बटाऊ! वा मग तैं मति जइयो।
गली भयावनि भारी जा मैं सबरो माल लुटइयो।।
ठाड़ो तहां तमाल-नील एक छैल छबीलो छैयो।
नंगे बदन मदन-मद मारत मधुर-मधुर मुसकैयो।।
देखन कौ अति भोरो छोरो, जादूगर बहु सैयो।
हरत चित्तधन सरबस तुरतहिं, नहिं कोउ ताहि रुकैयो।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
अर्थात्–’श्यामसुन्दर के रूपसौन्दर्य के जादू से बचने के लिए नन्दभवन के मार्ग से जाने के लिए मना किया जाता है; क्योंकि उस गली में तमालवर्ण का एक छैलछबीला नवकिशोर मंद-मंद मुसकराता हुआ खड़ा है। देखने में तो वह बहुत भोला दिखता है परन्तु बहुत बड़ा जादूगर है। अपनी बांकी सूरत से वह पथिक का मन चुरा लेता है, जिसका मन उसने चुरा लिया, वह तो सारा ही लुट जाता है।’
भगवान श्रीकृष्ण का अपने आपको भी आकर्षित करने वाला (स्वमन मोहन) सौंदर्य, गोप-गोपियों के साथ प्रेममयी लीला, समस्त प्राणियों के मन को हरण करने वाला वेणुनाद और ऐश्वर्यशक्ति से खेल-खेल में बड़े-बड़े असुरों का वध केवल व्रज की लीलाओं में ही देखने को मिलता है और कहीं नहीं।
भगवान की दिव्य शक्तियों में ऐश्वर्य शक्ति और माधुर्य शक्ति हैं। ऐश्वर्य शक्ति से भगवान ऐसे विचित्र और महान कार्य करते हैं, जिन्हें दूसरा कोई कर ही नहीं सकता। भगवान को भी मोहित करने वाली माधुर्य शक्ति में एक मधुरता, मिठास होती हैं, जिसके कारण भगवान बड़े ही मधुर और प्रिय लगते हैं–’मधुरातिपतेरखिलं मधुरम्।’
सच्चिदानन्दघन श्रीकृष्ण का व्रज में नित्यकिशोर, गोपवेश, मुरलीमनोहर एवं त्रिभंगी रूप
भगवान श्रीकृष्ण का शरीर सच्चिदानन्दमय है। ‘सत्’ से भगवान का अवतारी शरीर बनता है, ‘चित्’ से उनके शरीर में प्रकाश होता है और ‘आनन्द’ से उनके शरीर में आकर्षण होता है। मनुष्य का शरीर सामान्य पंचमहाभूतों व पंचतन्मात्राओं से पैदा होता है। लेकिन भगवान अपने शरीर को धारण करने के लिए लीलाशक्ति से दिव्यातिदिव्य सत्त्वगुणी तन्मात्राओं को उत्पन्न कर अपने श्रीविग्रह को प्रकट करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे सच्चिदानन्द श्रीविग्रह में इतना आकर्षण होता है कि भक्त, अभक्त और ज्ञानियों का मन भी उनकी ओर खिंच जाता है।
व्रज में श्रीकृष्ण नित्य नवकिशोर, नटवर, श्याममेघ के समान नीलवर्ण, द्विभुज, गोपवेष, हाथ में मुरली लिए, गले में गुंजाहार व वनमाला पहने, सीस पर मोरमुकुट धारणकर, मुख पर मधुर स्मित हास्य लिए, त्रिभंगी मुद्रा में (शरीर में तीन टेढ़ बनाकर) बड़ी बंकिमा के साथ जब कदम्ब के नीचे खड़े हो जाते हैं तब समस्त काम-सौन्दर्य अपना जीवन बचाने के लिए वहां से भाग जाता है कि यहां रहेंगे तो श्रीकृष्ण के इस सौन्दर्य के सामने जल जायेंगे, बचे ही नहीं रहेंगे।
श्रीकृष्ण का ‘स्वमन मोहन’ रूप
श्रीकृष्ण की सुन्दरता स्वयं उन्हें मोहित कर लेती है। वे अपने प्रतिबिम्ब को नंदभवन के किसी मणिस्तम्भ या दर्पण में देख लेते तो अपने रूप पर स्वयं मोहित हो जाते थे। एक कथा के अनुसार एक बार यशोदामाता श्रीकृष्ण का सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से श्रृंगार कर रहीं थीं। परन्तु वे वस्त्राभूषण पहनावें फिर उतार दें, फिर पहनावें, फिर उतार दें। गोपियों ने देखा तो बोली–’मैया क्या तुम आज पगली हो गयी हो, जो बार-बार कन्हैया को वस्त्र-आभूषण पहनाती हो और बार-बार उतार देती हो।’ यशोदामाता ने गोपियों को कहा कि जब इन वस्त्र-आभूषणों को कन्हैया को पहनाती हूँ तो मेरे नीलमणि की सुन्दरता घट जाती है। बिना कुछ पहनाए कन्हैया सुन्दर दिखता है–‘सुन्दरता को पार न पावति रूप देखि महतारी।’
