आध्यात्मिक दृष्टि से मानव शरीर परमात्मा का मन्दिर है। इस शरीर में ईश्वर का अंश जीव (आत्मा) रहता है। हिन्दू धर्म में भोजन को यज्ञ माना गया है और इस यज्ञ के देवता हैं भगवान वैश्वानर (जठराग्नि)।
श्रीमद्भगवद्गीता (१५।१४) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
अर्थात्–मैं ही सब प्राणियों के शरीर में प्राण और अपान वायु से युक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के (चर्व्य, चोष्य, लेह्य तथा पेय–जैसे दांतों से चबाकर खाये जाने वाले, चाटकर खाये जाने वाले, निगलकर खाये जाने वाले, और चूस कर खाये जाने वाले) अन्न को पचाता हूँ। अत: हिन्दूधर्म में भोजन केवल पेट भरना ही नहीं बल्कि भगवान की पूजा भी होती है। इसलिए शास्त्रों में भोजन की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है।
भोजन को कैसे बनायें नैवेद्य (प्रसाद)
संसार की सब वस्तुएं भगवान की उत्पन्न की हुई हैं, तब भोजन बनाकर भगवान को अर्पण किए बगैर खाना उचित नहीं हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (३।१२) में कहा गया है–
‘देवता की दी हुई वस्तु उन्हें बिना समर्पण किये जो खाता है, वह चोर है। अत: भगवान को समर्पण करके ही भोजन करना चाहिए।’
श्रीमद्भगवद्गीता (९।२७-२८) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–
‘हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।’
‘इस प्रकार मेरे अर्पण करने से तू सर्वथा मुक्त हुआ मुझे ही प्राप्त हो जाएगा।’
भोजन को भगवान (श्रीकृष्ण, श्रीराम, श्रीविष्णु) को अर्पण करने के लिए तुलसीदल छोड़ा जाता है।
भोजन में तुलसीदल क्यों डाला जाता है?
हिन्दू संस्कृति में घर में भोजन तैयार हो जाने पर सर्वप्रथम तुलसीदल छोड़कर भगवान को भोग लगाया जाता है। इसका वैज्ञानिक रहस्य यह है कि तुलसीदल डालने से भोजन में विद्यमान विषाक्त्तता तुलसी के प्रभाव से नष्ट हो जाती है—
‘तुलसीदल सम्पर्कादन्नं भवति निर्विषम्।’
अत: जब भी भोजन बनाएं उसमें तुलसीदल छोड़कर भगवान को निवेदन करने के बाद ही प्रसाद समझकर ग्रहण करें।
प्रतिदिन अन्नसंस्कार और पंचबलि करना मनुष्य का कर्तव्य
▪️प्रतिदिन भोजन बनाने वाली अग्नि में बगैर नमक के पांच ग्रास देव, भूत, पितृ, मनुष्य और ब्रह्म (ऋषि)–इन पंचभूतों के लिए होम करने चाहिए, इसे बलिवैश्वदेव या अन्नसंस्कार कहते हैं। इन पांचों के सहयोग से ही सबकी पुष्टि होती है। देवता संसार को मनचाहा भोग देते हैं। ऋषि ज्ञान देते हैं, पितर सन्तान का भरण-पोषण करते हैं, मनुष्य सबकी सेवा करता है और पशु-पक्षी, वृक्ष आदि सबके सुख के लिए अपने को समर्पित किए रहते हैं।
▪️ प्रतिदिन घर में जो भोजन बनता है उसमें से एक भाग गोमाता के लिए, दूसरा कुत्ते के लिए, तीसरा कौए को, चौथा देवताओं के लिए व पांचवा भाग चींटी आदि कीट-पतंगों के लिए देना चाहिए।
हिन्दू धर्म में भोजन करने से पहले थाली में से तीन ग्रास निकालने का विधान है जिसका अर्थ है कि सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी, चौदह लोकों के स्वामी और सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को मैं यह अन्न प्रदान करता हूँ।
श्रीमद्भगवद्गीता (३।१३) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सबको भोजन देने के बाद शेष बचा हुआ अन्न यज्ञशिष्ट (यज्ञ का अवशिष्ट) होने के कारण अमृत के तुल्य है, ऐसे अन्न को खाने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। किन्तु जो लोग अपने लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। अर्थात् सबको अपनी कमाई में से हिस्सा देकर फिर बचे हुए को मनुष्य स्वयं के काम में लाता है, वही कर्मयोगी है।
