संतों ने जगज्जननी माता सीता के तीन स्वरूप बताए हैं—१. सत्वमय, २. राजसी और ३. तामसी । सीता जी का शुद्ध सत्वमय स्वरूप श्रीराम जी के साथ सदा ही रहता है । उनका कभी राम जी से वियोग हो ही नहीं सकता; क्योंकि वे परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति हैं । शक्ति और शक्तिमान एक साथ ही रहते हैं । सूर्य और सूर्य की प्रभा किसी दिन भी अलग नहीं हो सकती है । सीता जी को रावण प्रत्यक्ष रुप से स्पर्श नहीं कर सकता था ।
सीता जी के हरण से पहले जब लक्ष्मण जी कंद-मूल-फल का चयन करने वन में गए, तब श्रीराम ने सीता जी से कहा—
सीते त्वं त्रिविधा भूत्वा रजोरूपा वसानले ।
वामांगे मे सत्त्वरूपा वस छाया तमोमयी ।। (आनन्द रामायण )
अर्थात्—‘सीते ! रजोरूप से तुम अग्नि में प्रवेश करो, सत्त्वरूप से मेरे स्वरूप में लीन हो जाओ और तमोमयी बन कर छाया रूप धारण करके आश्रम में रहो । तुम्हारी छाया का रावण हरण कर लेगा ।’
तब सीता जी श्रीराम के स्वरूप में लीन हो गईं ।
यही बात गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कही है—
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नर लीला ।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा ।
जब लगि करउँ निसाचर नासा ।। (राचमा, अरण्यकाण्ड)
अर्थात्—हे प्रिये ! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले ! सुनो ! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो ।
श्रीराम ने अपनी शक्ति सीता को लीला के लिए अग्निदेवता के पास धरोहर रख दिया और उनका राजसी स्वरूप अग्नि में समा गया । सीता जी के तामसी छाया स्वरूप को रावण ने हरण कर लिया ।
सीता जी की खोज में प्रभु श्रीराम की रुदन लीला
लंका में सीता जी ‘श्रीराम श्रीराम’ कहते हुए राम जी के वियोग में विलाप कर रही थीं; उसी समय प्रभु श्रीराम ने भी एक लीला करने की सोची—‘क्यों न मैं भी सीता जी के वियोग में रोऊँ, प्रलाप करुँ ।’
सीता जी की खोज में प्रभु श्रीराम लक्ष्मण जी के साथ वनों में भटक रहे हैं । हृदय में भारी विरह है, अपने-पराये का ज्ञान नहीं है, शरीर का होश नहीं है । कभी श्रीराम चौंक कर खड़े हो जाते हैं और कभी वृक्षों को आलिंगन देने लगते हैं । सभी प्रकार का अभिमान छोड़ कर परमात्मा से मिलन की भावना लिए बड़े-बड़े तपस्वी दण्डकारण्य में वृक्ष के रूप में प्रकट हुए हैं । श्रीराम ने वियोग लीला में उन्हें अपना आलिंगन देकर उनकी जन्म-जन्मांतर की इच्छा पूरी की है ।
कभी श्रीराम जोर-जोर से प्रलाप करने लगते हैं—‘का देवी जनकाधिराजतनया, हा जानकि क्वासिहा ।।’
लक्ष्मण जी प्रभु श्रीराम को समझाते हैं । प्रभु श्रीराम चौंक कर लक्ष्मण जी से पूछते हैं—‘भैया ! मैं कौन हूँ ? मुझे बताओ तो सही ।’
लक्ष्मण जी कहते हैं—‘प्रभो ! आप साक्षात् भगवान हैं ।’
श्रीराम फिर पूछते हैं—‘कौन भगवान ?’
लक्ष्मण जी कहते हैं—‘रघु महाराज के वंश में उत्पन्न होने वाले श्रीराम ।’
श्रीराम फिर चारों ओर देख कर पूछते हैं—‘अच्छा बताओ, तुम कौन हो ?’
यह सुन कर अत्यंत दीनता के साथ लक्ष्मण जी कहते हैं—‘स्वामी ! आप ये कैसी बातें कर रहे हैं ? मैं आपका चरणसेवक लक्ष्मण हूँ ।’
प्रभु श्रीराम फिर पूछते हैं—‘फिर हम यहां जंगलों में क्यों घूम रहे हैं ?’
लक्ष्मण जी अत्यंत दु:खी स्वर में कहते हैं—‘हम देवी को खोज रहे हैं ।’
चौंक कर श्रीराम पूछते हैं—‘कौन देवी ?’
