‘श्रीकृष्ण’ शब्द का अर्थ है ‘सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाला।’ श्रीकृष्ण बाँसुरी की दिव्य मधुर ध्वनि से समस्त जीवों को अपनी ओर आकर्षित करके बुलाते हैं–’तुम यहां आओ! मैं ही सच्चा आनन्द हूँ।’ यह वंशी-ध्वनि नादब्रह्म या शब्दब्रह्म है; अत: जिस किसी के कानों का स्पर्श कर लेती है, वह श्रीकृष्णप्रेमरूपी परमानन्द में डूब जाता है।
कन्हैया जब अपने दाहिने कन्धे की ओर दाहिना गाल झुकाकर बाँसुरी बजाते हैं, तब गोपियां और गौएं बाबली हो जातीं। जब वे नजर ऊपर कर बाँसुरी बजाते, तब स्वर्ग के देवता, इन्द्र, चन्द्र, वरुण आदि तन्मय हो जाते; जब वे पृथ्वी की ओर नजर कर बाँसुरी बजाते हैं, तब पाताल की नागकन्याओं का मन भी डोलने लगता है। उस समय समस्त प्रकृति में हलचल मच जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा धारण की जाने वाली विभिन्न बाँसुरियां
भगवान श्रीकृष्ण अलग-अलग समय विभिन्न प्रकार की बाँसुरियों को धारण करते हैं–
गौचारण के समय श्रीकृष्ण धारण करते हैं ‘आनन्दिनी’ बांसुरी
आनन्दिनी बांसुरी बांस की बनी होती है। इस बांसुरी के छिद्रों व मुखरन्ध्र (मुख से बजाये जाने वाले छिद्र) में चौदह अंगुल की दूरी होती है।
जब श्रीकृष्ण गायों के न्योने (दुहते समय गाय के पैर बांधने की रस्सी) की पगड़ी बाँध लेते और उनको फंसाने के फंदे (भागने वाली गायों को पकड़ने की रस्सी) को गले में डाल लेते हैं और गौओं को साथ लेकर मधुर-मधुर स्वर से बाँसुरी बजाते हुए चलते हैं, तब वे ‘आनन्दिनी’ नामक बांसुरी धारण करते हैं। यह बाँसुरी श्रीकृष्ण और उनके सखाओं को बहुत प्रिय है।
आनन्दिनी वंशी-ध्वनि को सुनकर भावावेश के कारण हजारों गायें और बछड़े श्रीकृष्ण को घेरे चुपचाप खड़े हो जाते। उनकी आंखों से आंसू बहने लगते तथा कान खड़े हो जाते। प्रत्येक गाय के सामने श्रीकृष्ण का मुख है। मानो भगवान के मुख की ओर आंख लगाए ये गौएं उनके रूप-सौंदर्य को अपने हृदय में उतारना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने आंखों पर आंसुओं का परदा डाल दिया है। गायों की जैसी ही दशा उनके बछड़ों की भी है। दूध पी रहे बछड़े अपना मुंह ऊपर करके दोनों कानों का ‘दोना’ (पानपात्र) बनाकर अमृतरूपी वेणुनाद को पीने लगते हैं, ताकि वंशीनाद रूपी अमृत की एक भी बूंद कहीं पृथ्वी पर गिर न पड़े। ये भगवान की आनन्दिनी वंशी का कमाल है कि गाय और बछड़ों को अपनी देह की भी सुध नहीं रहती है।
रास के समय श्रीकृष्ण धारण करते हैं ‘महानन्दा’ बाँसुरी
यह सोने की बनी बाँसुरी होती है। इस बाँसुरी में नौ छेद होते हैं। यह सत्रह अंगुल लम्बी होती है व छिद्रों व मुखरन्ध्र के बीच की दूरी दस अंगुल होती है।
शरदपूर्णिमा की रात्रि में रास के समय श्रीकृष्ण ‘महानन्दा’ नामक बाँसुरी धारण करते है। इसे ‘सम्मोहिनी’, ‘भुवनमोहिनी’ या ‘महानन्दा’ बाँसुरी भी कहते है।
महानन्दा बाँसुरी ‘सम्मोहिनी’ या ‘भुवनमोहिनी’ क्यों कही जाती है?
