हिन्दू धर्म में अनेक देवी-देवता हैं; परन्तु भगवान सूर्य साक्षात् देवता हैं । भगवान सूर्य की उपासना करने से कौन-सा ऐसा कार्य है जो नहीं बन जाता ? भगवान सूर्य को नित्य अर्घ्य देने व सूर्य चालीसा का पाठ करने से यश, श्री, सौंदर्य, ख्याति, कीर्ति, राज्य-सुख आदि सभी कुछ प्राप्त होता है व मनुष्य के दु:ख-दारिद्रय व शत्रु नष्ट हो जाते है ।
सरल भाषा में चालीस दोहों में की गयी भगवान की प्रार्थना को चालीसा कहते हैं । चालीसा में सम्बन्धित देवता के स्वरूप, लीला, गुण व महिमा का बखान होता है । संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने से अधिकांश लोगों को स्तोत्र व मन्त्रों का जाप करना मुश्किल होता है । उसमें अशुद्धि की संभावना ज्यादा रहती है । सरल भाषा में लिखी होने के कारण चालीसा का पाठ करना ज्यादा आसान होता है; इसलिए चालीसा का पाठ करना भगवान की उपासना की सर्वश्रेष्ठ व सरल विधि है । चालीसा का पाठ प्राय: जोर से व मधुर लय में तन्मयता के साथ करना चाहिए । चालीसा में अलग-अलग चौपाइयां मन्त्र का ही काम करती हैं । इसलिए यदि किसी चौपाई का 108 बार जप कर लिया जाए तो वह मन्त्र की एक माला के समान फलदायी होता है ।
सूर्य को अर्घ्य देकर करें सूर्य चालीसा का पाठ
सूर्य उपासना प्रात: सूर्योदय के प्रथम घंटे में करना ज्यादा फलदायी होता है । प्रतिदिन शुद्ध जल से स्नान करके भगवान सूर्य को अर्घ्य देकर सूर्य चालीसा का पाठ करने से मनुष्य के सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । यदि नित्य सूर्य चालीसा नहीं पढ़ सकते तो केवल रविवार को पाठ कर सकते हैं ।
सूर्य चालीसा हिन्दी अर्थ सहित)
कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अंग ।
पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के संग ॥
अर्थात्—भगवान सूर्य के शरीर की कांति सोने की सी है, कानों में मकराकृति कुंडल हैं, गले में मोतियों की माला है । पद्मासन में बैठे हुए है और दोनों हाथों में शंख और चक्र लिए है—सूर्य भगवान की ऐसी छवि का ध्यान करना चाहिए ।
॥चौपाई॥
जय सविता जय जयति दिवाकर ! ।
सहस्त्रांशु ! सप्ताश्व तिमिरहर ॥
भानु ! पतंग ! मरीची ! भास्कर !।
सविता हंस ! सुनूर विभाकर ॥
विवस्वान ! आदित्य ! विकर्तन ।
मार्तण्ड हरिरूप विरोचन ॥
अम्बरमणि ! खग ! रवि कहलाते।
वेद हिरण्यगर्भ कह गाते ॥
सहस्त्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि ।
मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि ॥
अर्थात्—हे सवितृदेव आपकी जय हो, हे दिवाकर आपकी जय हो । हे सहस्त्रांशु, सप्ताश्व, तिमिरहर, भानु, पतंग, मरीची, भास्कर, सविता हंस, विभाकर, विवस्वान, आदित्य, विकर्तन, मार्तण्ड, विष्णुरुप विरोचन, अंबरमणि, खग और रवि कहलाने वाले भगवान सूर्य, जिन्हें वेदों में हिरण्यगर्भ कहा गया है । सहस्त्रांशु प्रद्योतन (देवताओं की रक्षा के लिए देवमाता अदिति के तप से प्रसन्न होकर सूर्यदेव उनके पुत्र के रुप में हजारवें अंश में प्रकट हुए थे) कहकर मुनिगण खुशी से झूमते हैं ।
अरुण सदृश सारथी मनोहर ।
हांकत हय साता चढ़ि रथ पर ॥
मंडल की महिमा अति न्यारी ।
तेज रूप केरी बलिहारी ॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते ।
देखि पुरन्दर लज्जित होते ॥
मित्र मरीचि भानु अरुण भास्कर ।
सविता सूर्य अर्क खग कलिकर ॥
पूषा रवि आदित्य नाम लै ।
हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै ॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं ।
