मृत्युंजयो मृत्युमृत्यु: कालकालो यमान्तक:।
वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदांगपारग:।। (हिमालयकृत शिवस्तोत्र ६)
अर्थात्–‘हे परम शिव! आप मृत्युंजय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा यम के भी यम हैं। वेद, वेदकर्ता तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान भी आप ही हैं।’ (पर्वतराज हिमालय की स्तुति)
भारतीय संस्कृति में भगवान शिव देवाधिदेव रूप में पूज्य हैं। औढरदानी आशुतोष शिव सुर-असुर, दानव-मानव सबके निर्विवाद आराध्य हैं। भक्त के शुद्ध भाव का आभास पाते ही बिना परीक्षा लिए वे प्रकट होकर उसकी मनोकामना पूरी करते हैं। ऐसे सर्वप्रिय, भक्तवत्सल, सर्वसुलभ भगवान शंकर द्वारा भृगुपुत्र शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करने वाले प्रसंग का यहां वर्णन किया गया है।
ब्रह्माजी के पौत्र शुक्राचार्य (कवि)
ब्रह्माजी के देवर्षि नारद, अंगिरा और भृगु तीन मानस पुत्र थे। अंगिरा के पुत्र बृहस्पति थे और भृगु के पुत्र का नाम कवि (शुक्र) था। महर्षि अंगिरा बृहस्पति और कवि को शिक्षा देने लगे और भृगु तपस्या के लिए वन में चले गए। कवि कुशाग्रबुद्धि होने से पढ़ने में तेज थे इसलिए अंगिरा पुत्रमोह के कारण दोनों बच्चों की शिक्षा में भेदभाव करने लगे। कवि ने जब देखा कि बृहस्पति की तरह उसे उतनी शिक्षा नहीं मिल रही है तो वह ऋषि अंगिरा की अनुमति लेकर किसी दूसरे गुरु की खोज में चल दिए। गौतम ऋषि के आश्रम में जाकर कवि ने उनसे संसार के सर्वश्रेष्ठ गुरु के बारे में पूछा। महर्षि गौतम बोले–’तीनों लोकों में तो सर्वश्रेष्ठ गुरु भगवान शंकर हैं। तुम उनकी शरण में जाओ।’
लिंगरूपो महादेवो ह्यर्चनीयो मुमुक्षुभि:।
शिवात् परतरो नास्ति भुक्तिमुक्तिप्रदायक:।। स्कन्दपुराण (माहेश्वरखण्ड)
अर्थात्–’मुमुक्षुजनों को शिवलिंगरुपी महादेव की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि उनसे बढ़कर भुक्ति और मुक्ति देने वाले अन्य कोई देवता नहीं हैं।’
भृगुपुत्र कवि द्वारा कठिन पूजन व तप से अपना चित्तरत्न भगवान शिव को अर्पण करना
वाराणसीपुरी जाकर भृगुपुत्र कवि ने भगवान विश्वनाथ का ध्यान करके एक शिवलिंग की स्थापना की व एक कुएं का निर्माण कराया। विशेष शिवपूजन अनुष्ठान में संख्या का बहुत महत्व होता है। एक लाख लोटे जल, एक लाख बेलपत्र, एक लाख पुष्प (कमल), एक लाख अक्षत, एक लाख तिल, एक लाख जौ, एक लाख अनाज (गेहूँ, मूंग) व शिवलिंगी के बीज आदि वैशाख, श्रावणमास या चतुर्मास में भगवान शिव को अर्पित किए जाते हैं। चूंकि कवि का लक्ष्य बहुत ऊंचा था अत: उनकी पूजा व तप भी अत्यन्त कठोर व दुस्सह थे।
