नारायण बैकुण्ठ मँहँ बैठे करत विचार।
बनै बहानो अस कछू, लूँ भूतल अवतार।।
विविध रूप धरि के करूँ, लीला को विस्तार।
जीवन के उद्धार हित, होय बड़ो आधार।।
जीव हमारे अंश हैं, भटकत जगत मँझार।
गाय-गाय लीला ललित, उतरैं भव से पार।।
कोटिकाम, लावण्यधाम, घनश्याम, गोपीजनों के अभिराम, श्यामसुन्दर, लीलानट गोपाल-वेषधारी श्रीकृष्ण अपने भक्तों को प्रेमरस का दान करने के लिए संसाररूपी रंगमंच पर उतरते हैं और अपनी क्रीड़ास्थली को रस से सराबोर कर देते हैं। उनकी लीलाओं से ब्रह्मानन्द का उल्लास पैदा होता है। जिसे एक बार उस रस का चस्का लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिए लालसा ही नहीं रह जाती है। वह इतना अद्भुत दिव्यरस है कि कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो जाता है।
लीलानट श्रीकृष्ण और गोपियां
एक बार संसारोत्तारक, श्रीराधा के मनरूपी सरोवर में हंसरूप से रमण करने वाले, वंशीनिनाद में ‘क्लीं’ बीज का उच्चारणकर गोपीजनों के मन को हरण करने वाले, पूर्ण पुरुषोत्तम परमात्मा श्रीकृष्ण यमुना-तट पर विराजमान थे। श्रीकृष्ण के वंशी के अमृतनाद को पशु-पक्षी, लतासमूह और वृक्षावलियां–सभी नि:शब्द हो एकात्मभाव से श्रवण करके अपने को धन्य मान रहे थे। ऐसे उन मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर की सेवा करने के लिए वृन्दावन की गोपियां नित्य उत्सुक रहतीं थीं।
गोपियों का हृदय प्रतिक्षण यही पुकारा करता–’कैसे हमारे प्रियतम श्रीकृष्ण सुखी हों! ये धन-धाम, ये मन-प्राण, ये देह-गेह कैसे कन्हैया को सुख पहुंचाने वाले हों।’ गोपियों के मन के यही भाव उन्हें बहुत ऊंची स्थिति में पहुंचा देते हैं। घर-गृहस्थी के सभी प्रपंचों को भूलकर गोपियों का मन एकमात्र श्रीकृष्ण में ही लीन रहता था। यदि वे थोड़े समय भी श्रीकृष्ण को न देखतीं तो उनका चित्त विह्वल हो जाता और वे बाबली हो जातीं। श्रीकृष्ण ने अपने अलौकिक सौन्दर्य से गोपियों की आंखों का आकर्षण किया है। वंशी से गोपियों के कानों का आकर्षण किया है। अलौकिक लीलाओं से गोपियों के मन का आकर्षण किया है। गोपियों की दृष्टि में केवल चिदानन्दस्वरूप प्रेमास्पद श्रीकृष्ण हैं, बस और कुछ नहीं। उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत आ गया है।
माथे पै मुकुट देखि, चंद्रिका-चटक देखि,
छबि की लटक देखि, रूपरस पीजिए।
लोचन बिसाल देखि, गरे गुंजमाल देखि,
अधर रसाल देखि, चित्त चाव कीजिए।।
कुंडल हलनि देखि, अलक बलनि देखि,
पलक चलनि देखि सरबस ही दीजिए।
पीतांबर छोर देखि, मुरली की घोर देखि,
साँवरे की ओर देखि देखिबोई कीजिए।।
गोपियों का यह माधुर्यरस कितना भाग्यशाली है! नन्दनन्दन को छोड़कर कोई दूसरा उनके कटाक्षों के मर्म को नहीं जान सकता। वे अपनी वंशी की सुरीली तान पर समस्त गोपांगनाओं के चित्तापहारक (मन को हरण करने वाले) हैं। गोपियां मुझे देखें, मुझे सुनें, मन में रख लें। गोपियां मेरी ही बातें करें। श्रीकृष्ण ने परमानन्द को दान देने के लिए गोपियों के साथ लीला की हैं। कोई कहे कि श्यामसुन्दर आ रहे हैं तो व्रजांगनाएं ऐसी पुलकित और प्रमुदित हो जातीं कि उनके गहने हाथों में ठस जाते। श्रीकृष्ण में ही उन्हें सम्पूर्ण जगत अवस्थित दिखता था। अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को उत्तमोत्तम (अच्छे व सुस्वादु) भोजन कराने में, उनको लाड़ लड़ाने में, उनसे वार्तालाप करने में तथा उनका नित्य दर्शन करने में ही गोपियां परमानन्द का अनुभव करतीं थीं।