मस्तक बारह बार नवावैं ॥
चार पदारथ जन सो पावै ।
दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै ॥
अर्थात्—भगवान सूर्य के सारथी अरुण हैं, जो रथ पर सवार होकर सात घोड़ों को हांकते हैं । आपके मण्डल की महिमा बहुत अलग है । आपके इस तेज रुप पर हम बलिहारी जाते हैं । आपके रथ में उच्चै:श्रवा (समुद्र-मंथन के दौरान निकले 14 रत्नों में एक उच्चै:श्रवा घोड़ा भी था जिसे देवराज इंद्र को दिया गया था) के समान घोड़े जुते हुए हैं, जिन्हें देखकर स्वयं इंद्र भी शर्माते हैं । मित्र, मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर, सविता, सूर्य, अर्क, खग, कलिकर, रवि एवं आदित्य नाम लेकर और हिरण्यगर्भाय नम: कहकर बारह मासों में आपके इन नामों का प्रेम से गुणगान करने और बारह बार नमन करने से चारों पदार्थ—अर्थ, बल, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है व दुख, दरिद्रता और पाप नष्ट हो जाते हैं ।
नमस्कार को चमत्कार यह ।
विधि हरिहर को कृपासार यह ॥
सेवै भानु तुमहिं मन लाई ।
अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई ॥
बारह नाम उच्चारन करते ।
सहस जनम के पातक टरते ॥
उपाख्यान जो करते तव जन ।
रिपु सों जमलहते सो तेहि छन ॥
धन सुत जुत परिवार बढ़तु है ।
प्रबल मोह को फंद कटतु है ॥
अर्थात्—सूर्य नमस्कार का यह चमत्कार होता है कि इससे भगवान सूर्य की कृपा आसानी से प्राप्त हो जाती है । जो भी मन लगाकर भगवान सूर्य की सेवा करता है, वह आठों सिद्धियां व नौ निधियां प्राप्त करता है । सूर्य के बारह नामों का उच्चारण करने से हजारों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं । जो जन आपकी महिमा का गुणगान करते हैं, आप क्षण में ही उन्हें शत्रुओं से छुटकारा दिलाते हो । उनके धन, संतान सहित परिवार में समृद्धि बढ़ती है, बड़े से बड़े मोह के बंधन भी कट जाते हैं ।
अर्क शीश की रक्षा करते ।
रवि ललाट पर नित्य बिहरते ॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत ।
कर्ण देस पर दिनकर छाजत ॥
भानु नासिका वास करहु नित ।
भास्कर करत सदा मुख को हित ॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे ।
रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे ॥
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा ।
तिग्म तेजसः कांधे लोभा ॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर ।
त्वष्टा वरुण रहत सुउष्णकर ॥
युगल हाथ पर रक्षा कारन ।
भानुमान उर सर्मं सुउदरचन ॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर ।
कटिमंह, रहत मन मुदभर ॥
जंघा गोपति सविता बासा ।
गुप्त दिवाकर करत हुलासा ॥
विवस्वान पद की रखवारी ।
बाहर बसते नित तम हारी ॥
सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै ।
रक्षा कवच विचित्र विचारे ॥
अर्थात्—भगवान सूर्य अर्क के रुप में शीश की रक्षा करते हैं तो मस्तक पर रवि नित्य विहार करते हैं । सूर्य रुप में वे आंखों में बसे हैं तो दिनकर रुप में कानों अर्थात श्रवण इंद्रियों पर रहते हैं । भानु रुप में वे नासिका में वास करते हैं तो भास्कर रुप सदा चेहरे के लिए हितकर होता है । सूर्यदेव होठों पर पर्जन्य रूप में, जिह्वा पर तीक्ष्ण अर्थात तीखे रुप में बसते हैं । कंठ पर सुवर्ण रेत की तरह शोभायमान हैं तो कंधों पर तेजधार हथियार के समान तिग्म तेजस: रुप में । भुजाओं में पूषा तो पीठ पर मित्र रुप में त्वष्टा, वरुण के रुप में