श्रीकृष्ण हैं सच्चे प्रेम के अधीन
महाभारत का युद्ध होना जब निश्चित हो गया तब कौरव व पांडव अपने मित्रों व सम्बन्धियों को अपने-अपने पक्ष में करने में लग लगे। कौरव जानते थे कि श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में रहेंगे पर उनकी नारायणी सेना की उपेक्षा नहीं की जा सकती। दुर्योधन की पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब से हुआ था अत: श्रीकृष्ण के महल में दुर्योधन को जाने में कोई बाधा नहीं थी। दुर्योधन जब श्रीकृष्ण के कक्ष में पहुंचे तब लीलामय श्रीकृष्ण निद्रा का नाटक कर नेत्र बंद करके लेटे हुए थे। पलंग के सिरहाने एक सुन्दर आसन देखकर दुर्योधन वहां बैठकर श्रीकृष्ण के जागने की प्रतीक्षा करने लगा।
अर्जुन भी श्रीकृष्ण को युद्ध का निमन्त्रण देने पहुंचे। भुवनसुन्दर श्रीकृष्ण को शयन करते हुए देखकर वे उनके चरणों की तरफ खड़े हो गए। तभी श्रीकृष्ण ने नेत्र खोले और सामने अर्जुन को खड़ा देखकर पूछा—‘पार्थ! तुम कब आए! कैसे आए हो?’
दुर्योधन डरे कि कहीं अर्जुन को श्रीकृष्ण किसी प्रकार की सहायता का वचन न दे दें इसलिए उन्होंने कहा—‘वासुदेव! पहिले मैं आया हूँ। पांडवों से हमारा युद्ध तय है। आप हमारे सम्बन्धी हैं, अत: मैं आपसे सहायता मांगने आया हूँ।’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा तुम किस कारण आए हो? अर्जुन ने उत्तर दिया—‘आया तो मैं भी इसी उद्देश्य से हूँ।’
श्रीकृष्ण ने कहा—‘आप दोनों हमारे सम्बन्धी हैं। अत: इस घरेलू युद्ध में मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करुंगा। एक ओर शस्त्रहीन मैं रहूंगा और दूसरी ओर विश्व की सर्वश्रेष्ठ मेरी नारायणी सेना रहेगी। पहिले मैंने अर्जुन को देखा है और वे आपसे छोटे भी हैं अत: पहिले अर्जुन को अवसर मिलना चाहिए कि वे दोनों में से जो चाहें, अपने लिए चुन लें।’
अर्जुन को पहला अवसर देने के निर्णय से दुर्योधन का मुख ही सूख गया। वे सोचने लगा कि श्रीकृष्ण जब युद्ध में शस्त्र ही नहीं उठायेंगे तो इन्हें लेकर कोई करेगा क्या? उल्टे ये कोई-न-कोई बखेड़ा खड़ा किए रहेंगे। कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन सेना ले ले और ये हमारे सिर पड़ जाएं।
भगवान या उनका बल
अर्जुन को तो जैसे वरदान ही मिल गया। वे डर रहे थे कि कहीं पहला अवसर दुर्योधन को मिला और उसने यदि वासुदेव कृष्ण को चुन लिया तो अनर्थ हो जाएगा। अर्जुन ने तुरन्त कहा—‘वासुदेव! आप हमारी ओर रहे।’
अर्जुन की बात सुनकर दुर्योधन खुशी के मारे आसन से उठ कर बोला—‘हां हां ठीक है। यह हमें स्वीकार है। श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में रहें और नारायणी सेना को हमारे पक्ष में जाने की आज्ञा दें।’
श्रीकृष्ण ने नारायणी सेना को दुर्योधन के साथ जाने की आज्ञा दे दी। दुर्योधन के चले जाने पर श्रीकृष्ण ने हंसते हुए अर्जुन से कहा—‘पार्थ! तुमने यह क्या बचपना किया। युद्ध में मैं शस्त्र उठाऊंगा नहीं। मुझे लेकर तुम्हें क्या लाभ मिलेगा। तुम चाहो तो अब भी मेरे बदले यादवों की एक अक्षौहिणी सेना ले सकते हो।’
श्रीकृष्ण ने यह एक ऐसी युक्ति रची थी जिससे वे कौरवों को अप्रसन्न किए बिना ही पाण्डवों की सहायता करने में समर्थ हो गए। कौरवों को श्रीकृष्ण के ईश्वर होने का बिल्कुल भी आभास नहीं था। श्रीकृष्ण ने युद्ध में प्रत्यक्षरूप से भाग नहीं लिया, परन्तु वही वास्तव में पाण्डवों के प्राण और पथ-प्रदर्शक थे।
अर्जुन के नेत्र भर आए और वे बोले—‘माधव! आप मेरी परीक्षा क्यों लेते हैं। मैंने आपको किसी लाभ के लिए नहीं चुना है। पाण्डवों की विजय हो या न हो, हम आपके बगैर नहीं रह सकते। आप तो हमारे प्राण हैं। आपसे रहित आपका बल हमें नहीं चाहिए।’
श्रीकृष्ण ने हंसते हुए अर्जुन से कहा—‘तो क्या कराना चाहते हो तुम मुझसे?’ अर्जुन ने कहा—‘सारथि बनाऊंगा मैं आपको। मेरे रथ की रश्मि (लगाम) हाथ में ले लीजिए और मुझे निश्चिन्त कर दीजिए।’
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो वीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।। (मानस ६।८०क)
श्रीकृष्ण के सारथीपन का अभिप्राय
कठोपनिषद् (१।३।६) के अनुसार शरीर रथ है, आत्मा रथी है, दस इन्द्रियां घोड़े हैं, बुद्धि सारथि और मन लगाम है। श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन की बुद्धि (पथ-प्रदर्शक) बने। अर्जुन की विजय तो तभी हो चुकी थी, जब भगवान उनका रथ हांकने को तैयार हो गए थे क्योंकि ‘जहां कृष्ण हैं, वहीं धर्म है और जहां धर्म है, वहीं विजय है।’ श्रीकृष्ण अर्जुन का सारथ्य स्वीकार कर संसार में ‘पार्थसारथी’ कहलाए।
महाभारत-युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ का सारथी बनना क्यों स्वीकार किया?
