गोघृत (गाय का घी) देवताओं का अत्यन्त प्रिय और आनन्द देने वाला भोजन माना गया है । सभी धार्मिक कार्यों में देवताओं को प्रधान हवि के रूप में गोघृत अर्पित किया जाता है ।
— यज्ञ में देवताओं के लिए जो हवनीय सामग्री अर्पित की जाती है उसके साथ घी की आहुति चलती है । देवतागण यज्ञ में अग्नि के द्वारा घी से चूती हुई आहुतियों का भोजन करते हैं । हवन व यज्ञ में डाली गयी घी की आहुति सारे वातावरण को शुद्ध कर देती है और कीटाणुओं का नाश कर देती है । इसलिए यह देवताओं और मनुष्यों दोनों के लिए प्रिय है ।
— गोघृत या घी को एक मांगलिक और पवित्र पदार्थ माना गया है इसीलिए घी में पके अन्न और हविष्य पदार्थ अशुद्ध नहीं माने जाते हैं । घी के बिना भोजन आसुरी हो जाता है ।
— प्रमुख कृष्ण मन्दिरों में भगवान के प्रसाद के सभी कच्चे व पक्के पकवान, छप्पन भोग आदि गाय के शुद्ध घी से ही बनते हैं ।
— भगवान बालकृष्ण का तो सबसे प्रिय भोजन माखन (घी का पूर्व रूप) ही है । समस्त विश्व का पेट भरने वाले परब्रह्म श्रीकृष्ण की क्षुधा गोमाता के माखन से ही मिटती है । किसी संत ने क्या खूब कहा है—जिस परमात्मा का साक्षात्कार योगीजन अनेक वर्षों तक ध्यान लगाने पर भी भी नहीं कर पाते, वही व्रज में बैठा माखन अरोग रहा है—
‘जाको ध्यान न पावे जोगी ।
सो व्रज में माखन को भोगी ।।’
श्रीकृष्ण का एक सुन्दर स्वरूप है जिसमें वे अपने एक हाथ में ताजा माखन (नवनीत) का लोंदा लिए नंदभवन के आंगन में घुटवन चल रहे हैं, उनके मुख पर माखन का लेप है और शरीर पर भूमि की रज लगी है—
सोभित कर नवनीत लिये ।
घुटुरुन चलत, रेनु तन मंडित,
मुख दधि-लेप किये ।।
— परमात्मा की शक्ति को सात भागों में बांटा गया है—1. श्री, 2. लक्ष्मी, 3. धृति, 4. मेधा, 5. पुष्टि, 6. श्रद्धा तथा 7. सरस्वती । इन्हें घृत के रूप में ही प्रत्यक्ष माना गया है और इन्हें ‘सप्त घृतमातृका’ कहा जाता है । घृतमातृका की आराधना से सभी विघ्नों व अमंगलों का नाश हो जाता है और कल्याण व सिद्धि की प्राप्ति होती है ।
— यदि मन्दिर में भगवान के सामने गाय के घी का अखण्ड दीप कुछ दिन तक प्रज्ज्वलित किया जाए तो ऐसा माना जाता है कि वहां पर सभी देवी-देवता वास करने लगते हैं । इसीलिए विशेष अनुष्ठानों जैसे शतचण्डी, अखण्ड रामायण आदि में अखण्ड दीप जलाया जाता है ।
— पूजा के आरम्भ में ही ‘साक्षीदीप’ जलाया जाता है और प्रार्थना की जाती है—‘हे दीप देव ! आप मेरे इष्टदेव को अत्यन्त प्रिय हैं, कर्मों के साक्षी हैं, सुख-समृद्धि को देने वाले हैं, अाप मेरे निकट रहकर मेरे पूजा कर्म का साक्षी बनिए ।’ पूजा कार्य में गाय का घी ही प्रयोग करना चाहिए ।
— भगवान की पूजा में प्रयोग किए जाने वाले पंचामृत और मधुपर्क में मंगल पदार्थ और पवित्रता के लिए गोघृत मिलाया जाता है ।
— शिवलिंग पर शिव सहस्त्रनाम का जप करते हुए गाय के घी की धारा चढ़ाने से वंश का विस्तार होता है। नपुंसकता दोष को दूर करने के लिए व जिसकी संतान होकर मर जाती है, गाय के घी से शिवजी की पूजा करनी चाहिए ।
— शास्त्रों में प्रायश्चित विधान में व देह की शुद्धि के द्वारा शरीर के सभी पापों के नाश के लिए पंचगव्य बनाकर पीने की आज्ञा दी गयी है । पंचगव्य बनाने में अनेक रंग की गायों के घी, दूध, दही आदि को निश्चित मात्रा में मिलाया जाता है । पंचगव्य का सेवन करने से हमारे दुष्ट संस्कार वैसे ही जल जाते हैं जैसे अग्नि में ईंधन जल जाता है ।