एक बार सभी गोपियों ने मिलकर प्रेमपूर्वक अपने हाथ से सुन्दर-सुन्दर पकवान बनाकर श्रीकृष्ण को खिलाने का निश्चय किया। सबने विविध प्रकार के सुस्वादु व्यंजन बनाए और यमुनातट पर श्रीकृष्ण के पास पहुंचकर प्रार्थना करने लगीं–’हे श्यामसुन्दर! हमारे हाथों से बने हुए स्वादिष्ट भोजन का आस्वादन कीजिए। स्वयं संतुष्ट होकर हम सबके मन को भी आनन्द प्रदान करें।’
श्रीकृष्ण ने कहा–’गोपियो! आज तो मैं नन्दबाबा के साथ भोजन करके आ रहा हूँ। पेट में तिलमात्र भी स्थान नहीं है। अत: मैं भोजन नहीं कर सकूंगा। यदि तुम लोग मुझे संतुष्ट करना चाहती हो तो यह भोजन किसी साधु या ब्राह्मण को खिला दो।’ प्रेमस्वरूपा गोपियां अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थीं। अत: वे बोलीं–’हम लोग किस साधु या ब्राह्मण को यह भोजन करा दें, यह आदेश भी आप ही दीजिए।’
आज्ञाकारिणी गोपियों की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा–’यमुना के दूसरे तट पर दुर्वासा मुनि विराज रहे हैं, तुम लोग उन्हीं को यह भोजन खिला दो।’ गोपियों ने कहा–’यमुनाजी पूर्ण वेग से प्रवाहित हैं। वहां कोई नौका नहीं है, जिस पर बैठकर हमलोग उस पार जा सकें। भोजन लेकर जल का स्पर्श किए बिना हम लोग उस पार भला कैसे जा सकती हैं।’
श्रीकृष्ण बोले–’जल का स्पर्श किए बिना सहज में ही उस पार जाया जा सकता है।’ गोपियों ने प्रश्न किया–’वह कैसे?’ श्रीकृष्ण ने बतलाया–’तुम लोग जाकर श्रीयमुनाजी से कहो–’यदि कृष्ण सदा का बालब्रह्मचारी हो तो तुम उस पार जाने के लिए हमें मार्ग दे दो। बस, इतना कहते ही तुम्हारा मार्ग सहज हो जाएगा।’
श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर गोपियां खिलखिलाकर हँस पड़ी। रास रचाने वाले श्रीकृष्ण की इस बात पर उन्हें आश्चर्य हुआ। फिर भी उन्हें अपने प्रियतम पर पूर्ण विश्वास था। वे उनके कथनानुसार श्रीयमुनाजी से प्रार्थना करने लगीं। यमुनाजी का प्रवाह तुरन्त रुक गया और बीच में सुन्दर मार्ग दिखायी पड़ा। गोपियां प्रसन्नतापूर्वक उस पार चली गईं।
दुर्वासा मुनि के आश्रम में पहुंचकर गोपियों ने उन्हें श्रद्धा से प्रेमपूर्वक भोजन कराया। पचासों थाल भोजन करने के बाद मुनि ने गोपियों को आशीर्वाद देकर विदा किया। गोपियों ने देखा–यमुनाजल पूर्ववत् वेग से बह रहा है। जिस मार्ग से वह इस पार आईं थीं, वह ओझल हो गया है। वे अब किस प्रकार उस पार जाएं। इस चिन्ता में वह खड़ी रह गईं।
दुर्वासा मुनि ने पूछा–’गोपियो! तुम सब चिन्तित क्यों खड़ी हो? तुम्हें अब अपने घरों की ओर प्रस्थान करना चाहिए।’ गोपियों ने कहा–’महाराज! पार जाने का कोई साधन नहीं है। आप कृपा करके मार्ग बतलाइए कि बिना जल का स्पर्श किए हुए हम सब उस पार पहुंच जाएं।’ दुर्वासा मुनि बोले–’देवियो! जिस रीति से आप लोग आयीं थीं, उसी प्रकार चली भी जाओ। यमुना से जाकर कहो कि यदि दुर्वासा मुनि सदा निराहारी ही रहे हों तो आप हमें मार्ग दे दें।’
अनेक प्रकार के रास रचाने व लीला करने वाले श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और थोड़ी देर पहले ही पचासों थाल भोजन आत्मसात् कर जाने वाले दुर्वासा सदा के निराहारी! यह कैसा आश्चर्य? गोपियां बोलीं–’श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी कैसे? और आपने अभी-अभी इतना भोजन किया है, फिर आप निराहारी कैसे हुए? कृपया स्पष्ट कीजिए।’