उन्होंने पंचामृत से व सुगन्धित द्रव्यों से उस शिवलिंग का एक लाख बार स्नान कराया और हजारों बार उस शिवलिंग पर सुगन्धित उबटन (कपूर, कस्तूरी, अगरु व कंकोल मिलाकर बनाया गया लेप) व चन्दन का लेपन करते थे। शिवजी की प्रसन्नता के लिए नाना प्रकार के पुष्पों व पत्रों से उनका श्रृंगार करते। वे भगवान शिव को नृत्य और गीत से रिझाते, तरह-तरह की भेंट सामग्री अर्पित करते व सहस्त्रनाम आदि द्वारा शिव का स्तवन करके कठोर नियम का पालन करने लगे। जब उन्होंने शिवजी को प्रसन्न होते हुए नहीं देखा तो अत्यन्त कठिन दूसरा नियम ले लिया।
मन व इन्द्रियों के चंचलतारूपी मल को ध्यान के जल से धोकर कवि ने अपने चित्त को निर्मल कर लिया और फिर उस चित्तरूपी रत्न को भगवान शिव को अर्पण कर केवल धूमकणों (होम का धुआं) का पान करते थे। भगवान शंकर कवि के घोर तप से प्रसन्न होकर शिवलिंग से प्रकट हो गए और कवि से वर मांगने के लिए कहा। साक्षात् पार्वतीपति भगवान शिव को देखकर भृगुपुत्र कवि ‘अष्टमूर्त्यष्टक स्तोत्र’ द्वारा भगवान शंकरजी की स्तुति करने लगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, यजमान, चन्द्रमा और सूर्य–इन आठ में अधिष्ठित शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव और ईशान ये भगवान शंकर की अष्टमूर्तियां हैं। भृगुनन्दन कवि ने कहा–‘आत्मरूप शंकर! आप समस्त प्राणियों के अन्तरामा में निवास करने वाले, प्रत्येक रूप में व्याप्त हैं और मैं आप परमात्मा का जन हूँ। अष्टमूर्ते! आपकी इन रूप परम्पराओं से यह चराचर विश्व विस्तार को प्राप्त हुआ है, अत: मैं सदा आपको नमस्कार करता हूँ।’
इस प्रकार शिवजी की स्तुति कर भृगुनन्दन कवि ने कहा–‘ब्रह्मादिक ऋषियों को भी जो विद्या प्राप्त नहीं है, ऐसी विद्या मैं आपसे प्राप्त करना चाहता हूं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे मृत प्राणियों को संजीवित कर देने वाली विद्या प्रदान करें।’
यदि तुष्टो महादेव विद्यां देहि महेश्वर।
यया जीवन्ति संप्राप्ता मृत्युं संख्येऽपि जन्तव:।। (स्कन्दपुराण)
भगवान शिव द्वारा कवि (शुक्राचार्य) को मृत्यु पर विजय प्राप्त कराने वाली मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।। (विनयपत्रिका)
भोले-भण्डारी मुंहमांगा वरदान देने में कुछ भी आगा-पीछा नहीं सोचते। आशुतोष भगवान शिव जब प्रसन्न होते हैं तो साधक को अपनी दिव्य शक्ति प्रदान कर देते हैं। भगवान शंकर ने कहा–‘हे भृगुनन्दन कवि! तुम्हारे द्वारा की गयी उग्र तपस्या, शिवलिंग का निर्माण व पूजन व अपने निर्मल चित्तरत्न का मुझमें समर्पण तथा काशी जैसे अविमुक्त क्षेत्र में किए गए पुण्यों के फलस्वरूप मैं तुम्हें पुत्ररूप में देखता हूँ। जो मेरे तपोबल से निर्मित मृतसंजीवनी विद्या है, उसे मैं तुमको प्रदान करता हूँ।’
