भक्ति की मधुरता
भक्त अपने भगवान की सेवा के अवसर ढूंढता है और रसमय श्रीकृष्ण अपने भक्तों को आनन्द प्रदान करने के लिए लीला करने के अवसर ढूंढते हैं। दोनों में यह अलौकिक स्पर्धा चलती रहती है। भगवान अपने रूप व लीलाओं से भक्त का मन चुराते हैं, और भक्त अपने भाव से ही भगवान को आनन्द देता है। यही भक्ति की मधुरता है।
रसमय ब्रह्म श्रीकृष्ण को रागानुगा (लाड़, मनुहार की) भक्ति अत्यन्त प्रिय है। यही कारण है कि–’जाकी सहज स्वास श्रुति चारी’–जिस ब्रह्म की सांसों से चारों वेद की उत्पत्ति हुई है–वेद जिनका नेति-नेति कहकर वर्णन करते है, जो सूर्य, चन्द्र और तारों को अपने इशारों पर नचाता है; वह परमात्मा प्रेमभक्ति के वशीभूत होकर अपने भक्त से कहता है कि मुझे गर्मी लग रही है, मेरे शरीर पर मलय चंदन का लेप लगाओ, और यहीं से चंदन-यात्रा उत्सव की शुरुआत होती है।
जो माया सब जगहि नचावा।
जासु चरित लखि काहुं न पावा।।
श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी द्वारा श्रीखीरचोर-गोपीनाथजी को चंदनलेप लगाने से शुरु हुआ चंदन-यात्रा उत्सव
भगवान अपने भक्तों के साथ अद्भुत लीलायें करते हैं। एक बार भगवान के महान भक्त श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी गोवर्धन में गोविन्द कुण्ड के पास रहकर तप मे लीन थे। एक दिन उनके स्वप्न में एक बालक ने आकर कहा कि मैं यहां झाड़ी के नीचे दबा हूँ, मुझे बहुत गर्मी लग रही है, मुझे बाहर निकालो। श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी ने गांव वालों की सहायता से स्वप्न में बतायी मूर्ति को जमीन से निकालकर गोवर्धन पर्वत पर गोपाल के रूप में स्थापित कर दिया। एक दिन स्वप्न में उनके द्वारा सेवित श्रीगोपालजी आए और बोले कि उनके अंगों को बहुत गर्मी लग रही है, मलयज चन्दन के लेपन से ये गर्मी दूर हो जाएगी। प्रभु की आज्ञा पाकर प्रेमविभोर हुए श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी गोपालजी की सेवा के लिए सेवक को नियुक्त करके मलयज चन्दन लेने के लिए जगन्नाथपुरी चल दिये। मार्ग में वे रेमुणा पहुंचे जहां श्रीगोपीनाथजी का मन्दिर था। भगवान गोपीनाथ को बारह कटोरे में खीर का भोग लगते देखकर उन्होंने सोचा कि यदि ये प्रसाद मुझे भी मिले तो मैं ऐसा ही अपने गोपाल को बनाकर खिलाऊं। फिर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ कि मैंने भगवान के भोग लगने से पहले ही खीर पाने की इच्छा की। अत: वे मन्दिर से बाहर आकर एक पेड़ के नीचे जप करने लगे। रात्रि में भगवान गोपीनाथ ने पुजारी को स्वप्न में कहा कि मेरा भक्त यहां आया है, उसके लिए मैंने खीर चुराई है। तब से वे श्रीखीर-चोर गोपीनाथ कहलाने लगे।
कुछ समय बाद श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी श्रीजगन्नाथपुरी पहुँचे। उनके पहुचने से पहले ही भगवान गोपीनाथ की खीर-चोरी की बात वहां तक पहुंच गयी। श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी ने श्रीजगन्नाथजी मन्दिर के पुजारी से अपने गोपाल को चंदन का लेप लगाने के लिए चंदन देने की प्रार्थना की। पुजारी उन्हें पुरी के राजा के पास ले गया। सारी बात जानकर राजा ने एक मन (37 किलो) चंदन की लकड़ी और चन्दन को ढोकर ले जाने के लिए एक सेवक तथा एक ब्राह्मण को श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी के साथ भेज दिया।
वापसी में वे पुनः रेमुणा आये। वहाँ उन्होंने श्रीखीर-चोर गोपीनाथजी के सामने बहुत समय तक कीर्तन व नृत्य किया और प्रसाद पाया। उस रात को श्रीगोपालजी माधवेन्द्रपुरीजी के स्वप्न में आये और बोले कि इस चन्दन को घिस कर गोपीनाथजी को लेप करो; मैं और वे एक ही हैं। उनको चन्दन का लेप होने से मुझे शीतलता का अनुभव होगा।
श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी ने सुबह उठ कर सभी को स्वप्न में गोपालजी द्वारा बताई गयी बात सुनाई। गर्मी के समय में श्रीगोपीनाथजी चन्दन-लेप करवाएँगे, यह सुनकर सभी लोगों को बहुत आनन्द हुआ। श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी ने सेवकों को चन्दन घिसने के लिए लगाया। गर्मी के समय में जब तक चन्दन खत्म नहीं हुआ, तब तक श्रीगोपीनाथजी के श्रीअंग में प्रतिदिन चंदन का लेप होता रहा। तभी से चंदन-यात्रा उत्सव शुरु हुआ।
भगवान के रूप और लीलाओं का माधुर्य उनके रसिकजनों में रस उत्पन्न कर उन्हें विमोहित-विस्मित-और विमुग्ध करता रहता है और रसिक भक्त अपने आराध्य के रूपमाधुर्य का दर्शन कर अपने भाग्य की सराहना करते रहते हैं।