नमामि गोवर्धनपादपल्लवं, स्मरामि गोवर्धनरूपमुज्ज्वलम्।
वदामि गोवर्धननाथ मंगलं, गोवर्धनात्किंचिदहं न जाने।।
विष्णुस्वरूपं हरिदासवर्यं क्रोडे सदा क्रीडितकृष्णचन्द्रम्।
गो-गोप-गोपी-नवनन्दपूज्यं गोवर्धनं तं शिरसा नमामि।।

श्रीगिरिराज गोवर्धन-पूजन का रहस्य

जीव में जैसे जैसे अहंकार जड़ जमाता जाता है, वैसे-वैसे वह उसे पतन के गर्त में घसीटता जाता है। देवताओं के राजा इन्द्र भी इस अहंकार की चपेट में आ गए थे। परिणाम यह हुआ कि वे परब्रह्म परमात्मा को ‘मनुष्य’, उनके चिन्मय तत्वों को ‘जड’ और भगवान के लीला सहचरों को ‘सामान्य’ मान बैठे थे। देवराज इन्द्र की भोगवादी संस्कृति ने ग्वालों को शंकालु व भीरु बना दिया, तब श्रीकृष्ण ने उनमें आत्मचेतना का दिव्यमन्त्र फूंक कर उन्हें स्वयं पर भरोसा करने वाला आत्मविश्वासी बनाया। गोपालक व लोक संस्कृति का पुनर्जागरण कर गिरिराज गोवर्धन की पूजा का विधान बताया।

भगवान ने एक ओर तो इन्द्र के रोग की चिकित्सा की और दूसरी और गिरिगोवर्धन की ‘चिन्मयता’ प्रकट की। इस लीला में श्रीकृष्ण का क्रान्तिकारी दृष्टिकोण देखने को मिलता है। वह इन्द्र से अधिक आदर गायों का, गाय चराने वालों का तथा गायों को घास-चारा-पानी देने वाले ‘गिरिराज गोवर्धन’ का करते हैं।

व्रज में इन्द्र यज्ञ की तैयारी

कार्तिक कृष्ण अमावस्या, श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण आज सात वर्ष दो महीने व सात दिन के हो चुके हैं। दीपावली के दिन सायंकाल में उन्होंने देखा कि गोपगण किसी बड़े भारी यज्ञ की तैयारी में व्यस्त हैं। लक्ष्मीपूजन में तो ऐसा यज्ञ होता नहीं, यह इन्द्रयाग की तैयारी है। इन्द्र अपने को त्रिलोकी का स्वामी मानते हैं और अब व्रज के लोगों से भी अपना पूजन कराने लगे हैं। श्रीकृष्ण के माता-पिता, बन्धु-बांधव तो भुवनपूज्य हैं। वे स्वयं किसी की पूजा करें, यह दूसरी बात है और कोई उनसे पूजा पाना चाहे, यह गलत है–देवराज इन्द्र गर्व के वश में हो रहे हैं। गर्वहारी श्रीकृष्ण ने उनका गर्व चूर करने का संकल्प किया।

बाजत नंद अवास बधाइ।
बेठे खेलत द्वार आपने सात बरस के कुंवर कन्हाइ।।
बेठे नंद सहित वृषभानें ओर गोप सब बेठे आइ।।
बारबार बूझत बाबा को कोन देव की करत बड़ाई।।
इन्द्र बड़ो कुलदेव हमारो जा कारन हम करत पुजाई।
सूर श्याम तुम्हारे हित कारन यह पूजा हम करत सदाई।।

‘बाबा ! यह किसने पूजन की तैयारी है? कौन-सा यज्ञ होने वाला है? इस यज्ञ का क्या उद्देश्य है? इसके करने से क्या फल होता है? तुम्हें तो किसी बात की कमी नहीं, फिर तुम यज्ञ किसलिए करते हो?’ श्रीव्रजराज नन्द की गोद में बैठकर अन्तर्यामी होते हुए भी श्यामसुन्दर ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

