‘वही शरीर कल्याणप्राप्ति का साधन है जो भगवान श्रीकृष्ण को दण्डवत् प्रणाम करने के कारण धूल-धूसरित हो रहा है; नेत्र भी वही सुन्दर और तपशक्ति से सम्पन्न हैं, जो श्रीहरि का दर्शन करते हैं; बुद्धि भी वही निर्मल है जो सदा श्रीलक्ष्मीपति का चिन्तन करती है तथा जिह्वा वही मधुरभाषी है जो बारम्बार भगवान नारायण का स्तवन करती है।’ (पद्मपुराण)
वैशाखमास माधव (श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु) को विशेष प्रिय है। इसीलिए वैशाखमास को माधवमास भी कहते हैं। इस मास में मधु दैत्य को मारने वाले भगवान मधुसूदन की यदि भक्तिपूर्वक पूजा कर ली जाए तो मनुष्य लौकिक व पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख प्राप्त करता है। व्रज में वैशाखमास का बहुत माहात्म्य है। व्रज के लोग वैशाख-स्नान करते हैं।
श्रद्धा-भक्तिपूर्वक, निश्छल मन से व दैन्यभाव से की गयी पूजा ही स्वीकारते हैं श्रीकृष्ण
जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो अनन्त और अपार हैं, उन भगवान अनन्त की पूजा-विधि का अन्त नहीं है। भगवान की पूजा में उपचारों (वस्तुओं) का कोई महत्व नहीं है; महत्व है भावना का। इसलिए मनुष्य को जो कुछ भी सामग्री प्राप्त हो, उन्हें ही श्रद्धा-भक्तिपूर्वक, निश्छल मन से व दैन्यभाव से भगवदर्पण कर दिया जाए तो उस पूजा को भगवान अवश्य स्वीकार करते हैं।
प्रतिमा-पूजन (मूर्ति-पूजन) करते समय मन में यह विश्वास रखना चाहिए कि ‘जो सम्पूर्ण भूतों (प्राणियों) में तथा मेरे आत्मा में भी रम रहे हैं, वे ही परमात्मा इस मूर्ति में विराजमान हैं।
पूजन से पहले भगवान का मन में ध्यान करना चाहिए–
कर लकुटी, मुरली गहै, घूंघरवारे केस।
यह बानिक मो हिय बसौ, स्याम मनोहर बेस।।
आओ प्यारे मोहना, पलक झांप तोहि लेऊँ।
ना मैं देखूं और को, ना तोहि देखन देऊँ।।
अर्थात्–हाथ में लकुटी व मुरली लिए और घुंघराले केशों वाले श्यामसुन्दर का मनोहर रूप मेरे हृदय में बस गया है। मेरे प्यारे मोहन आओ, मैं अपने नेत्रों में आपको बिठाकर पलक बन्द कर लेती हूँ जिससे न तो मैं किसी और को देखूंगी और न ही आपको किसी और को देखने दूंगी।’
प्रतिमा-पूजन में स्नान और अलंकार ही सर्वश्रेष्ठ हैं अर्थात् भगवान के विग्रह को स्नान कराकर पुष्प आदि से श्रृंगार कर देना ही प्रधान सेवा है। श्रीकृष्ण में भक्ति रखने वाला मनुष्य यदि केवल जल भी भगवान को अर्पण कर दे तो यह उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ है; फिर गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करने पर तो कहना ही क्या है।
शंख में जल भरकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ या ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने का विशेष महत्व है। एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा आदि तिथियों पर पंचामृत से और संभव हो तो नित्यपूजा में गाय के दूध से भगवान को स्नान कराने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। वैभवपूर्वक भगवान की पूजा करनी हो तो स्नान के जल में चन्दन/खस का इत्र या गुलाबजल भी मिला सकते हैं।
स्नान के पश्चात् भगवान को वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण (मोरमुकुट, वंशी, हार) आदि धारण कराएं। इसके बाद केसर-कपूर मिश्रित सुगन्धित चंदन का लेप भगवान के मस्तक पर करना चाहिए। वैशाखमास की भीषण गर्मी में चंदन भगवान को शीतलता प्रदान करता है। भगवान का कथन है कि जो मनुष्य मुझे तुलसीकाष्ठ का घिसा चंदन अर्पण करता है उस पर मैं विशेष प्रेम करता हूँ। अक्षत भगवान के चरणों में अर्पण करने चाहिए न कि माथे पर। (माथे पर अक्षत लगाने से वह आंख में जाने का भय रहता है)। इसके बाद सुगन्धित इत्र भगवान को निवेदित करें।
