करी गोपाल की सब होय।
जो अपनों पुरुसारथ मानत अति झूठों है सोय।।
साधन मंत्र यंत्र उद्यम बल, यह सब डारहु धोय।
जो लिख राखि नंदनन्दन नें मेट सकैं नहिं कोय।।
दु:ख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहिं मरत हौं रोय।
सूरदास स्वामी करुणामय श्याम चरन मन मोय।।
परमात्मा के हाथ की कठपुतली है मानव
यह विराट् विश्व परमात्मा की लीला का रंगमंच है। विश्व रंगमंच पर हम सब कठपुतली की तरह अपना पात्र अदा कर रहे हैं। एक जाता है, दूसरा प्रकट हो जाता है; ऐसे ही अनन्तकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा। कठपुतली नचाने वाला जानता है कि इस पुतली को कब तक और किस-किस रूप में नाचना है, दूसरे जानने-समझने की चेष्टा भी करें तो वह बेकार है।
तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र, काठ की पुतली मैं, तुम सूत्रधार।
तुम करवाओ, कहलाओ, मुझे नचाओ, निज इच्छानुसार।। (पद-रत्नाकर)
कभी तो यह नटवर श्रीकृष्ण दर्शक बनकर इस रंगमंच का खेल देखते रहते हैं; तो कभी स्वयं भी इस रंगमंच पर आकर खेलने लगते हैं। परन्तु आश्चर्य यह है कि उनकी लीला के तो दर्शन होते हैं किन्तु उस लीला के सूत्रधार का दर्शन नहीं होता है। जैसे कठपुतली के नाच में कठपुतली और उसका नाच तो दर्शकों को दिखायी देता है परन्तु कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे रहता है, जिसे दर्शक देख नहीं पाते; उसी प्रकार यह संसार तो दिखता है किन्तु इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भगवान दिखायी नहीं देता है। इसीलिए मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानकर अहंकार में रहता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा–’तुम कौन करने वाले हो, उस पर भी अभिमान करते हो कि युद्ध नहीं करुंगा, लड़ूंगा नहीं। मैंने इन सबको पहले से ही मार रखा है। देखना हो तो देख ले मेरी दाढ़ों में।’
भगवान ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य विराटस्वरूप दिखलाया जिसमें भगवान के भयानक मुखों में धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, विभिन्न देशों के राजा, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण आदि सब-के-सब शूरवीर योद्धा दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और उनके चूर्ण-विचूर्ण हुए अंग भगवान के दांतों के बीच में लगे हुए हैं (गीता ११।२६-२७)।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—
‘तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुड्.क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रंभव सव्यसाचिन्।। (गीता ११।३३)
अर्थात्—‘हे सव्यसाचिन्! तू उठ, शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से सम्पन्न राज्य को भोग, यश प्राप्त कर। ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं। तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा।’
भगवान श्रीकृष्ण ने यहां अर्जुन को यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे युद्ध न करने पर भी ये सब बचेंगे नहीं, मरेंगे तो सही ही। तुम्हारा तो केवल नाम भर होगा, सब-के-सब मेरे द्वारा पहले ही से मारे हुए हैं। तुम कौन मारने वाले और तुम कौन न मारने वाले?
हे नर इस देह के वास्ते न रोना इष्ट,
यह तन मानों एक मिट्टी का खिलौना है।
मूर्तिकार मूर्ति यूं ही बिगाड़ता नित्यप्रति,
बनाता नमूना नित्य दूसरा सलोना है।। (विह्वल)
होगा वही जो श्रीकृष्ण चाहते हैं
महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया, अब केवल दुर्योधन का वध होना बाकी था। दुर्योधन के मरे बिना पाण्डवों की विजय कैसे होती? दुर्योधन का वध करने का भीमसेन ने संकल्प लिया हुआ था और दुर्योधन बचना चाहते थे। दुर्योधन मां गान्धारी के पास गए। गान्धारी ने पातिव्रत्य से अपने नेत्रों में इतना तेज संचित कर लिया था कि एक बार उन्होंने क्रोध में अपनी आंखों की पट्टी के कोरों से युधिष्ठिर के हाथों को देख भर लिया तो युधिष्ठिर के नाखून जल गए थे। ऐसा था गान्धारी के पातिव्रत्य का प्रभाव। किन्तु जबसे कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण हुआ, गान्धारी ने दुर्योधन को आशीर्वाद देना बंद कर दिया था। दुर्योधन ने जब मां के पास जाकर कहा कि मैं बचना चाहता हूँ तो गान्धारी ने उसे युधिष्ठिर के पास जाकर उपाय पूछने के लिए कहा।