इस प्रकार भारतीय संस्कृति में स्वार्थत्याग करते हुए सभी प्राणियों को अन्न-जल प्रदान कर सेवा करने की परम्परा रही है।
भोजन करते समय करें इस मन्त्र का उच्चारण
भोजन परोसे जाने के बाद यदि अन्नदेवता का स्मरण कर इस मन्त्र का एक बार उच्चारण कर लिया जाए तो भोजन प्रसाद बन जाता है–
‘हे अन्नदेवता! तुम तेज हो, तुम उत्साह हो, तुम बल हो, तुम ही दीप्ति हो, तुम ही चराचर विश्वरूप हो और तुम ही विश्व के जीवन हो, तुम सब कुछ हो। इस भोजन को ग्रहण करने से ये सब गुण हमारे अन्दर आ जाएं।’
सात्विक, राजसिक और तामसी भोजन
श्रीमद्भगवद्गीता (१७।८-१०) में भगवान श्रीकृष्ण ने भोजन को सात्विक, राजसिक और तामसी तीन भागों में विभक्त किया है।
सात्विक भोजन रसयुक्त, चिकना, मन को प्रिय लगने वाला होता है। सात्विक आहार से आयु, बल, उत्साह, आरोग्य, आध्यात्मिक उन्नति व सत्त्वगुण की वृद्धि होती है।
राजसिक भोजन कड़वा, चरपरा, खट्टा, नमकीन, बहुत गर्म, तीखा, रूखा, जलन पैदा करने वाला और रोग उत्पन्न करने वाला होता है। राजसिक आहार से दु:ख, शोक और रोग उत्पन्न होते हैं
तामसी भोजन अधपका, दुर्गन्ध वाला, बासी और जूठन (खाने से बचा हुआ) होता है। तामसिक भोजन से जड़ता, रोग, क्रोध और हिंसात्मक प्रवृति बढ़ती है।
सात्विक मनुष्य भोजन करने से पहले उसके परिणाम पर विचार करता है परन्तु राजसिक मनुष्य की दृष्टि सबसे पहले भोजन पर जाती है, वह उसके परिणाम के विषय में बाद में सोचता है। तामसी मनुष्य में भोजन के प्रति अत्यधिक लगाव रखता है, उसे तो केवल पशु की तरह खाने से मतलब है, परिणाम क्या होगा, इस पर वह विचार नहीं करता है।
‘जैसा अन्न वैसा मन’–शास्त्रों के अनुसार मन इन्द्रियों का स्वामी है। अत: इन्द्रियां जो ग्रहण करती हैं उसका सीधा असर मन पर पड़ता है।
सात्विक व पवित्र भोजन के लिए चार प्रकार की शुद्धियां आवश्यक हैं--१. क्षेत्र ( स्थान) शुद्धि, २. द्रव्य शुद्धि, ३.काल शुद्धि, व ४. भाव शुद्धि।
भोजन पर भावनाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है। क्रोध, ईर्ष्या, उत्तेजना, चिन्ता, तनाव, भय आदि की मानसिक स्थिति में किया गया भोजन शरीर में दूषित रसायन पैदा करता है जिससे शरीर अपच, गैस, एसिडिटी, पेद दर्द आदि विभिन्न रोगों से घिर जाता है। शरीर की पुष्टि के लिए प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए। भोजन बनाने वाले के भावों का भी भोजन पर गहरा असर पड़ता है। घर के सदस्यों द्वारा प्रेम व ममता के भाव से तैयार किया गया सादा भोजन भी परम तृप्ति प्रदान करता है। काल शुद्धि का अर्थ समय पर भोजन करना है। भोजन में द्रव्यशुद्धि भी बहुत महत्वपूर्ण है। अनीति, अनाचार और बेईमानी आदि से कमाये हुए धन से बनाया भोजन कभी मन व बुद्धि पर सात्विक प्रभाव नहीं डाल सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर खायो।’
भीष्मपितामह ने दुर्योधन का पापान्न ग्रहण किया था, इसी से उनका ज्ञान लुप्त हो गया और द्रौपदी के चीरहरण के समय वे द्रौपदी की रक्षा नहीं कर सके।
इस प्रकार हिन्दू धर्म में भोजन तैयार करना और ईश्वर को अर्पण कर प्रसादरूप में ग्रहण करना वास्तव में एक यज्ञ के समान है। रूखा-सूखा साधारण आहार भी यदि कृष्णार्पण या ब्रह्मार्पण कर दिया जाए तो ईश्वरीय तत्वों के मिल जाने से वह नैवेद्य बनकर आश्चर्यजनक शक्ति उत्पन्न कर देता है और प्रसादरूप में सुख, शान्ति, आनन्द व निरोगता देने वाला होता है।