भगवान श्रीकृष्ण की पूजा में वे ही फूल उत्तम माने गए हैं, जो सुन्दर रंग के साथ-साथ सुगन्धित भी हों। भगवान को बेला, चमेली, जूही, मोगरा, माधवीलता, कनेर, वैजयन्ती, चम्पक, कुन्द, गुलाब व कमल विशेष प्रिय हैं। बासी फूल और बासी जल पूजा के लिए वर्जित हैं; परन्तु गंगाजल और तुलसीदल बासी होने पर भी पूजा में वर्जित नहीं हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का कथन है–‘जैसे कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशी मुझे प्रिय हैं; उसी प्रकार गौर (रामा) और कृष्ण (श्यामा) दोनों प्रकार की तुलसी मुझे प्रिय हैं।’ इसलिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए तुलसी की मंजरियों से भगवान की पूजा करनी चाहिए। पूजा के लिए ऐसे तुलसीदल का चयन करें जिनमें मंजरी के नीचे दो तुलसीदल हों।
तदन्तर अगरु व गुग्गुल के धूप से भगवान के मन्दिर को सुवासित करें। धूप देह (शरीर) और गेह (घर) दोनों को पवित्र करता है। स्कन्दपुराण में भगवान ने कहा है–’यदि कोई मनुष्य मुझे दशांग धूप निवेदित करता है, तो मैं उसे अत्यन्त दुर्लभ मनोरथ, बल, पुष्टि, स्त्री, पुत्र और भक्ति देता हूँ।’
कपास की रुई और घी से बने दीपक से भगवान की आरती करनी चाहिए। स्कन्दपुराण में भगवान ने कहा है–’जो मेरे आगे कर्पूर की आरती करता है, वह मुझ अनन्त में प्रवेश कर जाता है। जो मन्त्रहीन और क्रियाहीन मेरा पूजन किया गया है वह मेरी आरती कर देने पर पूर्ण हो जाता है।’
भगवान को दूध, दही, माखन-मिश्री, नाना प्रकार के नैवेद्य और ऋतु अनुसार शीतल फलों का भोग निवेदन करें। वैशाखमास में घी, चीनी और जल मिलाकर बनाया गया ठंडा सत्तू, सत्तू के लड्डू आदि का विशेष भोग भगवान को प्रिय है।
विशेष पर्वो (अक्षय तृतीया, नृसिंह चतुर्थी आदि) पर भगवान को विशेष मिठाईयां–खीर, बर्फी, लड्डू, पूड़ी आदि का भोग लगावें। मुख शुद्धि के लिए ताम्बूल (पान का बीड़ा) अर्पित करें।
वैशाखमास में भगवान की विशेष सेवा के लिए हाथ से पंखा झलना और मिट्टी की छोटी सुराही में केवड़ा या खस का इत्र लगाकर जल भर कर रखा जाता है। भगवान को उनका सुन्दर श्रृंगार दर्पण में दिखाया जाता है।
शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर भगवान को अर्घ्य देने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। अर्घ्य का मन्त्र इस प्रकार है–
तापत्रयहरं दिव्यं परमानन्दलक्षणम्।
तापत्रयविमोक्षाय तवार्घ्यं कल्पयाम्यहम्।।
अर्थात–हे भगवन्! आपका अर्घ्य तीनों तापों को हरने वाला, दिव्य एवं परमानन्दरूप है, इसलिए तीनों तापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मैं आपको अर्घ्य समर्पित करता हूँ।
पूजन के अंत में विभिन्न स्तोत्रों से भगवान की स्तुति करके ‘भगवन् प्रसीद’ (भगवान प्रसन्न होइए) ऐसा कहकर नित्य दण्डवत प्रणाम करें।
देवकीनन्दनं कृष्णं जगदानन्दकारकम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं वन्दे माधवं भक्तवत्सलम्।।
अर्थात्–’जो सम्पूर्ण जगत को आनन्द प्रदान करने वाले तथा भोग और मोक्ष देने वाले हैं, उन भक्तवत्सल देवकीनन्दन श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।’
प्रार्थना
अपना मस्तक भगवान के चरणों में रखकर इस प्रकार प्रार्थना करें–
‘हे माधव! हे गोविन्द! मैं मृत्युरूपी ग्राह तथा भवसमुद्र से भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिए।’
भगवान को अर्पण की हुई प्रसादमाला या पुष्पों को आदरपूर्वक सिर व मस्तक पर लगा कर शुद्ध स्थान पर ही रखें। प्रसादमाला का अनादर करने से दक्ष प्रजापति के मन में शिवजी के प्रति दुर्भाव पैदा हुआ और इन्द्र श्रीहीन हुए।
इस प्रकार भगवान माधव-श्रीकृष्ण-श्रीगोपालजी-श्रीविष्णुजी की पूजा करने से सब प्रकार के अभीष्ट की प्राप्ति होती है। पूजा की इस विधि को दैनिक पूजा में भी अपना सकते हैं।
हृदय-कपाट विशाल खुला है,
इसमें है नहिं ज़रा फरेब।
तुच्छ भक्त की कुटी समझकर,
आओ यहीं पधारो देव! (रामवचन द्विवेदी ‘अरविन्द’)