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भगवान श्रीकृष्ण और कमल
धन्य है कमल ! संसार में अन्य किसी को यह सौभाग्य नहीं मिला, जिसकी उपमा श्रीकृष्ण के सभी अंगों से दी जा सके और जिस पर स्वयं श्रीयुगल सरकार विराजमान रहें ।
राधा तू बड़भागिनी कौन तपस्या कीन
राधा श्रीकृष्ण की भक्ता हैं, प्रेमिका हैं, उपासिका-आराधिका हैं । श्रीराधा श्रीकृष्ण की शक्ति हैं, श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं । लेकिन श्रीराधा को यह गौरव कैसे प्राप्त हुआ, इससे सम्बन्धित एक प्रसंग ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है ।
भगवान श्रीकृष्ण और चंद्रावली सखी
ब्रज-सखी चंद्रावली भादप्रद शुक्ल की चौथ को हाथ में पूजा का थाल लेकर चंद्रमा के पूजन-दर्शन के लिए छत पर गई और चंद्रमा को अर्घ्य देते हुए बोली—‘हे चंद्रदेवता ! हमारे ऊपर कृपा करो ।’
नारद जी ने जब चंद्रावली सखी को चौथ की रात्रि में चंद्रदर्शन करते हुए देखा तो उससे कहा—‘अरी बाबरी ! ये क्या कर रही है । तुझे व्यर्थ में ही कलंक लग जाएगा ।’
भगवान का भोग ग्रहण करना
भगवान के पूजन में विधि, मंत्र और सामग्री उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना की भाव । भक्त को जो कुछ भी सरलता से प्राप्त हो जाए, वही भक्तिपूर्वक सच्चे हृदय से अर्पण कर देने से भगवान संतुष्ट हो जाते हैं । चाहे कितनी भी उत्तम-से-उत्तम वस्तु भगवान को अर्पण की जाए, भाव बिना वे उसे स्वीकार नहीं करते हैं ।
आदि शंकराचार्य जी द्वारा भगवान जगन्नाथ की रत्नवेदी पर पुनर्स्थापना
एक बार जगद्गुरु शंकराचार्य जी अपने आश्रम में अखण्ड आनंद-समाधि में लीन थे, सहसा उनका शरीर अपूर्व सिहरन से व मस्तिष्क नीले बादलों की-सी दिव्य प्रभा से भर गया । उनके नेत्रों में एक अलौकिक गोलाकार युगलनेत्र वाली छवि प्रकट हुई जिसे देख कर उनके नेत्रों से आनंदाश्रु बहने लगे ।
भगवान की पूजा या सेवा
सामान्य भाषा में भगवान की ‘सेवा’ और ‘पूजा’ दोनों का समान अर्थ माना जाता है; लेकिन वैष्णव आचार्यों ने भाव के अनुसार इनमें बहुत बड़ा अंतर माना है । जानते हैं, भगवान की सेवा और पूजा में अंतर क्या अंतर है ?
सीता जी की खोज में प्रभु श्रीराम की रुदन लीला
अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी श्रीराम सीता जी को खोजते हुए इस प्रकार विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यंत कामी पुरुष हों । पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीराम आज साधारण मानव के रूप में लीला कर रहे हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण का चतुर्भुज रूप
भगवान ने अपने चतुर्भुज दिव्य रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता बताते हुए अर्जुन से कहा—‘मेरे इस रूप के दर्शन बड़े दुर्लभ हैं; मेरे इस रूप के दर्शन की इच्छा देवता भी करते हैं । मेरा यह चतुर्भुजरूप न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न क्रिया से और न ही उग्र तपस्या से देखा जा सकता है । इस रूप के दर्शन उसी को हो सकते हैं जो मेरा अनन्य भक्त है और जिस पर मेरी पूर्ण कृपा है ।
भगवान के स्वरूप का ध्यान क्यों करना चाहिए ?
विषयों की ओर आसक्त मन को भगवान के चरणकमलों की ओर घुमाने का एक सहज उपाय है--उनके स्वरूप-सौन्दर्य की उपासना । मनुष्य स्वाभाविक ही सौन्दर्य की ओर खिंचता है । अत: मनुष्य नित्य भगवान के सुंदर स्वरूप की सौन्दर्योपासना से सहज ही उनकी ओर खिंच सकता है और असीम शांति प्राप्त कर सकता है ।
मृत्यु से भय क्यों ?
मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है, फिर भी हम सब उससे बचने की तमाम कोशिश करते हैं और हर पल मरते हैं । मृत्यु-भय को दूर करने के लिए क्या कहती है गीता ?