दुर्वासा मुनि ने कहा–’हे गोपियो! मैं शब्दादिक गुणों से तथा आकाशादिक पंचमहाभूतों से भिन्न हूँ और उसके अंदर भी हूँ। ये आकाशादि मुझे नहीं जानते। वे मेरे अंतर में भी हैं और बाह्य में भी। मैं सर्वसंगरहित आत्मा हूँ, तो फिर किस प्रकार भोक्ता हो सकता हूँ। व्यवहार दशा में ही मन विषयों को ग्रहण करता है, किन्तु परमार्थ दशा में जब सर्वत्र आत्मा है, तब मन किस विषय का मनन करे। किस विषय में मन लिप्त हो। श्रीकृष्ण भी तीनों गुणों से रहित हैं। जो इच्छा से विषयों का सेवन करे, वह कामी है, जो इच्छारहित होकर अथवा इच्छा के पूर्ण अभाव से विषयों का सेवन करता है, वह सदा ही अकामी है, सदा ही निष्काम है, सदा ही ब्रह्मचारी है, सदा ही निराहारी है। जो परमात्मा को अर्पण करके विषयों को क्षुद्रवत् जान करके अभाव से भोगता है, अभाव से ही भोजन करता है–वह सदा ब्रह्मचारी और सदैव निराहारी है।’
दुर्वासा मुनि के वचन सुनकर गोपियों की शंका का समाधान हो गया। जिस प्रकार जल का स्पर्श किए बिना वे आईं थीं, उसी प्रकार वापस चली गयीं। श्रीकृष्ण के बालब्रह्मचर्यव्रत को जानकर उनकी निष्ठा और प्रेम अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में और भी दृढ़ हो गया।
ब्रह्मवादियों के अनुसार श्रुतिसार प्रणव के ऊपर अवस्थित अर्धमात्रा ही श्रीकृष्ण हैं, जिनमें विश्व प्रतिष्ठित है। व्रजगोपियों के प्रेम के कारण ही निर्गुण अर्द्धमात्रा का श्रीकृष्णरूप में व्रज में अवतरण हुआ।
अर्द्धमात्रात्मक: कृष्णो यस्मिन् विश्वं प्रतिष्ठितम्।
व्रजस्त्रीजनसम्भूत: श्रुतिभ्यो ब्रह्मसंगत:।।
प्रणवत्वेन प्रकृतित्वं वदन्ति ब्रह्मवादिन:।। (श्रीगोपालोत्तरतापिन्युपनिषद् २।११)
भगवान श्रीकृष्ण जो भी करते थे, उन सबमें समता, नि:स्वार्थता और अनासक्त्तता का भाव रहता था, इसी से वे कर्मों में कभी बंधते नहीं थे। गीता (९।९) में उन्होंने कहा भी है–‘हे अर्जुन! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते।’
इस लीला के बाद गोपियां यह महसूस करती हैं कि श्याम तो लीलाधारी हैं। यह सब उनकी लीलाओं का ही एक भाग है, क्योंकि श्यामसुन्दर का भेद तो वेदों, पुराणों को भी नहीं मिल पाया है। इस कारण वे कहती हैं–
तुमरी लीला विचित्र मुरारि, श्याम छलिया हो बड़े।
घर-घर मिसरी माखन खाये, प्यारे सखन आनंद दिवाये।।
गोपिन पकर जैव जो पाये, उनके पति के रूप बनाये।
तुमरा बेदहु न पावें पार, श्याम छलिया हो बड़े।।
जैसे मनुष्य जादूगर और नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही भवभयहारी, विपिनबिहारी, मुरारी, वनवारी, नित्यलीलारसधारी भगवान श्रीकृष्ण के संकल्प के द्वारा प्रकट हुई उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव अपने कुतर्कों से नहीं पहचान सकता। उनके स्वरूप व लीलाओं के रहस्य को वही जान सकता है जिसने निष्कपट भाव से निरन्तर उनके चरणकमलों का आश्रय लिया हो। इसलिए सुखस्वरूप परमात्मा से एक हो जाइए, वे न दूर हैं, न उनके मिलने में देर है, वे न दूसरे हैं और न ही दूसरे के हाथ में हैं। अत: एक ही कामना है–
गिरे गर्दन ढुलक कर पीत पट पर,
खुली रह जायें ये आंखें मुकुट पर।
गर ऐसा हो अन्जाम मेरा,
तो मेरा काम हो औ’ नाम तेरा।।
namaste prakand vidushi koi bhi apka page kholkar padhe to nisandeh vah avyakt param fal ya manovanchit ki taraf anayas hi badh jayega fir apka lekhan bhagwan krishan ka ho ya bhagwan shiv ke bare mein abhar
धन्यवाद! इसी तरह ‘आराधिका’ से जुड़े रहें
बंदऊँ बालरूप सोई रामू ! सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामु !! जय सियाराम
Apki bhakti ko aur ruchi ko Pranam. Ap isi prakar se hame bhakti may karte rhne ki kripa karein. Danyabad.
Aapko bhi shukriya
Issi tarah blog padte rahe
Bahut sunder
Jai shree Krishan
Thanks
आपके हृदय में स्थित सच्चिदानंद श्रीकृष्ण को प्रणाम।🙏
Jai shree Krishna
Jai shree Krishna
Radhey Radhey..🙏
Thakurji ki har baat or leela ko samajh pana bahaut kathin h…
Radhey Radhey…