अरि तू दे जा दधि को दान,
सुन गूजरि बरसाने की, तज बान ये तरसाने की।
हम नन्दगाँव के ग्वाला, हैं गइयन के प्रतिपाला,
दे जा तू गोरस को दान, सुन गूजरि बरसाने की।
मिल ग्वाल करें झटका पटकी, तेरी फूट जाय दधि की मटकी,
तू क्यों रही झगड़ो ठान, सुन गूजरि बरसाने की।
मोहन के तनिक इशारे, दधि लूटो बीच बजारे,
सब ग्वाला करि रहे रार, सुन गूजरि बरसाने की।
सब मटकी कर दई खाली, सब ग्वाल हँसें दे ताली,
नन्दलाल लगे मुसकान, सुन गूजरि बरसाने की।
तोरे कारण ब्रज में आयो, बैकुण्ठ धाम बिसरायो,
अरी तू काहे करे गुमान, सुन गूजरि बरसाने की।
भगवान श्रीकृष्ण का व्रज में आनन्द-अवतार है। उनकी व्रज की लीलाएं भक्तों को आनन्द और प्रेम बांटने के लिए हुईं हैं। इसी कारण नन्दरायजी के यहां नौ लाख गायें होने पर भी वे गोपियों से कहते हैं–
ग्वालिनी मीठी तेरी छाछ।
कहा दूध में मेलि जमायो सांचि कहुं किन बाछि।।
द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वालबालों के साथ बरसाना और चिकसौली के मध्य ‘सांकरी खोर’ नामक संकरी गली में तथा गोवर्धन स्थित ‘दानघाटी’ में गोपियों से दही-माखन का दान लिया था। इसी स्थान पर श्रीकृष्ण ने व्रजगोपियों को अपना गौरस (दूध, दही, माखन, छाछ) मथुरा जाकर बेचने से रोका था। भगवान श्रीकृष्ण की इस लीला का उद्देश्य था–व्रजवासियों का दूध-दही-माखन व्रजवासी ही खाएं और बलिष्ठ बनें। व्रज का गौरस कंस और उसके अत्याचारियों को ना मिले।
श्रीराधा द्वारा दानघाटी में श्रीकृष्ण को हार दान देने सम्बन्धी लोककथा
एक बार श्रीराधाजी अपनी सखियों के साथ गोवर्धन स्थित गोविंदकुण्ड पर ऋषियों द्वारा आयोजित यज्ञ के लिए गौरस से भरे कलश सिर पर रखकर जा रहीं थी। नटवरनागर श्रीकृष्ण ने उन्हें रोक लिया और कहा कि चुंगी (दान) देने के बाद ही वह आगे जा सकती हैं। श्रीराधा ने कहा–’हवन-सामग्री में से दान कैसे दिया जा सकता है, यज्ञ में अवशिष्ट (जूठन) को अर्पित नहीं किया जाता।’ परन्तु श्रीकृष्ण ने अपनी हठ नहीं छोड़ी और श्रीराधा से दान लेने पर अड़े रहे। यज्ञ में पहुंचने में विलम्ब न हो इसके लिए श्रीराधा ने अपने गले का हार श्रीकृष्ण को दान में दे दिया। कहते हैं कि श्रीराधा द्वारा श्रीकृष्ण को दिए गए दान के कारण ही इस स्थान का नाम ‘दानघाटी’ पड़ा और व्रज में यही वह स्थान है, जहां श्रीकृष्ण और श्रीराधा का प्रथम मिलन हुआ।
बरसाने की चली गुजरिया कर सोलह श्रृंगार।
उदविल कान्हा धेनु चरावै लूट लियौ नौलक्खा हार।।
श्रीकृष्ण का गोपियों से दधि का दान मांगना