व्रजराज ने स्नेहपूर्वक समझाया–’मेरे लाल ! यह वर्षाधिदेव इन्द्र का यज्ञ है। वे ही मेघों के स्वामी हैं। वर्षा से ही अन्न उत्पन्न होता है। हम लोग यज्ञ करके उन्हें प्रसन्न करेंगे तो वे अच्छी वर्षा करेंगे। मनुष्यों के खेती आदि कर्मों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। इन्द्र का पूजन भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है।’

नन्दनन्दन ने मुंह बनाते हुए कहा–’बाबा ! यह सम्पूर्ण विश्व कर्मप्रधान है। मेघ तो जल से बनते हैं। बादल अपने गुण के अनुसार रजोगुण और वायु की प्रेरणा से वर्षा करते हैं। सब प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही सुख-दु:ख पाते हैं। पूर्व संस्कारों के अनुसार प्राप्त होने वाले कर्मफल को इन्द्र मिटा या बदल नहीं सकते। इन्द्र आदि देवता पुण्यकर्मों से स्वर्ग का सुख भोगते हैं। पुण्यों का क्षय होने पर उन्हें भी मृत्युलोक में आना पड़ता है। अत: उनकी सेवा मोक्ष का साधन नहीं है। ऐसी दशा में उस घमंडी इन्द्र की चिरौरी क्यों की जाए? उसके स्थान पर गौ-गोवत्स प्रतिपालक गिरिराज गोवर्धन की ही प्रेम से आराधना क्यों न की जाए?’

हमारी बात सुनो व्रजराज।
सुरपति को बलि भाग न दीजै पूजे यह गिरिराज।।
बरसे मेघ गो सुख पावे व्हेहे व्रज सुख काज।
सूरदास प्रभु नंदकुंवर कहें वेगही कीजे साज।।
फिर व्रजवासियों के मन में एक संशय था–
बहु दिवस भये करत हैं, हम पूजा सब कोय।
अब हम जो छांड़ि दिहिं तो न भलौ होय।।

श्रीकृष्ण ने इस संशय को दूर कर सबके ज्ञानचक्षुओं को खोलते हुए कहा–‘हम लोग ठहरे गोप। हमारा न कोई ग्राम है, न घर है। हम तो वनवासी हैं; वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं। हमें इस धरती को भूल नहीं जाना चाहिए। आप सब अपनी नजर को स्वर्ग पर से धरती पर ले आएं। जो आसमान की ओर आंख करके धरती पर चलता है, उसे ठोकर लगती है। इसलिए स्वर्ग के देवता से बड़ी पूजा है इस मर्त्यलोक की। इसलिए यदि पूजा करनी है तो इस इस गिरिराज की पूजा करें। गायें ही हमारी देवता हैं और यही हमारी जीविका हैं। भगवान के वक्ष:स्थल से प्रकट हुआ यह गिरिन्द्रों का सम्राट गोवर्धन पर्वत हमारा और हमारी गायों का पालन-पोषण करता है। गौओं की वृद्धि करने के कारण ही ये ‘गोवर्धन’ कहलाता है। अत: हमारे देवता यही हैं। अपने-अपने देवता का ही सबको पूजन करना चाहिए। इस इन्द्रपूजा में कुछ धरा नहीं है। इन्द्र बड़ा अभिमानी है, आप लोगों के अनेक वर्षों से पूजा करने पर भी इन्द्र दर्शन नहीं देता; गोवर्धननाथ की पूजा करो तो वे अवश्य दर्शन देंगे।’

सब देवनि कौ देवता, गिरि गोवर्धनराज।
ताहि भोग किन दीजियै, सुरपति कौ कह काज।।

गौओं, ब्राह्मणों तथा देवताओं का पूजन करके आज ही यह उत्तम भेंट सामग्री महान गिरिराज को अर्पित की जाए और हम सब गायों को आगे करके उनकी प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करें। यह यज्ञ नहीं, यज्ञों का राजा है।