गोपियों ने कहा–’कन्हैया को कपड़े पहनाओ, ठीक है परन्तु यह तो भूषण का भूषण है, अलंकार का अलंकार है, शोभा की भी शोभा है। किसी चीज से इसकी शोभा हो जाए यह ऐसा नहीं है।’
श्रीमद्भागवत (१०।४४।१४) में श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को देखकर मथुरा की स्त्रियां आपस में कहती हैं–’भगवान श्रीकृष्ण का रूप सम्पूर्ण सौन्दर्य व लावण्य का सार है। सृष्टि में किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं हैं; फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है! इनका रूप किसी के संवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ों से नहीं, वरन् स्वयंसिद्ध है। इस रूप को देखते तृप्ति भी नहीं होती; क्योंकि यह नित्य नवीन ही रहता है। सारा यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसी के आश्रित है।’
शुकदेवजी श्रीमद्भागवत (१०।४३।२०-२१) में कहते हैं–’मंचों पर जितने लोग बैठे थे, मथुरा के नागरिक व जनसमुदाय–वे सब नेत्रों द्वारा भगवान की रूपमाधुरी का पान करते हुए तृप्त ही नहीं होते थे; मानो वे उन्हें नेत्रों से पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिका से सूंघ रहे हों और भुजाओं से पकड़कर हृदय से लगा रहे हों।’
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है–‘मेरा जो यह गोपरूप-कृष्णरूप है इसकी किसी से तुलना नहीं है।’
व्रज में पशु-पक्षी, गौ-गोप-गोपी, वृक्ष-लता–सबके जीवन का प्रयोजन श्रीकृष्ण
भगवान के अन्य अवतारों में भक्तों व साधकों ने ‘धनं देहि, यशो देहि, पुत्रं देहि’ कहकर किसी ने उनसे भोग मांगा, किसी ने मोक्ष तो किसी ने सिद्धि मांगी। परन्तु श्रीकृष्ण की व्रजलीला में यह विचित्रता है कि व्रज के गोप-गोपियां, गायें, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि–किसी ने भी श्रीकृष्ण से कुछ नहीं चाहा। जिसके पास जो था वह श्रीकृष्ण के आनन्द के लिए उनकी सेवा में प्रस्तुत किया। गायें चाहतीं थीं कि श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहकर हमारा अमृत को भी मात देने वाला दूध पीते रहे। जिस गंगी गाय का दूध श्रीकृष्ण पीते थे, वह बढ़कर दुगुना, तिगुना हो जाता। मयूर अपने पंखों को भगवान की सेवा में अर्पित करते ताकि वे उनके बालों में सुशोभित हो सकें। वृक्ष और लताओं ने एक-से-बढ़कर-एक फलों-फूलों से लदकर वन में खाने, श्रृंगार करने व विश्राम के लिए फल-फूल और छाया से श्रीकृष्ण को सेवा प्रदान की। कोयल, शुक, सुग्गे आदि श्रीकृष्ण को देखकर मधुर आलाप करने लगते, मयूर नृत्य करके श्रीकृष्ण के आनन्द को बढ़ाते। वन में विश्राम के समय मेघ स्वयं श्रीकृष्ण के ऊपर छाते की तरह स्थित होकर उन्हें शीतलता प्रदान करते। गोपियों के तो जीवन-प्राण सब श्यामसुन्दर ही हैं–
स्याम तन, स्याम मन, स्याम है हमारौ मन,
आठौ जाम ऊधौ! हमें स्याम ही सों काम है।
गोपियों के प्राण और श्रीकृष्ण में तथा श्रीकृष्ण के प्राण और गोपियों में कोई अंतर ही नहीं हैं–
कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय,
हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्राण है।।
व्रजलीला में श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्त करने के लिए सब लालायित हैं, सबने श्रीकृष्ण को अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहा। जिन्होंने अपना सब कुछ भगवान को माना, उनके भाव में कितनी प्रगाढ़ता है, कितनी भगवन्मयता है!