बरसाने की गोपियों से गौरस का दान लेने के लिए श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ उनका मार्ग रोकते थे। इस लीला की एक झांकी यहां दी जा रही है, जिसमें बीच-बीच में व्रजभाषा का भी प्रयोग किया गया है ताकि लीला की मिठास का अनुभव हो सके; परन्तु समझने के लिए उसका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है–
बरसाने की ओर से श्रीराधा अपनी सखियों के साथ आपस में बतियाती-इठलाती सिर पर दधि-माखन की चिकनी-चुपड़ी मटुकियों को रखकर दानघाटी की ओर चली आ रहीं हैं। काले-कजरारे नुकीले नयनों में कटीला कजरा डाले, माथे पर लाल-लाल बड़ी-सी बिन्दी, गोरे-गोरे सुडौल शरीर पर घुमेरदार रंगरगीला लहंगा और उस पर लहराती-फहराती टेसू के फूलों के रंग में रंगी चुनरी, घूंघट में से झांकती तिरछी चितवन। ऐसा लग रहा था मानो रंग-बिरंगी घटाएं आकाश से उतरकर व्रज की हरियाली धरती पर उमड़ती-घुमड़ती चली आ रहीं हैं। सोने और चांदी के आभूषणों से लरकती-मटकती ये गोपियां जब कान्हा और उसकी टोली के भय से जल्दी-जल्दी कदम बढ़ातीं तो इनके कंगनों, कमर की कौंधनियों और पैरों में पहनी झांझर-बिछुओं की रुनझुन कदम्बवृक्ष पर बैठे कन्हैया के कानों में एक अपूर्व माधुर्यरस उडेल देती और वे अपने सखाओं को पुकार उठते–
आओ आओ रे सखा,
घेरौ घेरौ रे सखा।
दही लैके ग्वालिन जाय रही,
सब गोपी चलीं न जाय कहीं।
दूध दही के माट भरे हैं,
माखन अपने सीस धरे हैं।
मैंने जानी रे सखा,
पहचानी रे सखा।
सौंधी-सी सुगन्ध है आय रहीं,
सब गोपी चलीं न जाय कहीं।।
कान्हा अपने सखाओं को शीघ्रता से गोपियों को घेर लेने के लिए पुकारते–’अरे ओ सुबल ! अरे सुदामा ! ओ मधुमंगल ! धाऔ धाऔ (दौड़ो दौड़ो), कहीं ये ग्वालिन निकसि न जायं ( दूर न चली जाएं)। इनकी राह में अपनी-अपनी लकुटियां कूं टेक देओ (अपनी-अपनी लकड़ी से इनका रास्ता रोक दो)।
श्रीकृष्ण के इतना कहते ही सभी सखाओं की टोली यहां-वहां से लदर-पदर आ निकली। उस समय की नयनाभिराम झांकी का वर्णन बड़ा ही रसमय और मन को गुदगुदाने वाला है–
दान की खातिर या ब्रज आयौ छांड़ दियौ बैकुण्ठ सौ धाम।
एक तरफ तो सकुचाता-लजाता, गोरस की मटकियों को सिर पर रखे कुछ ठगा-सा, कुछ भयभीत पर कान्हा की रूपराशि पर मोहित व्रजवनिताओं का झुण्ड और दूसरी ओर चंदन और गेरु से मुख पर तरह-तरह की पत्रावलियां बनाए, कानों में रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छे लटकाए, गले में गुंजा की माला पहने, हरे-गुलाबी अगरखा (छोटा कुर्ता) पर कमर में रंग-बिरंगे सितारों से झिलमिलाते फेंटा कसे, मोरपंखों से सजी लकुटिया (बेंत) लिये ग्वालबालों सहित श्रीकृष्ण का टोल (दल)।
श्रीकृष्ण ने ग्वालबालों के साथ गोपवधुओं को चारों ओर से घेर लिया और उनके आगे पैर रखकर खड़े हो गए।
ठाड़ी रहै ग्वालिनी दै जा हमारौ दान।
यही दान के कारण छोड़ आयौ बैकुंठ सौ धाम।।
