मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन:।
तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।। (स्कन्दपु. वै. खं. का. मा. १।१४)
अर्थात्–भगवान विष्णु एवं विष्णुतीर्थ के समान ही कार्तिकमास को श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है।
सामान्य रूप से सूर्य के तुलाराशि पर आते ही कार्तिकमास आरम्भ हो जाता है। कलियुग में कार्तिक मास चारों पुरुषार्थों–धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को देने वाला, रोगविनाशक, सद्बुद्धि देने वाला, लक्ष्मी का साधक तथा दु:खों से मुक्ति प्रदान करने वाला माना गया है। ऐसा माना जाता है कि कार्तिक स्नान-व्रत करने वाले मनुष्य के शरीर में सारे तीर्थ निवास करते हैं और उसे देखकर यमदूत उसी प्रकार पलायन कर जाते हैं जैसे सिंह से पीड़ित हाथी भाग खड़े होते हैं। कार्तिकमास के स्नान-व्रत की महिमा को स्वयं भगवान नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने राजा पृथु को बतलाया था।
कार्तिकमास में किए जाने वाले प्रमुख कार्य
हरि जागरणं प्रात:स्नानं तुलसिसेवनम्।
उद्यापनं दीपदानं व्रतान्येतानि कार्तिके।।
- कार्तिकमास श्रीराधादामोदर की विशेष उपासना का मास है।
- कार्तिकमास में ब्राह्ममुहुर्त में स्नान और प्रतिदिन अपनी सामर्थ्यानुसार अन्नदान करना चाहिए।
- कार्तिकमास में पूरे महीने दीपदान किया जाता है व संध्याकाल में आकाशदीप जलाया जाता है। आकाशदीप देते समय इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए–’दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च। नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम्।।’
- कार्तिकमास का एक प्रमुख कार्य तुलसी पूजन-आराधना व सायंकाल में तुलसी के चौबारे में दीप जलाना है।
- कार्तिकमास में भूमि पर शयन किया जाता है इससे सात्विकता में वृद्धि होती है और भगवान के चरणों में सोने से जीव भयमुक्त हो जाता है।
- कार्तिक व्रती के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है।
- कार्तिक व्रती को द्विदल (दालों) का व तामसी पदार्थों का त्याग करना चाहिए।
- विष्णु संकीर्तन, गीता, श्रीमद्भागवत व रामायण के पाठ आदि से इस मास में विशेष फल मिलता है।
- इनके अलावा कार्तिकमास में दान का विशेष महत्व बतलाया गया है।
कार्तिकमास के स्नान-व्रत-नियम पालन से सत्यभामाजी को भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति
पद्मपुराण की कथानुसार त्रेतायुग में हरिद्वार में देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे जो सूर्य की आराधना करके सूर्य के समान तेजस्वी हो गए। उनकी गुणवती नामक एक पुत्री थी। एक बार देवशर्मा अपने जामाता चन्द्र के साथ पर्वत पर कुश और समिधा लेने गये। वहां एक राक्षस ने उनकी हत्या कर दी। पिता और पति की मृत्यु से गुणवती अनाथ हो गयी। वह भगवान को अपना नाथ मानकर दो व्रतों का पालन करती थी–एक था एकादशी का उपवास और दूसरा कार्तिकमास के स्नान आदि नियमों का पालन। कार्तिक के महीने में सूर्य जब तुला राशि पर रहते हैं, तब वह प्रात:काल स्नान करती थी, दीपदान और तुलसी की सेवा तथा भगवान विष्णु के मन्दिर में झाड़ू दिया करती थी। प्रतिवर्ष कार्तिक-व्रत का पालन करने से मृत्यु के बाद वह वैकुण्ठलोक गयी।
