नित्य सखा नारायण तेरे।
तजते तुझे न एक निमिष को,
रखते कृपाभाव में घेरे।
भले भूल जाए तू उनको,
फंसकर माया मोह घनेरे।
वे रखते नित तुझे हृदय में,
निशिमें दिनमें सांझ-सवेरे।।
भगवत्प्रेम की साधना
भगवान के प्रेम में अपने-आप को खो देना ही सच्चा प्रेम है। हमारी आंखों की पुतली में वही चीज दिखाई देती है, जो सामने होती है। गोपियां सब जगह श्यामसुन्दर के दर्शन करती हैं; अत: उनकी आंखों की पुतली में सदैव श्यामसुन्दर बसे रहते हैं। भगवान से प्रेम की साधना जितनी सरल है उतनी ही कठिन भी। सच्चा साधक इस अलौकिक प्रेम की साधना में ऐसा सराबोर हो जाता है कि उसे संसार के राग-प्रपंच सुहाते ही नहीं। उसे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि प्रभु मेरे रोम-रोम में समा गए हैं, वे घट-घट में कण-कण में बसे हुए हैं। भगवान जब आंखों में बस जाते हैं तब और कोई वस्तु सुहाती नहीं है—
‘जिन अँखियन में वह रूप बस्यौ,
उन आँखिन सौं फिर देखियै का।’
साधना के पांच नियम
भगवत्प्रेम प्राप्ति की साधना के कुछ नियम हैं—भगवान की प्राप्ति की चाह रखने वाले सच्चे साधक को अंधा, बहरा, गूंगा, लूला और लंगड़ा बन जाना चाहिए। इसका भाव यह है कि भगवान के अतिरिक्त जगत के भोगों को देखने के लिए वह अंधा बन जाए। भगवान की कथा-महिमा सुनने के अलावा अन्य प्रकार की जगत् चर्चा सुनने में बहरा बन जाए। भगवान के गुणगान के अलावा सांसारिक बातों को करने के लिए गूंगा बन जाए अर्थात् कम-से-कम बात करे। भगवान और उनके भक्तों की सेवा के अतिरिक्त विषयभोग में लिप्त होने के लिए लूला बन जाए। भगवद्स्थानों की यात्रा के अतिरिक्त भोगस्थानों में जाने के लिए लंगड़ा बन जाए अर्थात् साधक की सभी इन्द्रियां भगवान में लगी रहनी चाहिए।
जैसा भाव वैसे भगवान
जिसके पास जैसा भाव है, उसके लिए भगवान भी वैसे ही हैं। वे अन्तर्यामी मनुष्य के हृदय के भावों को जानते हैं। जो मनुष्य सहजरूप में अपना तन, मन, धन और बुद्धि अर्थात् सर्वस्व प्रभु पर न्योछावर कर देता है, भगवान भी उसे दर्शन देकर भावविभोर कर देते हैं। जनाबाई साधारण स्त्री थी, परन्तु भगवान उसके घर पानी भरते थे।
वैष्णव वह है जो अपने दोषों को देखे, दूसरों के नहीं
एक बार चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा पर थे। वहां उन्होंने एक स्थान पर देखा कि एक ब्राह्मण बैठा हुआ गीता का पाठ कर रहा था और रो रहा था। कम पढ़ा-लिखा होने से वह गीता का अशुद्ध पाठ कर रहा था। चैतन्य महाप्रभु के साथ नित्यानन्दजी भी थे, उन्हें अपने पांडित्य पर गर्व था; परन्तु चैतन्य महाप्रभु ने भगवान के प्रेम में अपनी विद्वता को भुला दिया था।
नित्यानन्दजी ने उस पंडित का अशुद्ध गीतापाठ सुना तो उन्हें अशुद्ध पाठ सहन नहीं हुआ। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से कहा—‘यह ब्राह्मण अशुद्ध पाठ करता है, आप इसे समझा दीजिए कि अशुद्ध पाठ न करे।’ चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्दजी से कहा—‘करता है तो करने दीजिए, आपका क्या लेता है?’ पर नित्यानन्दजी नहीं माने और कहने लगे कि अशुद्ध पाठ नहीं होना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा—‘तब आप जाकर समझा दीजिए।’
नित्यानन्दजी ने ध्यानमग्न उस पंडित को हाथ से हिला-डुलाकर जगाया और कहा—‘तुम ये अशुद्ध पाठ क्यों कर रहे हो?’ ब्राह्मण ने कहा—‘महाराज! मै पढ़ा-लिखा नहीं हूँ।’ नित्यानन्दजी ने कहा—‘तो फिर रो क्यों रहे हो?’