तभी एक ग्वालिन चित्रासखी ने हिम्मत करते हुए कान्हा से कहा–’क्यों जी! क्या बात है हमारी गैल (रास्ता) क्यों रोकौ हौ? दूध दही नाय तेरे बाप की और यह गली नाय तेरे बाप की, छाछ हमारी वो पीवै जो टहल करै सब दिना की।’
तुरन्त हाजिरजबाव कान्हा ने कहा–’या दानघाटी पर हमारौ दान होय है। चतुराई त्यागौ और दान दै जाओ।’
ब्रजेन्द्रनन्दन का इतना कहना था कि तपाक से एक चतुर ग्वालिन चन्द्रावली ने उत्तर दिया–’अजी दान काहे बात कौ? यहां के राजा तो श्रीवृषभानुजी हैं। हटौ हमारी रस्ता छोड़ौ, नहीं तो मथुरा में जाय कै कंस से कहि दीनी जाएगी। सबरी खबर परि जाएगी लाला कूं। दान देओ जाय दान (दान दो इसको दान)।’
तभी दूसरी गोपी बोली–
मोहन में गूजर बरसाने की,
मौते नाहक माड़ी रार।
पांच टका की कामर ओढ़ै तापर करत गुमान।।
गाय चरावत नन्द की, मोपै मांगत दधि कौ दान,
रतन जटित मेरी ईडुरी, हीरा लगे करोर।
इक हीरा गिरि जायगौ, तेरी सब गैयन कौ मोल।।
अर्थात्–गोपी श्रीकृष्ण से कह रही है–’हे मनमोहन! मैं बरसाने की ग्वालिन हूँ, मुझसे बेकार में झगड़ा मत कर। तूने केवल पांच टके का कम्बल ओढ़ रखा है, उस पर इतना घमण्ड! तुम नन्दबाबा की गाय चराते हो और मुझसे दान मांगते हो ! देखो लाला ! हाथापाई करोगे तो तुम जानो। हीरों से जड़ी ये मेरी ईडुरी (सिर पर मटकी रखने के लिए गोल पहिया जैसा) है जिसमें करोड़ों के हीरे लगे हैं, यदि इसमें से एक भी निकल कर कहीं गिर गया तो देख लेना। तुम्हारी सब गायों की कीमत भी इतनी नहीं होगी।’
तू कहा जाने बाबरी मैं त्रिभुवन को राय।
जड़ जीव जल-थल में बसों घट-घट रह्यौ समाय।।
तू तो ग्वालि गमार कहा मोकुं समझावे।
सिव विरंचि सनकादि निगम मेरो अंत न पावे।।
भक्तन की रक्षा करों दुष्टन करों संहार।
कंस केस ग्रहि मारहहूं धरती उतारों भार।।
ब्रह्मरूप उत्पन्न करुं रुद्ररूप संहार।
विष्णुरूप रक्षा करुं, हम हैं नंदकुमार।।
कन्हैया ने कहा–’तू बाबरी क्या जाने, मैं तो त्रिलोकी का राजा हूँ। जड़, जीव, जल-थल सबमें मैं समाया हुआ हूँ। ब्रह्मा, शंकर, सनकादि ऋषि भी मेरा पार नहीं पाते। तू गंवार ग्वालिन मुझे क्या समझाती है। मैं अपने भक्तों की रक्षा और दुष्टों का संहार करता हूँ। कंस के तो केश पकड़ कर मैं पृथ्वी का भार उतार दूंगा। ब्रह्मारूप में सृजन, शिवरूप में संहार और विष्णुरूप में जगत की रक्षा–मैं नन्दकुमार ही करता हूँ।’
गोपी कंस के नाम पर कन्हैया को धमकाती है–
कंस राजा से करूँ गुहार,
बँधा के फिर लगवाऊँ मार।
तेरी ठकुराई देऊँ निकार,
जुल्मी फिर तू डरे, हरे ना नार बिरानी रे।।
इस पर एक सखा बोला–’कन्हैया! बात बनाना तो इस गोपी को बहुत आता है। कन्हैया! तू सुन रहा है ये गोपी क्या कह रही है?’