पृथ्वी का भार उतारने के लिए जब भगवान ने कृष्णावतार लिया, तब उनके पार्षद यादवों के रूप में अवतीर्ण हुए। गुणवती के पिता देवशर्मा सत्राजित् हुए। गुणवती उनकी पुत्री सत्यभामा हुई। चन्द्र ब्राह्मण अक्रूर हुए। पूर्वजन्म में गुणवती ने भगवान के मन्दिर के द्वार पर तुलसी की वाटिका लगा रखी थी इसके फलस्वरूप सत्यभामाजी के आंगन में कल्पवृक्ष लगा हुआ था। गुणवती ने कार्तिक में दीपदान किया था, उसके फलस्वरूप उसके घर में लक्ष्मी स्थिररूप से रह रही थीं। गुणवती ने सभी कर्मों को परमपति भगवान विष्णु को समर्पित किया था, इसलिए सत्यभामा बनकर भगवान श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त किया और भगवान से उनका कभी वियोग नहीं हुआ।
कार्तिकमास में भगवान विष्णु और वेदों का जल में निवास
समुद्र के पुत्र शंखासुर ने देवताओं को पराजित करके स्वर्ग से निकाल दिया। शंखासुर जानता था कि देवता मन्त्रबल से प्रबल बने रहते हैं। अत: उसने वेदों का अपहरण कर लिया। सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण में जाकर उन्हें गीतों, वाद्यों और मंगल कार्यों से प्रसन्न किया। भगवान ने देवताओं से कहा कि कार्तिक के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी के दिन जो व्यक्ति गीत, वाद्य और मंगल कार्यों से मेरी आराधना करेंगे, वे मुझे प्राप्त करेंगे। शंखासुर के द्वारा जो वेद हरे गये हैं, वे जल में स्थित हैं। मैं उन्हें ले आता हूँ। आज से प्रतिवर्ष कार्तिकमास में मन्त्र, बीज और यज्ञों से युक्त वेद जल में निवास करेंगे और मैं भी जल में निवास करुंगा। इसलिए कार्तिकमास में जो प्रात:स्नान करते हैं, वे सचमुच अवभृथ-स्नान करते हैं।
भगवान ने मत्स्यरूप धारण कर शंखासुर का वध किया और शंख को बदरिकाश्रम ले गये। भगवान ने ऋषियों को जल से वेदों को ढूंढ़ निकालने का आदेश दिया। तब तक वे देवताओं के साथ प्रयाग में ठहरे। जिस वेद के जितने मन्त्र जिस ऋषि ने पाए, वही उतने भाग का तब से ऋषि माने जाने लगा। सब मुनियों ने वेदों को भगवान विष्णु को अर्पण किया। यज्ञसहित वेदों को पाकर ब्रह्माजी को बहुत हर्ष हुआ। देवताओं ने भगवान से कहा–’इस स्थान पर ब्रह्माजी को खोये हुए वेदों की प्राप्ति हुई है और हमें भी यज्ञभाग प्राप्त हुआ है, अत: यह स्थान पृथ्वी पर सबसे अधिक श्रेष्ठ और पुण्यवर्धक हो। इसमें दिया हुआ सभी कुछ अक्षय हो–ऐसा वर दीजिए।’ भगवान ने सभी देवताओं की इच्छा पूर्ण की। तभी से प्रयाग को ‘ब्रह्मक्षेत्र’ व ‘तीर्थराज’ होने का वर प्राप्त हुआ।
व्रज में कार्तिक स्नान
उत्तर भारत में व्रज में कार्तिक स्नान की विशेष परम्परा है। इसका महत्व इसी से सिद्ध होता है कि पूरे कार्तिक मास में देश से ही नहीं वरन् विदेशों से भी हजारों भक्त मथुरा-वृन्दावन में आकर निवास करते हैं और कार्तिक-स्नान-व्रत का नियम धारण करते हैं। कार्तिक का पूरा महीना स्नान, व्रत-नियम व राधा दामोदर, तुलसी-शालिग्राम के पूजन के लिए प्रसिद्ध है। यह एक प्रकार का व्रत है जो भक्त आरोग्य, सम्पत्ति, संतान सुख व मोक्ष आदि मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए करता है। कार्तिक स्नान का आधार पौराणिक है परन्तु विधान बड़ा भावनात्मक व लोक संस्कृति के अधिक निकट है।