हँस हँस बात कहत मनमोहन हमारो देव गोवर्धनराई।
जाके आश्रय हम गौ चारे सुरपति को कहा आवे जाई।।
नित्य उठ खेलन हमपें आवे माग लेत पकवान मिठाई।।
जाके चरन प्रताप तेज तें रहत सदा सुखदाई।।
अखिल लोक को नायक कहावे शिव बिरंचि जाकी करत बडाई।
सूर श्याम यों कहत सबन को गोवर्धन की करो पुजाई।।

नीलमणि कृष्ण को इस प्रकार परम विद्वान की तरह तर्क देते हुए और इन्द्रयाग का खण्डन करते देखकर सब आश्चर्यचकित हो गए। सनन्द गोप ने देखा कि ‘एक नील तेज:पुंज यशोदा के नीलमणि के चारों ओर छिटका हुआ है। साक्षात् आदिपुरुष नारायण ने ही नीलमणि के मुख से ऐसी आज्ञा दी है। जिस नारायण ने अब तक व्रज के प्राणधन नीलमणि की अनेक विपत्तियों से रक्षा की, उनकी आज्ञा ही सर्वमान्य है।’

अत: उन्होंने भी कन्हैया की बात का अनुमोदन कर दिया और इन्द्रयाग गोवर्धनयाग के रूप में परिणित हो गया।

सुन व्रजवासी सकल हरख मन करे बधाई।
कहा करेगो इन्द्र हमारे कृष्ण सहाई।।

श्रीकृष्ण का गिरिगोवर्धन-पूजन विधि बताना

नन्दबाबा ने कहा हम गिरिराज की पूजा करें किन्तु हम उसकी विधि नहीं जानते हैं। कन्हैया ने कहा–’बाबा ! मैं विधि बतलाता हूँ–नए वर्ष (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) के दिन पूजा होगी; ब्राह्मणों को साथ रखकर गंगाजल या यमुनाजल से, फिर गो-दुग्ध की धारा से व पंचामृत से स्नान करायें। पुन: शुद्धजल से स्नान कराकर गंध, पुष्प, वस्त्र, नैवेद्य, माला, आभूषण अर्पित करें। प्रार्थना करें–’जो श्रीवृन्दावन के अंक में अवस्थित तथा गोलोक के मुकुट हैं, पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के छत्र रूप उन गिरिराज गोवर्धन को हम बार-बार नमस्कार करते हैं।’ फिर आरती करें व पुष्पांजलि अर्पित करें। गिरिगोवर्धन पर लावा (खील)  की वर्षा करें। अग्नि में हवन करके ब्राह्मणों, गौओं और देवताओं की पूजा करें। गिरिराजजी को अन्नकूट का भोग लगाएं। उस दिन सारे गांव को भोजन कराना व चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों को भी भोजन प्रसाद देना है। अंत में दीपमाला समर्पित कर गिरिराजजी की परिक्रमा करें।

गोकुल को कुलदेवता प्यारो गिरधरलाल।
कमल नयन घन सांवरो वपु बाहु विशाल।।
वेग करो मेरे कहे पकवान रसाल।
बलि मघवा बल लेत हें कर कर घृत गाल।।
इनके दीयें बाढ़ि हें गैया बछ बाल।
संग मिलि भोजन करत है जैसे पशुपाल।।
गिरि गोवर्धन सेविये जीवन गोपाल।।
सूर सदा डरपत रहे जातें यमकाल।।

श्यामसुन्दर के सखा तो प्रसन्न हो गए। कन्हैया ने खूब धूम-धड़ाके का यज्ञ बताया है और इतने बड़े देवता हैं गिरिराज! कन्हैया की बातें सुनकर नन्दबाबा के शरीर में रोमांच हो आया। वे हर्षित होकर नेत्रों से आंसू बहाने लगे। मनुष्य यदि अपने पुत्रों से पराजित हों तो वे आनन्दित ही होते हैं।

