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जिन नैनन श्रीकृष्ण बसे, वहां कोई कैसे समाय

श्रीराधा की पायल सूरदासजी के हाथ में आ गई । श्रीराधा के पायल मांगने पर सूरदासजी ने कहा पहले मैं तुम्हें देख लूं, फिर पायल दूंगा । दृष्टि मिलने पर सूरदासजी ने श्रीराधाकृष्ण के दर्शन किए । जब उन्होंने कुछ मांगने को कहा को सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी ‘टाका माटी’ के खेल का अभ्यास किया करते थे । वे एक हाथ में ‘टाका’ यानी सिक्का और दूसरे में मिट्टी का ढेला लेते और ‘टाका माटी’, ‘टाका माटी’ कहते हुए उन्हें दूर फेंक देते थे । ऐसा अभ्यास वे पैसे के प्रलोभन से बचने के लिए अर्थात् पैसा और मिट्टी एक बराबर समझने के लिए करते थे ।

विश्व-रंगमंच के सूत्रधार श्रीकृष्ण

गांधारी की तेजदृष्टि से वज्र-सी देह होने पर भी क्यों मारा गया दुर्योधन?

अर्जुन के रथ के सारथि श्रीकृष्ण

भगवान को अपने जीवन का सारथी कैसे बनाएं ?

जहां देखो वहां मौजूद कृष्ण प्यारा है

गीता के वचन ‘वासुदेव: सर्वम्’ के अनुसार यशोदाजी को श्रीकृष्ण के मुख में हुए ब्रह्माण्ड के दर्शन

जीवन जीने की कला सिखाती है श्रीमद्भगवद्गीता

संसार में जीवन जीने की कला एक विद्या है। यदि हम उस विद्या को अच्छी तरह जान जाएं तो हमारा बेड़ा पार है। गीता जीवन जीने की कला सिखाने वाली ब्रह्मविद्या है।

अनन्त शास्त्रों का सार ‘श्रीमद्भगवद्गीता’

श्रीमद्भगवद्गीता भगवान के विभूतिरूप मार्घशीर्षमास में, भगवान की प्रिय तिथि शुक्लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा एकादशी) को धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी है जो उन्होंने अर्जुन को निमित्त बनाकर कही है। एक ही शास्त्र है--'श्रीमद्भगवद्गीता'; एक ही आराध्य हैं--देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण, एक ही मन्त्र है--उनका नाम (कृष्ण, गोविन्द, माधव, हरि, गोपाल आदि) और हमारा एक ही कर्त्तव्य है--भगवान श्रीकृष्ण की सेवा-पूजा और श्रद्धा से उन्हें हृदय में धारण करना।

परब्रह्म की सृष्टिकामना और गोलोक का प्राकट्य

अव्यक्त से व्यक्त होना, एक से अनेक होना, निराकार से साकार होना, सूक्ष्म का स्थूल होना सृष्टि है। वे स्वयं ही अपने-आपकी, अपने-आप में, अपने-आप से ही सृष्टि करते हैं। वे ही स्रष्टा, सृज्य और सृष्टि हैं। उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। सृष्टि को अनादि माना जाता है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि--यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। विभिन्न कल्पों में सृष्टि वर्णन में भी भिन्नता पाई जाती है। कभी आकाश से, कभी तेज से, कभी जल से और कभी प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। रजोगुण की प्रधानता से सृष्टि होती है और तमोगुण की प्रधानता से प्रलय होता है।