गान्धारी को युधिष्ठिर के धर्म और सत्यनिष्ठा पर इतना अटूट विश्वास था कि जिस युधिष्ठिर की विजय दुर्योधन के वध पर टिकी है, उसी के पास अपने पुत्र का वध न होने का उपाय पूछने गान्धारी दुर्योधन को भेज रही थी। इस बात पर विश्वास करना आज कल्पना से भी परे है।
युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा पर दुर्योधन को था अटूट विश्वास
दुर्योधन को भी युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा पर अटूट विश्वास था इसलिए दुर्योधन निर्भय होकर युधिष्ठिर के पास जाकर साफ-साफ बोला—‘भाई! भीमसेन मुझे मारना चाहता है किन्तु आप कोई ऐसा उपाय बताएं कि मेरा सारा शरीर वज्र का हो जाए और मुझे कोई चोट न पहुंचे।’ महाराज युधिष्ठिर ने बड़ी सरलता से कहा—‘मां गान्धारी के पास वस्त्ररहित होकर जाओ और उनसे एक बार आंखों की पट्टी खोल देने के लिए कहो। मां के एक बार खुले नेत्रों से तुम्हारे शरीर पर दृष्टिपात करते ही तुम्हारा सारा शरीर वज्र के समान हो जाएगा; फिर भीम की भी ताकत नहीं कि वह तुम्हें मार सके।’ युधिष्ठिर के सम्बन्ध में दुर्योधन के मन में यह विश्वास था कि ये मेरे शत्रु हैं फिर भी वे सच ही कहेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे।
युधिष्ठिर चाहें जो उपाय बता दें, गान्धारी चाहें अपने प्रबल तेज से दुर्योधन का शरीर वज्र के समान बना दे, पर श्रीकृष्ण जो चाहते हैं, वही होगा। भगवान के लिए कोई भी स्थिति ऐसी पेचीदा नहीं, जिसको वे सुलझा न सकें।
भगवान ही सच्चे मित्र व हितैषी हैं
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के पास से दुर्योधन को लौटते देखा तो सोचा कि अब बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा। उन्होंने युक्ति निकाली और पहुंच गए दुर्योधन के पास। भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से युधिष्ठिर के पास जाने का कारण पूछा। युधिष्ठिर द्वारा बताए गए उपाय को जानने के बाद श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा—‘युधिष्ठिर ने सत्य ही कहा है। मां गान्धारी की आंख में यह शक्ति है परन्तु आप जैसे शूरवीर मृत्यु के भय से मां के सामने नंगे होकर जाएं, शर्म नहीं आएगी?’
दुर्योधन ने कहा—‘बात तो ठीक है परन्तु इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं है।’ लीलामय श्रीकृष्ण बोले—‘उनकी भी बात रह जाए और आपका भी काम हो जाए इसलिए आप कमर के नीचे जंघा तक वस्त्र पहन लें फिर मां के सामने चले जाएं।’
आनन्दसिंधु प्रभु सखा रूप में,
मिल जाये तो क्या कहना?
उसके आगे फिर शेष नहीं,
रह जाता है कुछ भी लहना।।
भगवान की माया
भगवान की माया में मोहित होकर दुर्योधन की मति फिर गयी और वह भीमसेन की प्रतिज्ञा को भूल गया। भीमसेन ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह दुर्योधन की जांघ को तोड़ेगा क्योंकि उसने कौरवों की सभा में अपनी खुली जांघ पर द्रौपदी से बैठ जाने के लिए कहा था।
दुर्योधन कटिवस्त्र (जांघिया) पहनकर मां के सामने गया। गान्धारी ने आंखें खोलीं और दुर्योधन को कटिवस्त्र पहने देखकर पूछा—‘बेटा! रास्ते में तुम्हें श्रीकृष्ण तो नहीं मिले थे? दुर्योधन ने कहा—‘हां, मिले थे।’ गान्धारी समझ गयी कि यह श्रीकृष्ण का ही रचा खेल है। दुखी मन से गांधारी ने कहा—‘उनकी इच्छा ही पूर्ण हो, अब तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।’
गान्धारी के नेत्रों के प्रबल तेज से दुर्योधन का पूरा शरीर तो वज्र के समान हो गया किन्तु कमर से जंघा तक का भाग वस्त्र से ढका होने के कारण साधारण ही रह गया। बाद में भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध हुआ और भीम ने दुर्योधन की जांघ गदा मारकर तोड़ दी। बलदाऊजी दुर्योधन को गदा सिखलाने वाले गुरु थे, उन्होंने क्रोध करते हुए कहा कि भीम ने गदायुद्ध के नियम तोड़कर कटि के नीचे गदा मारी है। श्रीकृष्ण ने भीमसेन का पक्ष लेते हुए कहा—‘जब भरी सभा में दुर्योधन ने द्रौपदी को बेइज्जत किया तब वह पाप नहीं था? उस समय से भीम के हृदय में आग लगी थी और उसने दुर्योधन की जांघ तोड़ने की प्रतिज्ञा की थी। उस समय आप होते तो क्या करते?’ बलदाऊजी बोले—‘भैया! तुम जानो, तुम्हारा काम जाने, हम तो चलते हैं।’
भगवान की इस लीला में कुछ भी अनहोनी बात नहीं होती। जो कुछ होता है, वही होता है जो होना है और वह सब भगवान की शक्ति ही करती है। और जो होता है मनुष्य के लिए वही मंगलकारी है।
केसव कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये।।