बारबार हरि सिखवन लागे बोलत अमृत बानी।
सुनहू तात उपदेश हमारो चार पदारथ दानी।।
मेरो कह्यौ वेग अब कीजे दूध भात घृत सानी।
गोवर्धन की पूजा कीजे गोधन कों सुख दानी।।
यह परतीत नंदजू के आई कान्ह कही सो मानी।
परमानंद इन्द्र मानभंग कर जूठो कीयो पानी।।

गिरिगोवर्धन-पूजन की तैयारियां

पूरे व्रज में रात्रि भर कड़ाहियां चढ़ती रहीं। नाना प्रकार के पक्वान्न बनते रहे। प्रात:काल होते ही छकड़े जुते और गर्गाचार्यजी सहित सभी नन्द, उपनन्द और वृषभानुगण पूरे परिवार सहित–बालक, युवक व वृद्ध–सभी गोप पीताम्बर, पगड़ी मोरपंख, गुंजा व वनमालाओं से सज्जित होकर गिरिराज के चरणतल में एकत्रित होने लगे। श्रीराधा भी अपनी सखियों व गोपियों के यूथ (दल) सहित वहां आईं। भगवान श्रीकृष्ण की यह लीला शंकरजी को बहुत अच्छी लगी। वे दल-बल सहित इस गिरिपूजन में सम्मिलित हुए। राजर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि व सिद्धगण;  पर्वतों के राजा हिमालय व सुमेरु भी बड़ी प्रसन्नता से इस समारोह में सम्मिलित हुए।

गोवर्धन पूजन चले री गोपाल।
मत्त गयंद देख जिय लज्जित निरख मंदगति चाल।।
ब्रजनारी पकवान बहुत कर भर भर लीने थाल।
अंग सुगँध पहर पट भूषण गावत गीत रसाल।।
बाजे अनेक वेणु रवसो मिल चलत विविध सुर ताल।
ध्वजा पताका छत्र चमर ले करत कुलाहल ग्वाल।।
बालक वृंद चहूं दिश सोहत मानो कमल अलिमाल।
कुंभनदास प्रभु त्रिभुवन मोहन गोवर्धनधरलाल।।

गोपों द्वारा गिरिगोवर्धन-पूजन

सबसे पहले गणपति-पूजन हुआ फिर हवन, विप्रों का पूजन-दक्षिणा देने के बाद, गायों का पूजन हुआ और अब बारी आई गिरिराज पूजन की।

भगवान श्रीकृष्ण की बताई गई विधि के अनुसार स्वस्तिवाचनपूर्वक गिरिराज की पूजा आरम्भ हुई। गोपबालक गिरिराजजी के अभिषेक के लिए यमुनाजल भर-भरकर लाए। गोपों ने यमुनाजल से गिरिराजजी का खूब अभिषेक किया। फिर सभी गोपों द्वारा लाए गए दूध, दही, घी, शहद व शर्करा (पंचामृत) से गिरिराजजी को नहलाया गया। कन्हैया ने गिरिराज का गंध-पुष्प, माला व आभूषणों से सुन्दर श्रृंगार किया। पीताम्बर धारण कराकर केसरी अंगोछा कन्धे पर डाला।  घंटा, झांझ व मृदंग बजाकर गिरिराजजी की आरती कर उन्हें पुष्पांजलि अर्पित की।

कन्हैया ने कहा मेरे गिरिराज का आधिदैविक स्वरूप चार हाथ वाला है। हम किसी पहाड़ की पूजा करने नहीं आए हैं, ये हमारे प्रत्यक्ष परमात्मा हैं। इनकी नाक से श्वांस निकलता है। नन्दबाबा ने नाक पर ऊंगली रखी तो गिरिराज श्वांस लेते हुए प्रतीत हुए। सभी व्रजवासियों ने कन्हैया से ही गिरिराजजी का तिलक करने को कहा क्योंकि उन्होंने ही इनके दर्शन कराए हैं। व्रजवासी शंखनाद व घंटानाद करते हैं।

