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श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए गोपिकाओं का कात्यायनी...

कात्यायनीदेवी श्रीकृष्ण मन्त्राधिष्ठात्री देवी हैं। गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए केवल हविष्यान्न खाकर एक मास तक मां की आराधना की। श्रीकृष्ण पतिरूप में मिलें इसका अर्थ है मुझे परमात्मा से मिलना है, परमात्मा के साथ एकाकार होना है। मां कात्यायनी ब्रह्मविद्या का स्वरूप हैं जो परमात्मा से मिलन कराती हैं। गोपियां मूंगे की माला से उनके मन्त्र का एक सहस्त्र जप करतीं।

जीव और ब्रह्म का मिलन : महारास

ब्रह्माजी ने मान लिया कि यह स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं है; यह तो अंश और अंशी का मिलन है। श्रीकृष्ण गोपीरूप हो गए हैं और गोपियां श्रीकृष्णमय हो गयीं। कृष्णरूप (ब्रह्मरूप) हो जाने के बाद गोपी (जीव) का अस्तित्व कहां रहा? ब्रह्म से जीव का मिलन हुआ। जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकार-भाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान श्रीकृष्ण ने व्रजसुन्दरियों के साथ विहार किया। न कोई जड शरीर था और न प्राकृत अंग-संग। भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द रसमयी दिव्य क्रीडा का नाम ही रास है।

कान्हा मोरि गागर फोरि गयौ रे

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपी की गोरस से भरी मटकी फोड़ने की लीला और उसका भाव वर्णन

नित्य पाठ के लिए भगवान श्रीकृष्ण का षोडशी स्तोत्र

जय जय श्रीराधारमण, मंगल करन कृपाल, लकुट मुकुट मुरली धरन मनमोहन गोपाल । हे वसुदेवकुमार देवकीनंदन प्यारे, गोकुल में नन्दलाल बाललीला विस्तारे।

‘श्रीकृष्ण’ नाम का माधुर्य एवं विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान...

’जब कृष्ण नाम जिह्वा पर नृत्य करता है तब बहुत-सी जिह्वाएं प्राप्त करने की तृष्णा बढ़ती है, जब श्रवणेन्द्रिय (कानों) में प्रवेश करता है तो अरबों कर्ण-प्राप्ति की लालसा होती है। मन के प्रांगण में नाममाधुरी के प्रवेश करने पर शेष सब इन्द्रियां उसके वश में हो जाती हैं। न जाने, ‘कृष्ण’ इन ढाई वर्णों में कितना अमृत भरा है।’

भगवान श्रीकृष्ण के वेणुनाद का माधुर्य

वंशी की इस उन्मादक स्वर-लहरी के स्पर्श से अपने को कौन नहीं भूल जाता? इसी के द्वारा सारे जगत का चुम्बन कर श्रीकृष्ण एक गुदगुदी उत्पन्न किया करते हैं, प्राणियों के सोये हुए प्रेम को जगाया करते हैं। श्रीकृष्ण जब वंशी में रस भरते हैं, उस समय ऊपर आकाश का दृश्य भी देखने-योग्य होता है। यह ध्वनि केवल वृन्दावन को ही झंकृत करके नहीं रह गई अपितु अंतरिक्ष को भेदते हुए इसने वैकुण्ठ को आत्मसात कर लिया और पाताल को प्रकम्पित करती हुई नीचे चली गई। समस्त ब्रह्माण्ड का भेदन करती हुई यह वेणुध्वनि सब जगह व्याप्त हो गई।

परब्रह्म की सृष्टिकामना और गोलोक का प्राकट्य

अव्यक्त से व्यक्त होना, एक से अनेक होना, निराकार से साकार होना, सूक्ष्म का स्थूल होना सृष्टि है। वे स्वयं ही अपने-आपकी, अपने-आप में, अपने-आप से ही सृष्टि करते हैं। वे ही स्रष्टा, सृज्य और सृष्टि हैं। उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। सृष्टि को अनादि माना जाता है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि--यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। विभिन्न कल्पों में सृष्टि वर्णन में भी भिन्नता पाई जाती है। कभी आकाश से, कभी तेज से, कभी जल से और कभी प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। रजोगुण की प्रधानता से सृष्टि होती है और तमोगुण की प्रधानता से प्रलय होता है।

परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ

यह अनंत ब्रह्माण्ड परब्रह्म परमात्मा का खेल है। जैसे बालक मिट्टी के घरोंदे बनाता है, कुछ समय उसमें रहने का अभिनय करता है और अंत मे उसे ध्वस्त कर चल देता है। उसी प्रकार परब्रह्म भी इस अनन्त सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और अंत में उसका संहारकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही उसकी क्रीडा है, यही उसका अभिनय है, यही उसका मनोविनोद है, यही उसकी निर्गुण-लीला है जिसमें हम उसकी लीला को तो देखते हैं, परन्तु उस लीलाकर्ता को नहीं देख पाते।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गौओं की जननी सुरभी की प्राकट्य लीला

गौ गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को अदिति कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

भगवान श्रीकृष्ण का गोलोकधाम

गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। वहां न काल की दाल गलती है और न ही माया का कोई वश चलता है फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। यह केवल मंगल का धाम है जो समस्त लोकों में श्रेष्ठतम है।