भगवान के नामों का जप मनुष्य की बुद्धि को पवित्र और निर्मल करने वाला है । श्रीमद्भगवद्गीता (१०।२५) में भगवान श्रीकृष्ण ने ने जप योग को अपनी विभूति बतलाते हुए कहा है—‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ अर्थात् यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ ।
शास्त्रों में भी यज्ञों की अपेक्षा जप-यज्ञ को श्रेष्ठ बताया गया है । यज्ञों में तो यह देखना होता है कि होता (यज्ञ कराने वाला) काना न हो, कुष्ठी न हो, विधुर न हो, अविवाहित न हो, आदि-आदि; किन्तु जप-यज्ञ में ऐसी कोई बात नहीं देखी जाती । इसमें तो चाहे बालक हो, चाहे बूढ़ा, चाहे स्त्री हो या पुरुष, सभी को जप करने का समान अधिकार है ।
जप कई प्रकार का होता है—
1. नित्य जप—प्रात:काल और संध्या समय गुरुमन्त्र का जो नित्य नियमित रूप से जप किया जाता है, वह ‘नित्य जप’ कहलाता है । यात्रा में या बीमारी की अवस्था में जब स्नान नहीं किया जा सकता, तब भी हाथ, पैर, मुंह धोकर कुछ संख्या में नित्य जप अवश्य करना चाहिए । इस प्रकार के जप के बहुत-से लाभ हैं—
- इससे नित्य के दोष दूर होते हैं ।
- जैसे-जैसे जप की संख्या बढ़ती जाती है, ईश्वरीय-कृपा की अनुभूति होने लगती है ।
- चित्त शुद्ध रहने से जीवन में आनन्द बढ़ता है ।
- वाणी शुद्ध होने लगती है ।
- पाप कर्मों से घृणा होने लगती है ।
2. नैमित्तिक जप—किसी निमित्त से जो जप किया जाता है, वह ‘नैमित्तिक जप’ कहलाता है । एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, शिवरात्रि, रामनवमी, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, नवरात्रि, गणेश-चतुर्थी आदि शुभ दिनों में या ग्रहण के अवसर पर किया जाने वाला जप ‘नैमित्तिक जप’ होता है । पितृपक्ष या अमावस्या के दिन पितरों के निमित्त से भी जप किया जाता है । इससे बहुत लाभ मिलता है—
पितरों के लिए किये गये जप से उन्हें सुख व सद्गति प्राप्त होती है । मनुष्य को पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है, साथ ही पितरों के आशीर्वाद से परिवार में सुख, शान्ति, धन, सम्पत्ति व उत्तम संतान की प्राप्ति होती है ।
देवताओं के निमित्त किए जाने वाला जप कभी निष्फल नहीं जाता है । इससे पुण्य का संग्रह होकर पाप का नाश होता है । मनुष्य में सत्वगुण की वृद्धि होती है ।
3. काम्य जप—आर्त, अर्थार्थी या कामी लोगों द्वारा किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे ‘काम्य जप’ कहते हैं । जैसे संकट-नाश के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुन्दर-सुशील पति/पत्नी की प्राप्ति आदि के लिए किया गया जप काम्य जप की श्रेणी में आता है । इस जप के लिए योग्य गुरु से शुभ मुहुर्त में सही मन्त्र लेना चाहिए । उसका विधिपूर्वक एकाग्रता व पूर्ण पवित्रता से जाप करना, मिताहारी रहना, कम सोना, वाणी व इन्द्रियों का संयम रखना, धैर्य रखना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, मन्त्र-अनुष्ठान पूरा होने पर ब्राह्मण-भोजन कराना, दक्षिणा देना, हवन कराना—इन सबका पालन करने पर ही साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है । किसी भी नियम का पालन न करने पर मन्त्र सिद्ध नहीं होता है । काम्य जप के अनेक मन्त्र हैं । काम्य जप में इन बातों की सावधानी रखनी चाहिए—
काम्य जप से पुण्य संग्रह तो होता है परन्तु भोग से पुण्य का क्षय भी हो जाता है । इसलिए उत्तम कोटि के साधक जिन्हें भगवत्प्राप्ति या मोक्ष की लालसा है, वे इस प्रकार का काम्य जप नहीं करते हैं ।