पूजाविधि गिरिराज की नंदलाल बतावे।
झुंडन झुंडन गोपिका मिल मंगल गावे।।
गंगाजल सों न्हवायके दूध धौरी को नावें।
विविध वसन पेहरायके चंदन चरचावें।।
धूप दीप करी आरती बहु भोग धरावें।
तिलक कियो बीरा दीये माला पेहरावे।।
खिरक चले लोहरे बडे मिल गाय खिलावें।
फिर गिरिधर भोजन कियो सुख सूर दिखावें।।

नन्द, उपनन्द, वृषभानु, गोप-गोपीवृन्द नाचने लगे व लाजा (खील) बरसाने लगे। आकाश से देवतागण भी फूल बरसाने लगे। व्रजराज व सभी गोप गिरिराज के प्रत्यक्ष प्रकट होने के लिए विनती करने लगे–

विनती करत सकल अहीर।
कलस भरि भरि ग्वाल लै लै सिखर डारत छीर।।

पूजन के समय साक्षात् श्रीकृष्ण गिरिराज के बीच से एक दूसरा विशाल चतुर्भुजस्वरूप धारण करके निकले। स्वयं भगवान ने अपने को गोवर्धन घोषित किया–‘मैं गिरिराज गोवर्धन हूँ’ और गिरिगोवर्धन से अपनी अभिन्नता प्रकट की। श्रीकृष्ण विशाल रूप धारणकर स्वयं को नमस्कार करें और स्वयं को पुजावें। स्वयं पुजारी, स्वयं यजमान, स्वयं पुरोहित और स्वयं पूज्य बनकर अर्थात् नाना रूपों में प्रकट होकर वहां का सारा अन्नकूट भोग लगाने लगे। इस प्रकार जब पूज्य और पूजक, सेव्य और सेवक, भक्त और भगवान एक हों तो ही प्रेमाभक्ति की वृद्धि होती है।

गिरिराज ने सचमुच सबके भोग को प्रत्यक्ष होकर स्वीकार किया। कहते हैं कि पारम्परिक इन्द्र की पूजा को हटाकर श्रीकृष्ण ने जब गिरिराज की पूजा प्रतिष्ठित की तब व्रजवासियों ने पूरी-पुआ, गूंझा-मठरी, मेवा-बाटी आदि तरह-तरह के मिष्टान्न सकड़ी-अनसकड़ी सामग्री श्रीगिरिराज महाराज के भोग के लिए परोसी।व्रजवासियों की भावना अनुसार भगवान ने गिरिरूप में उसको ग्रहण किया–’सहस्त्र भुजा धरि उत जेंवत हैं, इत गोपन से करत हैं बात।’

कैसी विचित्र लीला है ठाकुरजी की! एक रूप में श्रीकृष्ण स्वयं पूजा ले रहे हैं और एक रूप से वे ही श्रीकृष्ण पूजा करवा रहे हैं। भांति-भांति के षट् रस व्यंजन पाते-पाते भी ‘आनि और आनि और’ (और लाओ और लाओ) पुकारते जाते हैं। प्रेम के साम्राज्य में कैसी अनोखी अतृप्ति है यह!