ब्राह्मण ने थोड़ा सकुचाते हुए उत्तर दिया—‘कुरुक्षेत्र के मैदान में ये जो श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं, उनकी भाव-भंगिमा को देखकर मेरे आंसू बहने लगते हैं।’
यूँ अश्क तो बहते हैं आँखों से सुबहो-शाम,
उस आँख में जो आए वही मोती होता है।
नित्यानन्दजी बहुत बड़े भगवद्भक्त थे परन्तु वे भगवान की लीला न समझ सके। नित्यानन्दजी चैतन्य महाप्रभु से बोले—‘यह ब्राह्मण गीता का केवल अशुद्ध पाठ ही नहीं कर रहा बल्कि दम्भी-पाखण्डी भी मालूम होता है। मैंने उससे रोने का कारण पूछा तो बोला कि कुरुक्षेत्र के मैदान में मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन दिख रहे हैं।’
चैतन्य महाप्रभु ने कहा—‘दीखते होंगें।’ परन्तु नित्यानन्दजी को महाप्रभु की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। तब चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्दजी से कहा—‘आप एक काम करें, जाकर ब्राह्मण के चरणस्पर्श करें।’ नित्यानन्दजी को महाप्रभुजी की आज्ञा का पालन करना ही था सो उन्होंने जाकर ब्राह्मण का चरणस्पर्श किया। चरणस्पर्श करते ही ब्राह्मण ने कुरुक्षेत्र के जिस दृश्य का वर्णन किया था वह नित्यान्दजी की आंखों के सामने वैसा-का-वैसा दिखाई देने लगा। नित्यानन्दजी आश्चर्यचकित रह गए। तब महाप्रभुजी ने कहा—‘असली पाठ तो ये ब्राह्मणदेवता ही करते हैं।’
जब भक्त भगवान में ऐसा समाहित हो जाता है कि मानो भक्त और भगवान दो नहीं, एक ही हैं; तब बाकी क्या रह जाता है–
नाम लिये रीझें नारायण,
रह सकते निज धाम नहीं।
प्रकट होय तत्काल मिलें प्रभु,
हो विलम्ब का काम नहीं।।
प्रेम से प्रकट होते हैं भगवान
चैतन्य महाप्रभु भी अपने श्यामसुन्दर के विरह में रोते-रोते यही कहते थे— ‘हे प्रभो! तुम्हारा नाम लेते-लेते कब मेरे दोनों नेत्रों से अश्रुधारा बह चलेगी? कब हम गद्गद् कण्ठ से तुम्हारा नाम रटते हुए पुलकित हो उठेंगे?’ (शिक्षाष्टक ६) और १८ वर्षों तक महाप्रभुजी ने नेत्रों से इतनी जलधारा बहायी कि जगन्नाथजी मन्दिर में गरुड़-स्तम्भ के पास का कुण्ड जहां खड़े होकर वे दर्शन करते थे, अश्रुजल से भर जाता था और अंत में प्रेम से कृष्ण-नाम लेते हुए वे तदाकार हो गए।
श्रीरामचरितमानस (१।१८४।५) में तुलसीदासजी कहते हैं–
हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
भगवान ने नारदजी से कहा है–
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
अर्थात्—मेरा निवास विशेष रूप से तो वहां होता है, जहां मेरे प्रेमी भक्त मेरे प्रेम में विभोर होकर संसार की सुध-बुध भूलकर मेरा नाम-संकीर्तन करते हैं।
साधक को भगवान की प्राप्ति में देरी होने का कारण यही है कि वह भगवान के वियोग को सहन कर रहा है। यदि उसे भगवान का वियोग असह्य हो जाए तो भगवान के मिलने में देरी नहीं होगी।
very nice we get too much education from these quotes thank you very much.
Jai shri bhagvannam ki
Archana ji aapke char no ki raj vandan
K b dubey 9956564548
Radhey Radhey…bahaut sunder…🙏🌷