भगवान शंकर ने मृत प्राणियों को जीवित कर देने की शक्तिशाली संजीवनी विद्या कवि को प्रदान कर दी साथ ही यह वर दिया कि ‘तुम आकाश में अत्यन्त दीप्तिमान् तारारूप से स्थित होओगे। आकाश में तुमारा तेज सब नक्षत्रों में सबसे उज्जवल होगा। जो स्त्री और पुरुष तुम्हारे सम्मुख रहने पर यात्रा करेंगे, उनका सारा कार्य तुम्हारी दृष्टि पड़ने से नष्ट हो जाएगा। तुम्हारे उदयकाल में ही मनुष्यों के विवाह आदि शुभ कार्य फलप्रद होंगे। तुम्हारे द्वारा स्थापित शिवलिंग ’शुक्रेश्वर’ कहलाएगा। हर शुक्रवार को एक वर्ष तक जो इस शिवलिंग की शुक्रकूप में स्नान कर पूजा करेगा, व नक्तव्रत (रात्रि में एक समय भोजन) करेगा, वह पुरुषत्व, सौभाग्यसम्पन्न, पुत्रवान, विद्यावान व सुखी होगा।’
असुरों के गुरु शुक्राचार्य
संजीवनी विद्या प्राप्तकर कवि (शुक्राचार्य) अपने पिता के पास लौट आए। दैत्यों ने शुक्राचार्य को अपना गुरु बना लिया। भगवान शंकर जब असुरों के विनाश के लिए उनसे युद्ध कर रहे थे, तब दैत्यों की हार से घबराकर अन्धकासुर शुक्राचार्य की शरण में आया और मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा मरे हुए असुरों को जीवित करने की प्रार्थना करने लगा। शरणागतधर्म की रक्षा के लिए असुरों के गुरु शुक्राचार्य मृत असुरों को अपनी संजीवनी विद्या के प्रभाव से जीवित करने लगे। यह जानकर भगवान शिव ने नन्दीश्वर को शुक्राचार्य को पकड़ लाने की आज्ञा दी।
भगवान शिव का शुक्राचार्य को निगल जाना
नन्दीश्वर शुक्राचार्य को पकड़ लाए तो गिरिजापति शिव ने उन्हें निगल लिया। सौ वर्षों तक कवि शिवजी की कुक्षि (पेट) में चारों ओर घूमते रहे पर उन्हें बाहर निकलने के लिए कोई छिद्र नहीं दिखायी दिया। उन्हें भगवान शिव के उदर में सारा ब्रह्माण्ड दिखाई दिया। यहां तक कि असुरों व शिवगणों के बीच होने वाले युद्ध को भी उन्होंने शिवजी के उदर में देखा। तब शिवजी से प्राप्त किए गए योग से वह मन्त्र का जाप करते रहे।
शुक्राचार्य द्वारा भगवान शंकर के १०८ नामों का जप
भगवान शंकर के उदर में शुक्राचार्य ने जिस मन्त्र का जप किया था, वह शिवजी के १०८ नाम हैं, उनका हिन्दी भावार्थ इस प्रकार है–
ॐ १. जो देवताओं के स्वामी, २. सुर-असुर द्वारा वन्दित, ३. भूत और भविष्य के महान देवता, ४. हरे और पीले नेत्रों से युक्त, ५. महाबली, ६. बुद्धिस्वरूप, ७. बाघम्बर धारण करने वाले, ८. अग्निस्वरूप, ९. त्रिलोकी के उत्पत्तिस्थान, १०. ईश्वर, ११. हर, १२. हरिनेत्र, १३. प्रलयकारी, १४. अग्निस्वरूप, १५. गणेश, १६. लोकपाल, १७. महाभुज, १८. महाहस्त, १९. त्रिशूल धारण करने वाले, २०. बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले, २१. कालस्वरूप, २२. महेश्वर, २३. अविनाशी, २४. कालरूपी, २५. नीलकण्ठ, २६. महोदर, २७. गणाध्यक्ष, २८. सर्वात्मा, २९. सबको उत्पन्न करने वाले, ३०. सर्वव्यापी, ३१. मृत्यु को हटाने वाले, ३२. पारियात्र पर्वत पर उत्तम व्रत धारण करने