जड़ को भी चेतन बनाने वाली श्रीकृष्ण की वंशी का माधुर्य
श्रीकृष्ण की व्रजलीला में कुछ ऐसे जड पात्र हैं जिनके बिना श्रीकृष्ण अपूर्ण-से प्रतीत होते हैं। श्रीकृष्ण की वंशी (मुरली) साधारण बांसुरी की तरह कोई जड़ बांस का बना बाजामात्र नहीं है। वंशी ध्वनि अर्थात् श्रीकृष्ण के आवाहन यन्त्र की ध्वनि जो जड होकर भी चेतन का चित्तहरण करने की सामर्थ्य रखती है। सखाओं के बिना अकेले वत्सचारण के लिए वन में जाने पर मजा नहीं आयेगा, सो प्रात: होते ही कन्हैया सभी सखाओं को बुलाने के लिए नंदभवन के दरवाजे पर जाकर जोर से वंशी ध्वनि कर दिया करते थे। वंशी की ध्वनि सुनते ही सोये हुए सभी छोटे-बड़े गोपबालक–सुबल, सुदाम, श्रीदाम, स्तोक कृष्ण आदि माताओं की गोद त्यागकर नंदभवन की ओर दौड़ पड़ते थे। इसी तरह संध्या समय वन में गायों को बटोरने के लिए कन्हैया गोवर्धन पर्वत पर चढ़कर या कदम्बवृक्ष पर चढ़कर वंशी ध्वनि कर देते थे। वंशी की ध्वनि सुनकर सारी गायें पूंछों को उठाकर ‘हम्बारव’ करती हुई दूर-दूर से दौड़ी आकर इकट्ठी हो जातीं–
गोविन्द गिरि चढ टेरत गाय।
गांग बुलाई धूमर धौरी टेरत वेणु बजाय।।
इसी वंशी ध्वनि को सुनकर यमुनाजी की गति बदल जाती और वे अपनी स्वाभाविक गति पलटकर चाहतीं कि जल्दी-से जल्दी दौड़कर श्यामसुन्दर के पास पहुंच जाएं और अपने शीतलजल से उनके दिन भर के गोचारण से थके हुए चरणों को धो दें। यह वंशी-ध्वनि का ही जादू है कि व्रजगोपियां सारे कुलधर्म, गृहकर्म और ममता को त्यागकर श्रीकृष्ण के निकट आ जातीं। वंशी की ध्वनि जीव को श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा देती।
तान सुनी जिनहीं तिनहीं,
तबहीं तित लाज बिदा करि दीनी।।
घूमै घरी घरी नंद के द्वार,
नवीनी कहा कहूँ बाल प्रवीनी।। (रसखान)
वंशी श्रीकृष्ण के साथ मिलन कराने वाली सर्वश्रेष्ठ दूती है। व्रज में भगवान ने वनों में, कुंजों में, यमुनापुलिन पर, गोवर्धन की तलहटी व कन्दराओं में, कदम्ब के वृक्ष के नीचे व करील की कुंजों में जो परमानन्द का वितरण किया उसमें वंशी ही माध्यम रही। इसलिए उन्होंने व्रज में वंशी को कभी छोड़ा नहीं।
व्रजलीला में भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक कर्म
‘ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह;’ (ब्रह्म संहिता)–अर्थात्–भगवान श्रीकृष्ण परम ईश्वर हैं जबकि और देव ईश्वर हैं।
व्रज में शंख, चक्र, गदा, पद्म और सारंग धनुष का कोई काम नहीं। यहां तो वंशी ने ही बहुत कुछ किया है, साथ में श्रीकृष्ण ने बजाने के लिए सिंगा (सींग का बना बाजा) ले लिया और लकुटी लेकर गायों के पीछे घूमे हैं। व्रज में श्रीकृष्ण ने बड़े-बड़े असुरों (तृणावर्त, अघासुर, बकासुर, पूतना आदि) के वध के लिए किसी शस्त्र या आयुध का प्रयोग नहीं किया। श्रीकृष्ण का तो खेल ही हथियार है। बच्चों की भांति खेलते-खेलते श्रीकृष्ण की ऐश्वर्य शक्ति ने प्रकट होकर उनका वध कर दिया। श्रीरामावतार की तरह बन्दर भी यहां उनकी सेवा में साथ नहीं हैं। व्रज में श्रीकृष्ण के साथ बन्दरों की फौज भी रहती तो केवल मीठा-मीठा माखन खाने के लिए; असुरों से लड़ने में नहीं।