कन्हैया ने अपने साथी की बात सुनकर गोपी से कहा–’अच्छा तो तू धोंस दे रही है और वो भी उस कंस की।’ कंस की धोंस भला कन्हैया को कैसे सहन होती। कन्हैया ने कहा–‘मैं गौओं की शपथ खाकर कहता हूँ, उस कंस को मैं उसके बंधु-बांधवों सहित मार डालूंगा।’ बस होने लगी दोनों में परस्पर मधुर ऐंचातानी (खींचतान)–
कंस क्या बलम लगे तेरा,
वो चूहा क्या कर ले मेरा।
गर कभी उसको जा घेरा,
कर दूँगा निर्वंश, मिटा दूँ नाम-निशानी रे।।
और छैल-छबीले कन्हैया ने एक हाथ से ग्वालिन का कंगन और दूसरे से आंचल पकड़ लिया और बोले कि बहुत दिनों तक तुम सब ग्वालिन दान देने से बच गयीं पर आज मैं पूरा हिसाब करुंगा–
एक भुजा कंगन गह्यौ, एक भुजा गहि चीर।
दान लेत ठाड़े भये गहबर कुंज कुटीर।।
बहुत दिना तुम बचि गयी हो दान हमारो मार।
आज लेउंगो अपनो दिन दिन को दान सम्हार।।
गोपी ने कन्हैया को ताना मारते हुए कहा–’नंदबाबा भी गोरे हैं और जसुमति मैया भी गोरी हैं, तुम इन्हीं लक्षणों (करतूतों) के कारण सांवरे हो।’
कान्हा से पीछा छूटता न दिखने पर एक चतुर गोपी बोली–’मेरे कन्हैया ! हम तुम पर बलिहारी जाती हैं। कल हम बहुत सारा गौरस लेकर आयेंगी तब तुम्हें चखायेंगी। हमारे जीवनधन! आज हमें जाने दो।’ पर कन्हैया जब पकड़ता है तब क्या कोई सरलता से छूट सकता है? कन्हैया ने गोपी से कहा–
सुनि राधे! नव नागरी हम न करै बिसवास।
कर कौ अमृत छाड़ि कै, करे काल्हि की आस।।
तेरौ गौरस चाखिवे, मेरौ मन ललचाय।
पूरन ससि कर पायकै, चकोर न धीर धराय।।
कन्हैया ने कहा–हमें तुम पर विश्वास नहीं है। तुम्हारे गौरस को चखने के लिए मेरा मन बहुत ललचा रहा है। हाथ में आये अमृत को छोड़कर कल की आशा करना व्यर्थ है। पूर्ण चन्द्र को पाकर चकोर धैर्यवान बना रहे, यह तो असम्भव है! हुआ भी वही–नयनों से नयनों का मिलन हुआ। यह सांकरी खोर श्रीप्रिया-प्रियतम के प्रेमरस की लूट की अनोखी दान स्थली बन गयी, जहां श्यामसुन्दर अपनी प्यारीजू और उनकी सखियों को दान के लिए रोका करते थे।
गोपियां आपस में कहने लगीं–’यह नन्द का लाला तो बड़ा ढीट और निडर है। गांव में तो निर्बल बना रहता है और वन में आकर निरंकुश बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी से इसकी करतूत कहती हैं।’ पर मन-ही-मन अपने प्यारे कन्हैया के प्रेम में मग्न होकर उनके आगे समर्पण करती हुई कहती हैं–
तुम त्रिभुवन के नाथ जोई करो सो जिय भावे।
तिहारे गुन अरु कर्म कछु हम कहत न आवे।।
मटकी आगे धरी परी स्याम के पाय।
मन भावे सो लीजिए बचे सो बेचन जाय।।
नन्दनन्दन ने ग्वालबालों के साथ सबके दहीपात्र भूमि पर पटक दिए। फिर श्रीकृष्ण और सखाओं ने कदम्ब व पलाश के पत्तों के दोने बनाकर टूटे पात्रों से दही लेकर खाया। तब से वहां के वृक्षों के पत्ते दोने के आकार के होने लग गए और यह जगह ‘द्रोण’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। आज भी यहां दही दान करके स्वयं भी पत्ते में रखकर दही खाना बहुत पुण्यमय माना जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण की दानलीला भक्तों को परमसुख देने वाली है। हिंदी साहित्य के तमाम कृष्णभक्त कवियों ने इस लीला को और भी सजीव बना दिया है। इस लीला को पढ़ने में जितना आनंद प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक देखने और सुनने से मिलता है। सांकरी खोर नामक स्थान पर इस लीला का आयोजन किया जाता है।
बरसाना के लोग राधाजी का, चिकसौली के लोग चित्रासखी का और नंदगांव के लोग श्रीकृष्ण और ग्वालों का प्रतिनिधित्व करते हुए सांकरी खोर पर पहुंचते हैं। लीला का आयोजन किया जाता है। चित्रासखी के गांव से आई मटकी पर नंदगांव के ग्वाल टूट पड़ते हैं। छीनाझपटी में मटकी टूट जाती है। श्रद्धालुओं में मटकी प्रसाद की होड़ लग जाती है।