सदा गर्मी पैदा करते रहते हैं । युगल रुप में रक्षा कारणों से हाथों पर विराजमान हैं, तो भानुमान के रुप में हृदय में आनन्दरुप रहते हुए उदर में विचरते हैं । नाभि में मनोहर रुप आदित्य बसते हैं, तो वहीं कमर में मन मुदभर के रुप में रहते हैं। जांघों में गोपति सविता रुप में रहते हैं तो दिवाकर रुप में गुप्त इंद्रियों में । पैरों के रक्षक आप विवस्वान रुप में हैं । अंधेरे का नाश करने के लिए आप बाहर रहते हैं । सहस्त्रांशु रुप में आप प्रकृति के हर अंग को संभालते हैं आपका रक्षा कवच बहुत ही विचित्र है।
अस जोजन अपने मन माहीं ।
भय जगबीच करहुं तेहि नाहीं ॥
दद्रु कुष्ठ तेहिं कबहु न व्यापै ।
जोजन याको मन मंह जापै ॥
अंधकार जग का जो हरता ।
नव प्रकाश से आनन्द भरता ॥
ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही ।
कोटि बार मैं प्रनवौं ताही ॥
मंद सदृश सुत जग में जाके ।
धर्मराज सम अद्भुत बांके ॥
धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा ।
किया करत सुरमुनि नर सेवा ॥
अर्थात्—जो भी व्यक्ति भगवान सूर्य का स्मरण करता है उसे दुनिया में किसी चीज से भय नहीं रहता । जो भी व्यक्ति सूर्य का जाप करता है उसे किसी भी प्रकार के चर्म रोग एवं कुष्ठ रोग नहीं होते हैं । सूर्यदेव पूरे संसार के अंधकार को मिटाकर उसमें अपने प्रकाश से आनन्द को भरते हैं । हे सूर्यदेव ! मैं आपको कोटि-कोटि प्रणाम करता हूं क्योंकि आपके प्रताप से ही अन्य ग्रहों के दोष भी दूर हो जाते हैं । इन्हीं सूर्यदेव के धर्मराज के समान पुत्र शनिदेव हैं जो न्यायाधिकारी हैं । हे दिनमनि ! आप धन्य हैं, देवता, ऋषि-मुनि, सब आपकी सेवा करते हैं ।
भक्ति भावयुत पूर्ण नियम सों ।
दूर हटतसो भवके भ्रम सों ॥
परम धन्य सों नर तनधारी ।
हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी ॥
अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन ।
मधु वेदांग नाम रवि उदयन ॥
भानु उदय बैसाख गिनावै ।
ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै ॥
यम भादों आश्विन हिमरेता ।
कातिक होत दिवाकर नेता ॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं ।
पुरुष नाम रविहैं मलमासहिं ॥
अर्थात्—जो भी नियमपूर्वक पूरे भक्तिभाव से सूर्यदेव की भक्ति करता है, वह भव के भ्रम से दूर हो जाता है अर्थात उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। जो भी आपकी भक्ति करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं । जिन पर आपकी कृपा होती है, आप उनके दुखों के अंधेरे को दूर कर जीवन में खुशियों का प्रकाश लेकर आते हैं । माघ माह में आप अरुण तो फाल्गुन में सूर्य, बसंत ऋतु में वेदांग तो उदयकाल में आप रवि कहलाते हैं । वैशाख में उदयकाल के समय आप भानु तो ज्येष्ठ माह में इंद्र, वहीं आषाढ़ में रवि कहलाते हैं । भादों माह में यम तो आश्विन में हिमरेता कहलाते हैं, कार्तिक माह में दिवाकर के नाम से आपकी पूजा की जाती है। अगहन (मार्गशीर्ष) में भिन्न नामों से पूजे जाते हैं तो पौष माह में विष्णु रुप में आपकी पूजा होती हैं । मलमास या पुरुषोत्तम मास में आपका नाम रवि लिया जाता है ।
॥दोहा॥
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहिं जे नर नित्य ।
सुख सम्पत्ति लहि बिबिध, होंहिं सदा कृतकृत्य ॥
अर्थात्—जो भी व्यक्ति प्रतिदिन प्रेम से सूर्य चालीसा का पाठ करता है उसे सुख-समृद्धि तो मिलती ही है, साथ ही उसे हर कार्य में सफलता भी प्राप्त होती है ।