व्रज में श्रीकृष्ण की न तो कोई सेना थी, और न ही कोई अस्त्र-शस्त्र। न ही उनका उग्ररूप कभी प्रकट हुआ और न ही कोई युद्ध लम्बा चला। राक्षस आया और खेलते-खेलते दो घड़ी में ही उसका काम-तमाम कर दिया । इसीलिए ब्रह्माण्डपुराण में नारदजी ने कहा है–‘चक्रधारी नारायण चक्र धारण करके भी जिन असुरों का विनाश सहज में नहीं कर सकते, श्रीकृष्ण ने नयी-नयी बाललीला करते हुए उन सबका विनाश कर दिया। असुरमारन भी उनकी बाललीला का एक अंग था, वह भी खेल की एक पद्धति थी।’
श्रीकृष्णलीला में पूतनावध और श्रीरामलीला में ताड़कावध सुनने में एक जैसे असुरवध ही लगते हैं; परन्तु इनमें बहुत अंतर है। श्रीराम ने पहले विश्वामित्रजी से अस्त्रों की शिक्षा लेकर उसके बाद ब्रह्मतेजसम्पन्न अस्त्र द्वारा ताड़का का वध किया किन्तु पूतनावध में छ: दिन के शिशु ने स्तनपान करते हुए घोर आकृति वाली पूतना के प्राण हर लिए और माता की तरह मुक्ति प्रदान की–
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ।।
कूर्मावतार में भगवान ने मन्दराचल पर्वत को और श्रीकृष्णावतार में व्रज में गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। परन्तु इन पर्वतों को धारण करने में भी बहुत अंतर है। कूर्मावतार में सौ योजन विस्तार वाली कूर्म की पीठ बनी तब उस पर भगवान ने मन्दराचल पर्वत को धारण किया और वहां भी नीचे समुद्र था। परन्तु व्रज में सात वर्ष के बालक श्रीकृष्ण ने कनिष्ठिका अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर समस्त व्रजवासियों की रक्षा की।
एक रूप गिरिराज कौ, धारयौ नन्दकिसोर।
एक रूप से सात दिन, धर लियौ नख कोर।।
श्रीकृष्ण ने व्रजवासियों को अनेक प्रकार की विपत्तियों–आग, वर्षा और आंधी–से बचाया। श्रीरामावतार और नृसिंहावतार में भगवान ने असुरों का वध किया परन्तु उनकी मुक्ति नहीं हुई। जैसे, जय-विजय एक जन्म में हिरण्यकश्यपु व हिरण्याक्ष बने, फिर दूसरे जन्म में रावण-कुम्भकर्ण बने; सबका वध भगवान के हाथों हुआ पर मुक्ति नहीं हुई। जब वह तीसरे जन्म में शिशुपाल व दंतवक्त्र बने तब श्रीकृष्ण के हाथों ही उनकी मुक्ति हुई।
व्रजलीला में श्रीकृष्ण का अद्वितीय सख्यभाव
व्रजलीला में जो सख्यभाव भगवान श्रीकृष्ण ने दिखाया है वह श्रीरामावतार या अन्य किसी अवतार में नहीं देखने को मिलता हैं। श्रीकृष्ण के व्रज सखा तो कुछ गजब हैं। श्रीकृष्ण खेल में हारकर श्रीदामा के घोड़े बने और श्रीदामा श्रीकृष्ण पर सवार होकर इन्हें भाण्डीरवट तक ले गए–
‘श्रीदामा हरि पर चढ़ि चले।
को ठाकुर, जो खेल मैं रलै।।
गोपबालकों के साथ कन्हैया गोपियों के घरों में माखन की चोरी करते हैं। यशोदामाता के पास इसी बात को लेकर डांटे-फटकारे जाते हैं और सहन भी करते हैं। भूखे होकर रोने भी लगते हैं। इसी व्रज में श्रीकृष्ण ने मानिनी श्रीराधा के चरणों की साधना की–’देहि मे पदपल्लवमुदारम्।’
इस प्रकार श्रीकृष्ण की व्रजलीला में हमें अद्भुत माधुर्य व ऐश्वर्य देखने को मिलता है।
छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला,
बड़ा चित्त का अड़ीला कहूं, देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक मोती सेत सोहै,
कान मोहै मन कुंडल, मुकुट सीस धारा है।।
दुष्ट जन मारे, सतजन रखवारे, ‘ताज’
चित-हितवारे, प्रेम प्रीती कर वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावनवारा कृष्ण साहेब हमारा है।।