कुछ लोग अपनी छोटी-छोटी कामनाओं की पूर्ति के लिए क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र मन्त्रों का सहारा लेते हैं, लेकिन अंत में वे इनसे अपनी ही हानि करते हैं । अपने इष्टदेव के मन्त्र-जाप से ही काम्य जप करना चाहिए क्योंकि उन्हें पता है कि हमारे लिए कौन-सी कामना करना सही है ।
4. निषिद्ध जप—▪️ मन्त्र का शुद्ध न होना, अपवित्र और अयोग्य व्यक्ति से मन्त्र लेना, देवता कोई हो और मन्त्र कोई और हो,▪️अनेक मन्त्रों को एक साथ बिना किसी विधि के जपना, ▪️ मन्त्र का अर्थ और विधि जाने बिना जपना, ▪️ श्रद्धा न होना,▪️ किसी भी प्रकार का संयम रखे बिना मन्त्र जपना—ये सब ‘निषिद्ध जप’ के लक्षण हैं । इस प्रकार के जप से लाभ के बदले हानि ही होती है ।
5. प्रायश्चित जप—मनुष्य के हाथों यदि कोई पाप हो जाए तो उस पाप नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह ‘प्रायश्चित जप’ कहलाता है । यदि पाप का परिमार्जन (शुद्धि) न हो तो वही पाप संचित होकर प्रारब्ध बन जाते हैं और भावी दु:खों की सृष्टि करते हैं । छोटे-मोटे पापों के लिए अल्प जप और बड़े पाप के लिए अधिक प्रायश्चित जप किया जाता है ।
शास्त्रों में प्रायश्चित जप की विधि इस प्रकार बताई गयी है—प्रात:काल पहले गोमूत्र का प्राशन करे, फिर गंगाजी या जो भी तीर्थ में हो उसमें स्नान करे । लेकिन इतना न बन पड़े तो गंगाजी का मानसिक स्मरण करके स्नान करें । चंदन आदि लगाकर भगवान व गुरु के दर्शन करें । पीपल व गाय की परिक्रमा करके तुलसीदल के जल का पान करें फिर पूरी एकाग्रता के साथ मन्त्र जप करें । जैसे-जैसे जप संख्या बढ़ती जाएगी, मन आनन्दित रहने लगेगा, तब समझना चाहिए कि अब पाप नाश हो रहे हैं ।
6. अचल जप—एक स्थान पर एकाग्रता पूर्वक बैठ कर निश्चित समय में निश्चित संख्या में जप करना ‘अचल जप’ कहलाता है । इसमें मन्त्र का निश्चित संख्या में जप होना चाहिए और नित्य उतना ही जप करना चाहिए, जप निश्चित संख्या से कभी कम न करें । जैसे महामृत्युंजय जप या शतचण्डी आदि का जप करना अचल जप के उहाहरण हैं ।
इस जप के लिए आसन, गोमुखी व माला होनी आवश्यक है । जप करते समय बीच में आसन से उठना और किसी से बात नहीं करना चाहिए । जप-काल में कोई विघ्न न आए इसके लिए मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य सही रखना चाहिए, मिताहार व सात्विक आहार करें । इस प्रकार के जप से साधक की गुप्त शक्तियां जाग्रत होने अपार आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है ।
7. चल जप—आते-जाते, उठते-बैठते, देते-लेते, खाते-पीते, सोते-जागते, सदैव अपने मन्त्र का जप करना ‘चल जप’ कहलाता है । यह जप नाम-स्मरण जैसा ही है । अंतर यह है कि भगवान के नाम-स्मरण के स्थान पर मन्त्र का जप करना है । यह जप कोई भी कर सकता है, इसमें कोई नियम, बन्धन या प्रतिबन्ध नहीं है । इस जप के लिए वैसे तो माला की आवश्यकता नहीं है परन्तु कुछ लोग छोटी-सी ‘सुमरिनी’ रखते हैं इसलिए कि यदि कभी मन्त्र-जप करना भूल जाएं तो सुमरिनी याद दिला देगी ।
इस जप को करने वाले साधक को कभी भी झूठ नही बोलना चाहिए साथ ही जली-कटी सुनाना, कठोर भाषा का प्रयोग करना, निन्दा करना, अनाप-शनाप बोलना आदि से बचना चाहिए ।
इस प्रकार के जप के बहुत लाभ हैं—
- इस प्रकार का जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है । सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके उत्तम गति को प्राप्त होता है ।
