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भगवान श्रीकृष्ण का चतुर्भुज रूप

भगवान ने अपने चतुर्भुज दिव्य रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता बताते हुए अर्जुन से कहा—‘मेरे इस रूप के दर्शन बड़े दुर्लभ हैं; मेरे इस रूप के दर्शन की इच्छा देवता भी करते हैं । मेरा यह चतुर्भुजरूप न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न क्रिया से और न ही उग्र तपस्या से देखा जा सकता है । इस रूप के दर्शन उसी को हो सकते हैं जो मेरा अनन्य भक्त है और जिस पर मेरी पूर्ण कृपा है ।

भगवान विष्णु का हंस अवतार

भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में बीसवां ‘हंस अवतार’ है । श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध के तेरहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को अपने ‘हंसावतार’ की कथा सुनाई है । भगवान के हंसावतार की सम्पूर्ण जानकारी ।

भगवान गणेश को सिंदूर क्यों लगाया जाता है ?

भगवान गजानन ने सिन्दूरासुर के पास पहुंचने पर विराट् रूप धारण कर लिया । उनका मस्तक ब्रह्माण्ड को और दोनों पैर पाताल को छूने लगे । गजानन का सहस्त्रशीर्ष, सहस्त्राक्ष और सहस्त्रपाद वाला विराट रूप सर्वत्र व्याप्त हो गया ।

कृष्णावतार में किस देवता ने लिया कौन-सा अवतार ?

यह प्रसंग अथर्ववेद के श्रीकृष्णोपनिषत् से उल्लखित है । जानते हैं, श्रीकृष्ण के परिकर के रूप में किस देवता ने क्या भूमिका निभाई ?

भगवान विष्णु का सद्गुरु रूप में ‘दत्तात्रेय’ अवतार

भगवान विष्णु ने दत्तात्रेयजी के रूप में अवतरित होकर जगत का बड़ा ही उपकार किया है । उन्होंने श्रीगणेश, कार्तिकस्वामी, प्रह्लाद, परशुराम आदि को अपना उपदेश देकर उन्हें उपकृत किया । कलियुग में भी भगवान शंकराचार्य, गोरक्षनाथजी, महाप्रभु आदि पर दत्रात्रेयजी ने अपना अनुग्रह बरसाया । संत ज्ञानेश्वर, जनार्दनस्वामी, एकनाथजी, दासोपंत, तुकारामजी—इन भक्तों को दत्तात्रेयजी ने अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया ।

श्रीकृष्णावतार के समय देवी-देवताओं का पृथ्वी पर विभिन्न रूपों में जन्म

इस प्रकार लीला-मंच तैयार हो गया, मंच-लीला की व्यवस्था करने वाले रचनाकार, निर्देशक एवं समेटने वाले भी तैयार हो गए। इस मंच पर पधारकर, विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर अपनी-अपनी भूमिका निभाने वाले पात्र भी तैयार हो गए। काल, कर्म, गुण एवं स्वभाव आदि की रस्सी में पिरोकर भगवान श्रीकृष्ण ने इन सबकी नकेल अपने हाथ में रखी। यह नटवर नागर श्रीकृष्ण एक विचित्र खिलाड़ी हैं। कभी तो मात्र दर्शक बनकर देखते हैं, कभी स्वयं भी वह लीला में कूद पड़ते हैं और खेलने लगते हैं।

भगवान के ‘मन’ अवतार देवर्षि नारद

देवर्षि नारद ब्रह्मतेज से सम्पन्न व अत्यन्त सुन्दर हैं। वे शांत, मृदु और सरल स्वभाव के हैं। उनका शुक्ल वर्ण है। उनके सिर पर शिखा शोभित है। उनके शरीर से दिव्य कांति निकलती रहती है। वे देवराज इन्द्र द्वारा प्राप्त दो उज्जवल, श्वेत, महीन और बहुमूल्य दिव्य वस्त्र धारण किए रहते हैं। भगवान द्वारा प्रदत्त वीणा सदैव उनके पास रहती है। इनकी वीणा ‘भगवज्जपमहती’ के नाम से विख्यात है, उससे अनाहत नाद के रूप में ‘नारायण’ की ध्वनि निकलती रहती है। अपनी वीणा पर तान छेड़कर भगवान की लीलाओं का गान करते हुए ये सारे संसार में विचरते रहते हैं। कब किसका क्या कर्तव्य है, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान है। ये ब्राह्ममुहुर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और सभी जीवों के कर्मों के साक्षी हैं। वे आज भी अजर-अमर हैं।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना को सद्गति प्रदान करना

पूतना के पूर्वजन्म की कथा, एवं पूतना-वध की कथा | आखिर पूतना के आते ही भगवान ने अपने नेत्र बंद क्यों किए? पूतना जन्म से राक्षसी थी, कर्म था शिशुओं की हत्या करना और आहार था बालकों का रक्त। वह श्रीकृष्ण के पास कपटवेश बनाकर मारने गयी थी; किन्तु कैसे भी गई; किसी भी भाव से गई; नन्हें बालकृष्ण के मुख में उसने अपना स्तन दिया इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसे माता की गति दी। उसका कपटी राक्षसी शरीर दिव्य गंध से पूर्ण हो गया। श्रीकृष्ण जिसे छू लेते हैं उसका लौकिक शरीर फिर अलौकिक, दिव्य, चिन्मय बन जाता है। श्रीकृष्ण की मार में भी प्यार है।

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य (अवतार)

भगवान का अवतार कब और क्यों होता है? प्रकृति में जब अधोगुण बढ़ जाते हैं, मानव आसुरी और राक्षसी भावों से आक्रान्त हो जाता है, उसमें अहंता-ममता, कामना-वासना, स्पृहा-आसक्ति बुरी तरह बढ़ने लगती है, चोरी, डकैती, लूट, हिंसा छल, ठगी--किसी भी उपाय से वह भोग (अर्थ, अधिकार, पद, मान, शरीर का आराम) प्राप्त करने में तत्पर हो जाता है, राजाओं और शासकों के रूप में घोर अनीतिपरायण, स्वेच्छाचारी, नीच-स्वार्थरस से पूर्ण असुरों का आधिपत्य हो जाता है, पवित्र प्रेम की जगह काम-लोलुपता बढ़ने लगती है, ईश्वर को मानने वाले साधु चरित्र पुरुषों पर अत्याचार होने लगते हैं, सच्चे साधकों को पग-पग पर अपमानित व लज्जित होकर पद-पद पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है, मनुष्य विनाश में विकास देखने लगता है, इस प्रकार साधु हृदय मानवों की करुण पुकार जब चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब भगवान का अवतार होता है।