इसका कारण यह है कि इस बाँसुरी के स्वरों के सम्मोहन से चर और अचर दोनों की गति उलटी हो गई। चल (चलने-फिरने वाले) प्राणी प्रेममुग्धता के कारण अचल (निश्चेष्ट) हो जाते हैं और अचल (स्थिर पदार्थ) चल (द्रवित) हो जाते हैं। शरदपूर्णिमा की रात्रि में जब भगवान ने वेणुनाद किया तो पवन की गति बंद हो गयी, यमुनाजल प्रवाहित होना बंद हो गया। पशु-पक्षी, मछलियां सभी उस स्वर के वश में हो गए। हिरण दौड़ना भूल गए। वृक्ष और लता आनन्द से पुलकित हो गए और पुष्प नये-नये रंग में खिल उठे।
बाँसुरी बजाई आछे रंग सौं मुरारी।
सुनि कैं धुनि छूटि गई संकर की तारी।।
वेद पढ़न भूलि गए ब्रह्मा ब्रह्मचारी।
रसना गुन कहि न सकै, ऐसि सुधि बिसारी।।
इंद्र सभा थकित भई, लगी जब करारी।
रंभा कौ मान मिट्यौ, भूली नृतकारी।।
जमुना जू थकित भईं, नहीं सुधि सँभारी।
सूरदास मुरली है तीन लोक प्यारी।।
रास के समय इस वेणु के मादक स्वरों के बन्धन में बंधकर स्वयं विधाता वेदपाठ करना भूल गए। शंकरजी का ध्यान टूट गया। वाणी (सरस्वती) अपनी ऐसी सुधि भूली कि वे वेणुनाद का गुणगान ही नहीं कर पा रही है। स्वयं पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग (बलरामजी) पृथ्वी पर चलने लगे। देवताओं के विमान उसे सुनकर स्तब्ध रह गए और देवांगनाएं चित्रलिखी-सी रह गईं। स्वर्ग के संगीत-सम्राट गायक तुम्बरु की दशा विचित्र हो गई। वह आश्चर्यचकित होकर विस्फारित नेत्रों से वृन्दावन की ओर झांककर इसके बारे में जानना चाहता था। ग्रह-नक्षत्र अपनी राशि नहीं छोड़ रहे थे (चल नहीं पा रहे थे) क्योंकि उनके वाहन वंशी-ध्वनि के फंदे में बँध गए थे। चन्द्रमा अपना मार्ग भूल गए। शुक-सनकादि सभी मुनि मोहित हो गए। गन्धर्व, किन्नर आदि–सभी विमुग्ध हो आकाश से पृथ्वी की ओर देखने लगे। नारद का ध्यान टूट गया, इन्द्र की सभा स्तब्ध रह गयी। नृत्यकला भूल जाने से रम्भा का गर्व नष्ट हो गया।
गोपियां आपस में बात करतीं हैं–’हे कृष्ण! तुम्हारी भुवनमोहिनी मुरली के स्वर में कितनी मादकता है; यह नशा शरीर-मन पर ऐसा छा जाता है कि फिर जीवन भर वह कभी उतरता ही नहीं।’
‘आकर्षिणी’ बांसुरी
जब बाँसुरी सोने से बनी हो, उसमें नौ छिद्र हों व छिद्रों व मुखरन्ध्र के बीच की दूरी बारह अंगुल हो तो उसे ‘आकर्षिणी’ बांसुरी कहते हैं।
हीरे, पद्मराग आदि मणियों से जटित श्रीकृष्ण की ‘वंशिका’
ये बांसुरी मणियों से बनी होती है। इसमें आठ छिद्र होते हैं। जब बांसुरी का ऊपरी भाग चार अंगुल का व नीचे का भाग तीन अंगुल का होता है तो उसको ‘वंशिका’ या ‘वंशी’ कहते हैं। माता यशोदा अपने कन्हैया का श्रृंगार कर इसी बाँसुरी को कमरबंद में लगाती हैं।
‘मदन-झंकार’ बांसुरी
कामदेव के चित्त को भी ललचा देने वाली भगवान श्रीकृष्ण की यह बांसुरी ‘मदन-झंकार’ कहलाती है। इसमें छह छिद्र होते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओं को जीत लेने के बाद कामदेव अत्यन्त अभिमानी हो गया था। उसने उन सबके सामने भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने का निश्चय किया। भगवान ने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। रास के समय कामदेव जब अपने दल-बल सहित आया तो भगवान का परम सुन्दर रूप-लावण्य देखकर व ‘मदन-झंकार’ बाँसुरी के उन्मद नाद से धूल में मिल गया। रासलीला भगवान की ‘कामजय-लीला’ है इसीलिए श्रीकृष्ण को ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ अर्थात मन्मथ को भी मथ देने वाले कहते हैं।
मुरली ध्वनि कामबीज है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने आनन्द को ही वंशी-ध्वनि द्वारा व्रज के लोगों में वितरित किया और संसार का मोह छुड़ाकर इस वंशी-ध्वनि ने सारे कामियों को विशुद्ध प्रेमी बना दिया था।