व्रज में कार्तिक-स्नान का लोक-सांस्कृतिक रूप
व्रज में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक पूरे कार्तिकमास भर स्त्रियां ठिठुरती शीत में भोर होते ही तारों की छांह में स्नान के लिए घर से निकल पड़ती हैं। उस नि:स्तब्ध प्रात:कालीन बेला में जब कार्तिक स्नान के मधुर लोकगीतों की स्वरलहरियां गूंजती हैं तब समस्त वातावरण भक्तिमय हो उठता है।
कार्तिक स्नान के लिए स्त्रियां ब्राह्ममुहुर्त में उठकर भजन गाती हुई किसी नदी, तालाब, कुएं या पोखर पर जाती हैं। (वर्तमान समय में नदियों के प्रदूषित होने से घर में ही स्नान के जल में गंगाजल या यमुनाजल डालकर गंगा-यमुनाजी का ध्यान करके तारों की छांह (ब्राह्ममुहुर्त) में स्नान किया जा सकता है।)
स्नान करने से पूर्व स्त्रियां जल को कंकड़ी डालकर या हाथों से हिलाकर जगाती हैं। उनका विश्वास होता है कि उस समय जल सुप्तावस्था में होता है। जल को जगाकर स्नान करती हुई गाती हैं–
धोये शीस मिले जगदीश, धोये नैन मिले चैन।
धोये कान मिले भगवान, धोये मुख मिले सुख।
धोये कंठ, मिले वैकुण्ठ, धोये बैंया मिले कन्हैया।।
स्नान करते हुए वे तुलसा, शालिग्राम, गौरा, महादेव, राधाकृष्ण, गंगा-जमुना, चन्दा-सूरज, विश्रामघाट, नित्य नैम, सुवरन काया, पांच महात्म्य, कार्तिक मास, माता पिता, सती-सुहागिन और सहेलियों से लेकर भूले बिछड़ों तक के नाम के गोते लगाती हैं।
मैं न्हाई मेरी धोती न्हाई, मैं न्हाई नारायण हेतु।
धोती न्हाई मेरे हेतु, मानिक मोती ले घर जाऊं।।
इसके बाद कार्तिक स्नान की पूजा आरम्भ होती है। राधा दामोदर, तुलसीजी, बड़-पीपल, आंवला, केला के वृक्ष, पथवारी आदि की जल, रोली, चावल, पुष्प से पूजाकर भोग लगाती हैं, धूप-दीप व परिक्रमा की जाती है। पूजा करते समय पांचों पंडे (पांडव) छठे नारायण के नाम लेती हैं। कार्तिक स्नान का प्रत्येक कृत्य गीतमय होता है। जैसे–
घिस घिस चन्दन भरी है कटोरी
श्रीराधादामोदर को तिलक लगाओ।
बेला चमेली के फूल मंगाओ।
श्रीराधादामोदर को हार पहनाओ।
छप्पन भोग छत्तीसों व्यंजन,
श्रीराधादामोदर को भोग लगाओ।
सोने की झाड़ी गंगाजल पानी,
श्रीराधादामोदर को अचमन कराओ।
पूजन के बाद कार्तिक-स्नान करने वाली स्त्रियां गीत गाती हैं व कार्तिक स्नान, तुलसाजी, राम-लक्ष्मण, गणेशजी, विश्राम देवता, नित्य नैम, धर्मराज, पथवारी, जपिया-तपिया, पकौड़ी, पार बांधने, घुन-सुरहरी आदि की कहानियां कहती हैं। शाम को तुलसीजी और भगवान के आगे दीपक जलाया जाता है।
कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक के पांच दिन ‘पंचमीका’ कहलाते हैं। पंचमीकाओं में कार्तिक स्नान का विशेष माहात्म्य माना जाता है। यदि पूरे कार्तिक मास स्नान न कर केवल पंचमीकाओं में ही स्नान कर लिया जाए तब भी पूरे मास स्नान करने का फल मिलता है।
तुलसी पूजन
कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां प्रतिदिन तुलसी के पौधे पर जल व रोली चढ़ाकर दीपक जलाती हैं और परिक्रमा करती हैं। तुलसी की स्तुति में ‘तुलसा’ गीत गाती हैं।
