एक शंका और पैदा कर दी—

‘क्या ये ईश्वर हैं ? भगवान हैं तो फिर साधारण बालक की तरह भूमि पर क्यों लोट रहे हैं ? नहीं, ये परमात्मा श्रीकृष्ण नहीं हैं । ये तो नन्दबाबा के पुत्रमात्र हैं, ये ईश्वर नहीं हैं !!’

भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है

दुर्वासा ऋषि को भगवान श्रीकृष्ण का मायावैभव प्रकट कराने के लिए योगमाया प्रकट हुईं । योगमाया सारे खेल का आयोजन करती है । सबके सामने भगवान योगमाया से ढके रहते हैं परन्तु प्रेमीभक्तों के सामने भगवान योगमाया से अनावृत (प्रकट रूप में) रहते हैं ।

श्रीकृष्ण नन्हीं-नन्हीं भुजाओं को उठाये हुए, दौड़ते हुए ऋषि की गोद में आकर बैठ गए और जोर से हंसने लगे ।भगवान हंसकर ही तो जीवों को फंसा लेते हैं । यही तो उनका जादू है ।

खिलखिलाकर हंसते श्रीकृष्ण के मुख में श्वास के साथ योगमाया दुर्वासा ऋषि को खींच लेती है और होंठों के कपाट बंद कर देती है।  अब योगमाया ने दुर्वासा ऋषि को भगवान का वैभव दिखाना शुरु किया। भगवान के मुख में दुर्वासा ऋषि ने सातों लोकों का, पाताल सहित सारे ब्रह्माण्ड का, प्रलय का और अंत में गोलोक का दर्शन किया जहां दिव्य कमल पर साक्षात् गोलोकबिहारी श्रीराधाकृष्ण बैठे हुए थे ।

गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को देखकर हंसने लगे । उनका मुंह खुला और श्वास के साथ ऋषि बाहर आ गए । ऋषि ने आंख खोलकर देखा तो वे गोलोक में नहीं व्रज में उसी कालिन्दीतट पर बालु में खड़े हुए हैं, श्रीकृष्ण सखाओं के साथ वैसे ही खेल रहे हैं और वैसे ही हंस रहे हैं ।

दुर्वासा ऋषि का सारा संशय दूर हो गया और वे समझ गए कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म परमात्मा हैं । अश्रुपूरित नेत्रों से वे भूमि पर लोट गए और वहां की धूल उठा-उठाकर अपने ऊपर डालनी शुरु कर दी । दुर्वासा ऋषि ने ‘नन्दनन्दन स्तोत्र’ के द्वारा भगवान की स्तुति की और ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटते हुए बदरिकाश्रम की ओर चले गए ताकि एकान्त में प्यारे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न रह सकें ।

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमाया समावृत: ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।। (गीता ७।२५)

अर्थात्—अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है, अर्थात् मुझे जन्मने-मरने वाला मानता है।

भगवान जब मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं । जो भगवान के प्रेमी भक्त होते हैं, जिन्हें भगवान अपने स्वरूप, गुण, लीला का परिचय देना चाहते हैं, केवल उन्हीं के सामने वे प्रत्यक्ष होते हैं ।

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