— देवताओं और देवियों की प्रसन्नता और अनिष्ट दूर करने के लिए घृत-धेनु और घृताचल आदि के दान का नियम है ।
— अनिष्ट ग्रहदशा दूर करने के लिए ‘घृतच्छायादान’ (घी से भरे बर्तन में अपना बिम्ब देखकर दान देना) किया जाता है ।
— पितरों की तृप्ति भी घृत में बने आहार से ही होती है ।
— छांदोग्योपनिषद् में घी को अस्थि, मज्जा तथा वाक् (वाणी) उत्पन्न करने वाला तेज कहा गया है । इससे वाणी शुद्ध और मधुर होती है इसीलिए सामवेद के गान से पहले घी पीने का विधान है ।
— आयुर्वेद में घी को आयु कहा गया है । इसे अमृत भी कहते हैं । स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी राजा पुरुरवा के पास गयी तो उसने अमृत की जगह गाय का घी पीना ही स्वीकार किया ।
— गोघृत को शास्त्रों में अलक्ष्मी-नाशक, पापनाशक, कीटाणु-हारक, आयुष्कर, आयु:-स्थापक, रसायन, रोचक, अच्छी सुगन्धि वाला, देखने में सुन्दर आदि विशेषण दिए गए हैं क्योकि यह—
विपाके मधुरं शीतं वातपित्तविषापहम् ।
चाक्षुष्यमग्र्यं बल्यश्च गव्यं सर्पिर्गुणोत्तरम् ।।
अर्थात्—गाय के घी का सेवन अंधा होने से बचाता है, मन्दाग्नि का नाश करता है, बल देने वाला है, वात-पित्त-कफ—त्रिदोष का नाशक है व मेधा (बुद्धि), लावण्य, कान्ति, ओज, और तेज को बढ़ाने वाला है ।
—पद्मपुराण में गोघृत का एक मन्त्र है जिसे सुबह शाम जपने से सभी प्रकार के पापों का नाश हो जाता है—
घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवा: ।
घृतनद्यो घृतावर्ता मे सन्तु सदा गृहे ।।
घृतं मे सर्वगात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम् ।
गावो ममाग्रतो नित्यं गाव: पृष्ठत एव च ।।
गावश्च सर्वगात्रेषु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।
अर्थात् —गायें दूध और घी प्रदान करने वाली हैं । वे घृत की उत्पत्ति-स्थान और घी की उत्पत्ति में कारण हैं । वे घी की नदियां हैं, उनमें घी की भंवरें उठती हैं । ऐसी गौएं सदा मेरे घर पर मौजूद रहें । घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मन में स्थित हो । गौएं सदा मेरे आगे रहें । वे ही मेरे पीछे रहें । मेरे सब अंगों को गौओं का स्पर्श प्राप्त हो । मैं गोओं के बीच में निवास करुं ।
— ऋग्वेद में घी की स्तुति का एक सूक्त है जिसमें कहा गया है कि जिस प्रकार गाय के दूध में घी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता है बल्कि दूध का दही बनाकर फिर उसका मंथन कर (बिलोकर) मक्खन बनाकर उस सार रूप से घी बनाया जाता है उसी प्रकार संसार में परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है लेकिन साधना से मंथन करने पर ही ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है ।
देवताओं और मनुष्यों—दोनों की तृष्टि और पुष्टि के लिए गोघृत अत्यन्त आवश्यक है । गाय का घी जितना पुराना हो जाता है, उतना ही वह गुणकारी हो जाता है । दस वर्ष पुराना घी ‘जीर्ण’, सौ से एक हजार वर्ष तक पुराना ‘कौम्भ’ और ग्यारह सौ वर्षों से अधिक पुराना घी ‘महाघृत’ कहलाता है ।