तुलसा महारानी नमो नमो,
हरि की पटरानी नमो नमो,
ऐसे का जप किए रानी तुलसा,
सालिग्राम बनी पटरानी बनी महारानी। तुलसा…
आठ माह नौ कातिक न्हायी,
सीतल जल जमुना के सेये
सालिग्राम बनी पटरानी बनी महारानी। तुलसा…
छप्पन भोग छत्तीसों व्यंजन,
बिन तुलसा हरि एक न मानी,
सांवरी सखी मैया तेरो जस गावें,
कातिक वारी मैया तेरो जस गावें
इच्छा भर दीजो महारानी। तुलसा …
चन्द्र सखी भज बालकृष्ण छवि,
हरि चरणन लिपटानी। तुलसा …
तुलसा-पूजन व गाने से जन्म-जन्मान्तर के पाप दूर हो जाते हैं। कुमारी कन्या को सुन्दर वर, स्त्री को संतान व वृद्धा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी तथा भगवान विष्णु के प्रतीक शालिग्राम का धूमधाम से विवाह रचाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि तुलसी को कार्तिक स्नान करने से श्रीकृष्ण (शालिग्राम) वर के रूप में प्राप्त हुए थे। वैसे तो नित्यप्रति ही तुलसी पूजन कल्याणमय है किन्तु कार्तिक में तुलसी पूजा की विशेष महिमा है। तुलसी विष्णुप्रिया कहलाती है अत: तुलसीपत्र व मंजरियों से भगवान का पूजन करने से अनन्त लाभ मिलता है।
कार्तिक स्नान व व्रत के कुछ विशिष्ट नियम
कार्तिक स्नान-व्रती के लिए कुछ विशिष्ट नियमों का निर्देश किया गया है। इनके अनुसार बिना नमक का भोजन और साठी के चावल खाने चाहिए, भूमि पर शयन करना चाहिए। कार्तिक के चारों रविवार तथा दो एकादशियों को व्रत रखना व नवमी को आंवले के वृक्ष की पूजा करके ब्राह्मण भोजन कराने चाहिए। एक लोकगीत में इसका बहुत सुन्दर वर्णन है–
राधा दामोदर बलि जइये।
राधा बूझैं बात कृष्ण सौं कैसे कार्तिक नहिये,
नोनु तैल को नैमु लयो ऐ अलोनेई भोजन करिये,
नोनु तैल को नैमु लयो ऐ,
घीउ सुरहनि की खइये।
मूंग मनोहर को नैमु लयो ऐ,
साठी के चामर खइये।
खाट पिढ़ी को नैमु लयो ऐ,
धरती पर आसन करिये।
चारि ऐतवार व्दै एकादशी, इतने व्रतन कूँ रहिये।
कातिक मास उज्यारी सी नौमी, आमले तरु जइये,
जोड़ी जोड़ा नीति जिमइये, इच्छा भोजन पइये।।
तुलसी विवाह के दिन श्रद्धानुसार राधा दामोदर के प्रतीक रूप में तीस, पांच या कम-से-कम एक ब्राह्मण-ब्राह्मणी को भोजन कराया जाता है और वस्त्रादि दान में देते हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कार्तिकमास का महत्व
प्रात:काल जल्दी उठना, सूर्योदय से पहले स्नान, संयमित व सात्विक भोजन, मन सात्विक विचारों से ओत-प्रोत रहना, दया-करुणा आदि सभी मनुष्य के उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। इसीलिए कार्तिकमास को रोगविनाशक कहा गया है। तुलसीवृक्षों को लगाना और उनका पालन करना, पीपल, आंवला का पूजन से पर्यावरण शुद्ध होता है। गोपूजा, गंगा-यमुना में स्नान और पूजन, गोवर्धन पूजा आदि से मनुष्य प्रकृतिप्रिय बनता है, वह भी उत्तम स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है।
इस प्रकार कार्तिक स्नान-व्रत का अनुष्ठान श्रद्धा-भक्ति की मधुरतम अनुभूतियों का प्रतीक है।
यह बर मागऊँ कृपानिकेता ! बसहु हृदय श्री अनुज समेता !! जय सियाराम
बहुत सुन्दर एवं सराहनीय I