वाले, ३३. ब्रह्मचारी, ३४. वेदान्तप्रतिपाद्य, ३५. तप की अंतिम सीमा तक पहुंचने वाले, ३६. पशुपति, ३७. विशिष्ट अंगों वाले, ३८. शूलपाणि, ३९. वृषध्वज, ४०. पापापहारी, ४१. जटाधारी, ४२. शिखण्ड धारण करने वाले, ४३. दण्डधारी, ४४. महायशस्वी, ४५. भूतेश्वर, ४६. गुहा में निवास करने वाले, ४७. वीणा और पणव पर ताल लगाने वाले, ४८. अमर, ४९. दर्शनीय, ५०. बालसूर्य के समान रूप वाले, ५१. श्मशानवासी, ५२. ऐश्वर्यशाली, ५३. उमापति, ५४. शत्रुदमन, ५५. भग के नेत्रों को नष्ट कर देने वाले, ५६. पूषा के दांतों के विनाशक, ५७. क्रूरतापूर्वक संहार करने वाले, ५८. पाशधारी, ५९. प्रलयकालरूप, ६०. उल्कामुख, ६१. अग्निकेतु, ६२. मननशील, ६३. प्रकाशमान, ६४. प्रजापति, ६५. ऊपर उठाने वाले, ६६. जीवों को उत्पन्न करने वाले, ६७. तुरीयतत्त्वरूप, ६८. लोकों में सर्वश्रेष्ठ, ६९. वामदेव, ७०. वाणी की चतुरतारूप, ७१. वाममार्ग में भिक्षुरूप, ७२. भिक्षुक, ७३. जटाधारी, ७४. जटिल–दुराराध्य, ७५. इन्द्र के हाथ को स्तम्भित करने वाले, ७६. वसुओं को विजडित कर देने वाले, ७७. यज्ञस्वरूप, ७८. यज्ञकर्ता, ७९. काल, ८०. मेधावी, ८१. मधुकर, ८२. चलने-फिरने वाले, ८३. वनस्पति का आश्रय लेने वाले, ८४. वाजसन नाम से सम्पूर्ण आश्रमों द्वारा पूजित, ८५. जगद्धाता, ८६. जगत्कर्ता, ८७. सर्वान्तर्यामी, ८८. सनातन, ८९. ध्रुव, ९०. धर्माध्यक्ष, ९१. भू:-भुव:, स्व:–इन तीनों लोकों में विचरने वाले, ९२. भूतभावन, ९३. त्रिनेत्र, ९४. बहुरूप, ९५. दस हजार सूर्यों के समान प्रभाशाली, ९६. महादेव, ९७. सब तरह के बाजे बजाने वाले, ९८. सम्पूर्ण बाधाओं से विमुक्त करने वाले, ९९. बन्धनस्वरूप, सबको धारण करने वाले, १००. उत्तम धर्मरूप, १०१. पुष्पदन्त, १०२. विभागरहित, १०३. मुख्यरूप, १०४. सबका हरण करने वाले, १०५. सुवर्ण के समान दीप्त कीर्ति वाले, १०६. मुक्ति के द्वारस्वरूप, १०७. भीम तथा १०८. भीमपराक्रमी हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है।
भृगुपुत्र कवि का शुक्राचार्य नाम क्यों पड़ा?
इसी मन्त्र का जप करके शुक्राचार्य शंकर के उदर से शुक्र (वीर्य) रूप में लिंगमार्ग से बाहर निकले। शिवजी ने कहा–’तुम मेरे लिंगमार्ग से शुक्ररूप में प्रकट हुए हो, इसलिए अब से तुम्हारा नाम ‘शुक्र’ होगा। अब से तुम मेरे पुत्र कहलाओगे।’ उस समय माता गौरी ने उन्हें पुत्र की तरह माना और जगदीश्वर शिव ने उन्हें अजर-अमर एवं ऐश्वर्यमय बना दिया। तबसे असुर गुरु कवि शुक्राचार्य कहे जाने लगे। शुक्र अब भी आकाश में एक तारे (नक्षत्र) के रूप में स्थित हैं और वर्षा आदि की सूचना देते हैं। शुक्राचार्य को कवि, शुक्र, भार्गव व भृगुनन्दन के नाम से जाना जाता है।
हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्रप्रवक्त्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्।।