इसके पीछे एक विशेष कारण है। अर्जुन वास्तव में भगवान की प्रकृति (कार्यकारिणी शक्ति) थे। धर्मस्थापना के लिए अवतार धारण करने का सारा कार्य भगवान को उन्हीं के द्वारा करवाना था। कौरवों का अनाचार और पांडवों का सदाचार ये भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में दो लगाम की डोरियां थीं। धर्म-अधर्म रूपी दो घोड़ों को इन्हीं लगाम में कसकर भगवान ने मोक्षदायक रथ में जोता और स्वयं सारथी बनकर भक्तों का परित्राण और दुष्टों के दलन का कार्य किया।
अर्जुन के प्राण श्रीकृष्ण
महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया। खेमे पर पहुंचकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—‘तुम अपने गाण्डीव धनुष को लेकर पहले रथ से नीचे उतर जाओ, मैं पीछे उतरुंगा।’ यह आज नयी बात थी, परन्तु भगवान की आज्ञा मानकर अर्जुन पहले उतर गया। जैसे ही श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर रथ से नीचे उतरे, रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ दिव्य वानर अन्तर्धान हो गया। इसके बाद अर्जुन का वह रथ बिना अग्नि के ही जलकर भस्म हो गया। इस घटना से चकित अर्जुन ने श्रीकृष्ण से इसका कारण पूछा तो भगवान ने बताया कि—‘ब्रह्मास्त्र के तेज से यह रथ पहले ही जल चुका था। मैं इस पर बैठा हुआ इसे रोके हुए था। तेरा कार्य पूरा हो जाने पर मैंने इसे छोड़ दिया। आज तू पहले न उतरता तो तू भी जलकर खाक हो जाता।’
जब मनुष्य भगवान की शरण हो जाता है अर्थात् भगवान के सिवाय दूसरा कोई सहारा न हो, प्यारा न हो, गति न हो—जब मनुष्य के अंदर इस तरह का अनन्यभाव आ जाता है तब वह सभी प्राणियों से, विघ्न बाधाओं से निर्भय हो जाता है, उसे कोई भयभीत नहीं कर सकता, कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
जग की छोड़े आस, प्रभु में कर विश्वास।
ले वह सुख की सांस, कभी न रहे उदास।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
भगवान को अपने जीवन का सारथी कैसे बनाएं
मनुष्य चाहे तो भगवान को अपने जीवन का सारथी बना सकता है। इसके लिए सबसे जरुरी है कि अपने अंदर बैठी मलिन वासनाओं—काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर आदि को बाहर कर हृदयकमल को पूर्ण रूप से स्वच्छ कर ले फिर भगवान का आह्वान करे—
बसो मेरे नैनन में दोउ चंद।
गौर बरन बृषभानुनंदिनी स्याम बरन नंदनन्द।।
इस प्रेमपूर्ण पुकार को सुनकर वे तुरन्त नैनों के दरवाजे से हृदयकमल में आ विराजेंगे और तुम्हारे जीवन का सारथ्यकर स्वधाम जाने का रास्ता दिखा देंगे। जो अपने जीवनरूपी रथ की डोर भगवान के हाथों में सौंप देता है, उसकी लौकिक और पारलौकिक विजय निश्चित होती है। एक बार भगवान पर भरोसा करके तो देखें वे क्या करतब दिखाते हैं। वे तो हमारा सारा भार ही उठाने को तत्पर हो जाते हैं। गीता (९।२२) में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं—
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
It is a very special approach towards God to let people know about their divinity with the help of liturature
Shri Krishna is supreme god.He is the reason for every reasons.The maker of everything and the destroyer also.