गिरिराजजी तो शिखर पर प्रकट हुए और भोजन सामग्री तलहटी में हैं। गोवर्धननाथ शिखर से अपना हाथ बढ़ाकर भोजन की टोकरी उठाते और प्रसन्न होकर अरोगते (खाते) हैं। यह देखकर गोप चकित रह जाते और कहते–’लाला, तेरा ठाकुर तो खा रहा है।’

krishna annakut bhogऐसी जनश्रुति है कि गिरिराजजी ने सभी के द्वारा अर्पित अन्नकूट का भोग मांग-मांग कर खाया, अत: उन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। तब गोपबालक यमुनाजल ला-लाकर थक गए पर गिरिराजजी की प्यास नहीं बुझी। तब भगवान ने व्रजवासियों के श्रम को मिटाने के लिए तत्काल अपने मन के संकल्प से श्रीगंगाजी को प्रकट किया। इसी से इन्हें ‘मानसी गंगा’ कहते हैं।

कन्हैया ने नन्दबाबा से कहा–’बाबा ! सामने देखिए, गिरिराज प्रकट हुए हैं। इनसे वर मांगिए।’ नन्दबाबा ने हरिदास्य और हरिभक्ति का वर मांगते हुए कहा–‘कहत नन्द सब तुमही दीनों, मांगत हौं हरि की कुसलाई।’

नन्दरानी ने कहा–

सदा तुम्हारी सेवा करिहौं, और देव नहीं करौं पुजाई।
सूर स्याम को नीके राखौ कहति महरि ये हलधर भाई।।

श्रीगिरिराज का प्रत्यक्ष दर्शन गोपों के लिए असाधारण बात थी? गोपों ने कहा–’स्वयं नन्दनन्दन ने  हमें आपके दर्शन का अवसर दिया। आपकी कृपा से हमारा गोधन और बन्धु-बांधव दिन-प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हो।’

‘ऐसा ही होगा’ कहकर गिरिराज गोवर्धन अन्तर्धान हो गए। सबको यह दृढ़ विश्वास हो गया कि आदिपुरुष भगवान नारायण ने ही कन्हैया से यह सब करवाया है। भगवान की लीलाशक्ति के कारण वे यह तो नहीं समझ पाए कि कन्हैया ही आदिपुरुष नारायण है। व्रजराज ने गोवर्धन की परिक्रमा का आदेश दिया।

आज कुहु की राति चलो परिक्रमा कीजे।
गिरि सन्मुख निश जाग भोर बलि पूजा दीजै।।

आगे-आगे गायों की पंक्ति, उनके पीछे कृष्ण-बलराम, फिर ब्राह्मणगण, गुरु एवं गुरुपत्नियां फिर नन्द-यशोदा और उनके परिजन, फिर गोपांगनाएं व गोपों के यूथ और अंत में दासियां व अपार जनता–इस क्रम से गिरिराज की परिक्रमा पूरी हुई। पर व्रजांगनाओं के नेत्रों में तो श्यामसुन्दर ही छाए हैं। परिक्रमा आरम्भ होकर समाप्त भी हो गई, सभी व्रज की ओर लौट रहे हैं; पर व्रजांगनाएं उसी तरह स्वर-में-स्वर मिलाकर लीला गाती हुई चल रही हैं–

‘यह गोवर्धन पूजा किसने की? जिसने इन्द्रलोक को भयभीत किया, जिसने उस पूतना का वध किया, तृणावर्त का मर्दन किया, जुड़वां अर्जुन के वृक्षों को जड़ से उखाड़ दिया, व्योमासुर और अघासुर का वध किया, कालियनाग का दमन किया, धेनुकासुर एवं प्रलम्बासुर का विनाश किया और दो बार दावाग्नि का पान किया, उसी ने यह पूजा की है।’ (श्रीगोपालचम्पू)

हे भक्तवत्सल गोवर्धननाथ ! कोई अन्न का कूट (पहाड़) बनाकर आपका पूजन-अर्चन करता है तो कोई आपके दर्शन-स्पर्श से ही धन्य हो जाता है, कोई दुग्धधारा से आपका अभिषेक करता है, तो कोई पान-सुपारी चढ़ाकर ही अपने कल्याण का पथ प्रशस्त कर लेता है।

3 COMMENTS

  1. आराधिका द्वारा प्रकाशित ब्लॉग पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया!

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