- उसका मन सदैव प्रसन्न रहता है । सुख-दु:ख, हानि-लाभ आदि का उस पर कोई असर नहीं होता है ।
- उसके सब कर्म यज्ञ बन जाते हैं और वह कर्मबन्धन से छूट जाता है ।
- वह मन से ईश्वर के पास और तन से संसार में रहता है ।
- इस प्रकार का साधक निर्भय हो जाता है और उसका योगक्षेम भगवान वहन करते हैं ।
8. वाचिक जप—जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे ‘वाचिक जप’ कहते हैं । इस जप से साधक को वाक् सिद्धि होती है । वाक् सिद्धि होने से संसार के बड़े-बड़े काम सिद्ध हो जाते हैं ।
9. उपांशु जप—‘उपांशु जप’ उसे कहते हैं जिसमें साधक के होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है । मनुष्य स्वयं ही सुन सकता है, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता है । जप की इस विधि को श्रेष्ठ माना गया है । मन्त्र का प्रत्येक उच्चारण मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है । वाक्-शक्ति जाग्रत होने लगती है ।
10. भ्रमर जप—भ्रमर के गुंजारव की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, उसे ‘भ्रमर जप’ कहते हैं । इसमें होंठ और जीभ नहीं हिलते, आंखें झपी रहती है । भ्रूमध्य की ओर यह गुंजारव होता हुआ अनुभव होता है । जप की यह विधि बहुत महत्वपूर्ण है ।
इस जप के सिद्ध होने से आन्तरिक तेज बहुत बढ़ जाता है, दिव्य दर्शन (इष्टदेव के) होने लगते हैं ।
स्मरण-शक्ति बढ़ जाती है ।
11. मानस जप—यह सभी जपों का प्राण है । इसमें मन्त्र का उच्चारण नहीं करना होता है । मन से ही मन्त्र की आवृत्ति करनी होती है । मन्त्र के अर्थ का चिन्तन ही इसमें मुख्य है । इष्टदेव के सगुणरूप का ध्यान करके यह जप किया जाता है । आसन पर बैठकर, श्वासोच्छ्वास की क्रिया करते हुए, कान बंद करके अंतर्दृष्टि करने से नाद सुनाई देता है । मन्त्र का चिन्तन, नाद का श्रवण और इष्ट के स्वरूप का ध्यान—इसमें ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं ।
इससे साधक को अपार आनन्द की अनुभूति होती है ।
12. अखण्ड जप—यह जप विशेषकर त्यागी साधु-महात्माओं के लिए है । शरीर-निर्वाह के लिए आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जप करें । इसकी विधि है—जप करते-करते जब थक जाएं तब ध्यान करे, ध्यान करते-करते थक जाएं तब फिर जप करे और जब जप तथा ध्यान दोनों से थके तब आत्मतत्त्व पर विचार (ग्रन्थों का अध्ययन) करे । बारह वर्ष तक लगातार यदि ऐसा जप किया जाए तो उसे तप कहते हैं । गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि संतों ने ऐसा ही तप किया था ।
इससे महासिद्धि की प्राप्ति होती है ।
13. अजपा जप—यह सहज जप है, इसमें माला का कुछ काम नहीं है । अनुभवी महात्मा लोग प्राय: इस तरह का जप करते हैं । श्वासोच्छ्वास की क्रिया के साथ मन्त्र-जप होता रहता है । इस प्रकार सहस्त्रों की संख्या में जप होता रहता है । इस जप के सम्बन्ध में एक महात्मा ने लिखा है—‘राम हमारा जप करे हम बैठे आराम ।’
14. प्रदक्षिणा जप—इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, गूलर या पीपल वृक्ष की अथवा किसी मन्दिर की मन्त्र कहते हुए प्रदक्षिणा करनी होती है ।
इससे सिद्धि प्राप्त होती है और मनोरथ पूरे होते हैं ।
आजकल की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में जप-विधि का पालन करना पूर्णत: संभव नहीं है इसलिए भगवान के किसी नाम का जप करना ही विशेष रूप से कल्याण करने वाला है, क्योंकि इसके लिए किसी विशेष विधान की आवश्यकता नहीं होती है ।