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भगवान श्रीकृष्ण की लिलहारी लीला
जब श्रीकृष्ण ने सुना कि श्रीराधा अपने रोम-रोम पर उनका नाम लिखवाना चाहती हैं, तो वे खुशी से बौरा गए। उन्हें अपनी सुध नहीं रही। वे खड़े होकर जोर-जोर से नाचने और उछलने लगे और भूल गए कि वो वृषभानुमहल में एक लालिहारण के वेश में श्रीराधा के सामने ही बैठे हैं।
क्यों मधुर है श्रीकृष्ण का रास-नृत्य ?
‘रास’ का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों से है। रास वृन्दावन का वास्तविक नृत्य है। श्रीकृष्ण अकेले रास नहीं कर सकते। रास की आधार हैं श्रीराधा; इसलिए उन्होंने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के साहचर्य से रास रचाया, रस बरसाया, रस प्राप्त किया और रस प्रदान किया तथा ‘रासबिहारीलाल’ कहलाए। भगवान श्रीकृष्ण की अन्तरंग आह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी और उनकी निजस्वरूपा गोपबालाओं के साथ होने वाली कन्हैया की रस एवं माधुर्य से ओत-प्रोत संगीतमय लीला का नाम ‘रास’ है।
नृत्यकला के आदिगुरु भगवान श्रीकृष्ण (I)
क्रोध में उन्मत्त, भीषण विषधर कालियनाग के भयानक फनों पर नृत्य करना भगवान श्रीकृष्ण की नृत्यकला की पराकाष्ठा है। तलवार की धार पर, सूत पर तथा अग्नि में भी कुशल कलाकार नृत्य कर लेते हैं; पर यहां सौ फन वाले सर्प के फनों पर नृत्य हो रहा था। भगवान शंकर तो ताण्डव करते हैं, किन्तु व्रजराज श्रीकृष्ण आज विचित्रताण्डव कर रहे हैं। श्रीकृष्ण के नागनृत्य में उनकी शरीरसाधना, चरणविन्यास, विचित्र मनोयोग और अनुपम सौन्दर्य का अद्भुत मेल है। इसके अलावा नंदमहल में श्रीकृष्ण की बालसुलभ क्रीड़ाओं में भी उनकी अद्वितीय नृत्यकला देखने को मिलती है।
सबसे ऊँची प्रेम सगाई
भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा। न मन्दिर है न जंगल। न धूप है न चैन। है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है। यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है।
भगवान श्रीकृष्ण का व्रजप्रेम
कई दिन बीत गए पर मथुराधीश श्रीकृष्ण ने भोजन नहीं किया। संध्या होते ही महल की अटारी (झरोखों) पर बैठकर गोकुल का स्मरण करते हैं। वृन्दावन की ओर टकटकी लगाकर प्रेमाश्रु बहा रहे हैं। कन्हैया के प्रिय सखा उद्धवजी से रहा नहीं गया। उन्होंने कन्हैया से कहा--’मैंने आपको मथुरा में कभी आनन्दित होते नहीं देखा। आप दु:खी व उदास रहते हैं। आपका यह दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता।’
भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण और ब्राह्मण कण्व
नन्दरानी यह नहीं जानतीं कि नन्दबाबा के पकड़े जाने पर भी उनका नीलमणि कभी का गोशाला के अन्दर पहुंचकर भोग अरोग रहा है। वह यह भी नहीं जानतीं कि जो अजन्मा है, अनादि है, अनन्त है, पूर्ण है, पुरुषोत्तम है, निर्गुण है, सत्य है, प्रत्येक कल्प में स्वयं अपने-आप में अपने-आप का ही सृजन करता है, पालन करता है और फिर संहार कर लेता है, वही विराट् पुरुष मेरा नीलमणि है। उन्हें तो यह भान ही नहीं है कि मेरी गोद में रहते हुए भी ठीक उसी क्षण मेरा नीलमणि अनन्त रूपों में अवस्थित है।
भगवान श्रीकृष्ण का नामकरण संस्कार
यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वह ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वह एक दिन गोकुल में नंदबाबा के घर आए। गर्गाचार्यजी ने कहा--'नंदजी, यह जो तुम्हारा साँवला सलौना बालक है, यह युग-युग में रंग परिवर्तित करता है। सत्ययुग में श्वेत वर्ण का, त्रेतायुग में रक्त वर्ण था। परन्तु इस समय द्वापरयुग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है अत: इसका नाम 'कृष्ण' होगा।'