लक्ष्मण जी उत्तर देते हैं—‘जनकसुता जगज्जननी जानकी, अतिशय प्रिय करुनानिधान की ।’
बस जनकसुता सीता जी का नाम सुनते ही ‘हा सीते ! हा जानकि ! तू कहां चली गई’ कहते-कहते प्रभु श्रीराम मूर्च्छित हो जाते हैं ।
कुछ चेत (होश) आने पर दण्डकारण्य के पशु-पक्षियों से अत्यंत करुणापूर्ण स्वर में पूछते हैं—
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ।।
‘हे पक्षियो ! हे मृगो ! हे भौंरों की पंक्तियों ! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है ?‘
फिर व्याकुल होकर श्रीराम आम, कदम्ब, अनार, कटहल, मौलसिरी, चंदन, केवड़ा आदि वृक्षों से कहते हैं—‘कदम्ब ! मेरी प्रिया सीता को तुमसे बहुत प्रेम था, क्या तुमने उसे कहीं देखा है ? यदि जानते हो, तो उस सुंदरी का पता बताओ । चिकने पल्लव के समान उसके कोमल अंग हैं । उन्होंने पीले रंग के वस्त्र पहने हैं । बिल्व ! यदि तुमने कहीं उसे देखा है तो बताओ । अर्जुन ! तुम्हारे फूलों पर मेरी प्रिया का विशेष प्रेम था । तुम्हीं उसका कुछ समाचार बताओ । जामुन, कनेर ! आज फूलों के लगने से तुम्हारी बड़ी शोभा हो रही है । सीता को तुम्हारे ये फूल बहुत ही पसंद थे । यदि तुमने उसे कहीं देखा है तो मुझसे कहो ।’
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू ।
हरषे सकल पाइ जनु राजू ।।
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं ।
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ।।
एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी ।
मनहुँ महा बिरही अति कामी ।।
पूरनकाम राम सुख रासी ।
मनुज चरित कर अज अबिनासी ।। (राचमा, अरण्यकाण्ड)
‘हे जानकी ! सुनो, तुम्हारे बिना खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, कोयल, कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद् का चंद्रमा, नागिनी, अरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज, सिंह,
बेल, सुवर्ण और केला—आज ऐसे हर्षित हो रहे हैं, मानो राज पा गए हों । अर्थात् तुम्हारे अंगों की शोभा के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित महसूस करते थे । आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं । तुमसे यह स्पर्धा कैसे सही जाती है ? हे प्रिये ! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती ?’
श्रीराम की ऐसी दशा देख कर लक्ष्मण जी ने उन्हें कहा—‘आप शोक छोड़ कर धैर्य धारण करें । सीता जी की खोज करने के लिए उत्साह रखें; क्योंकि उत्साही मनुष्य कठिन-से-कठिन विपत्ति में भी कभी दु:खी नहीं होते हैं ।’
इस प्रकार अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी श्रीराम सीता जी को खोजते हुए इस प्रकार विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यंत कामी पुरुष हों । पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीराम आज साधारण मानव के रूप में लीला कर रहे हैं ।
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ।। (राचमा ७।७२ ख)
श्रीराम की रुदन लीला का रहस्य
श्रीराम का यह रुदन उनका केवल एक अभिनय मात्र है । संसार में रुदन को दु:ख व अभाव का प्रतीक माना जाता है । लेकिन परब्रह्म श्रीराम सच्चिदानंद हैं । उनमें आनंद ही आनंद भरा है । ब्रह्म आनंदरूप होने से आप्तकाम है । उसे न कोई कमी है और न कुछ प्रयोजन । इस रुदन के पीछे अपने अवतार के कार्य की सिद्धि की सफलता की मुसकराहट छिपी हुई है ।
सीता जी के वियोग में रुदन करते हुए श्रीराम को देखकर भगवान शिव पुलकित हो उठे थे और ‘जय सच्चिदानंद’ कह कर उन्होंने दूर से ही परब्रह्म श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया—
जय सच्चिदानंद जग पावन ।
अस कहि चले मनोज नसावन ।।
प्रजापति दक्ष की पुत्री सती नमन के साथ ‘सच्चिदानंद’ शब्द सुन कर स्तब्ध रह गईं । उनके मन में प्रश्न उठा—‘यह कैसा सच्चिदानंद है, जो प्रिया के वियोग में व्याकुल होकर विलाप कर रहा है । जो अपनी पत्नी को ही खोज नहीं पा रहा है । एक साधारण राजकुमार को भगवान भूतभावन ने गद्गद् होकर क्यों प्रणाम किया ?’
सती अपने-आप से तर्क-वितर्क करती रहीं ।
इस चौपाई में गोस्वामी जी ने भगवान शिव के लिए ‘मनोज नसावन’ शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ‘कामदेव का दहन करने वाले’ । भगवान शिव का तीसरा नेत्र वस्तुतः ज्ञानदृष्टि है, जिसके आगे काम टिक नहीं सकता । श्रीराम की इस रुदन लीला को वे तीसरे नेत्र से देखते हैं । सती के पास इस दृष्टि का अभाव था; इसलिए उनको श्रीराम के आंसुओं में सिर्फ दुःख और काम ही दिखाई दिया ।
श्रीराम इसे अपने नाटक की सफलता का प्रमाण मान कर आनन्दित हो रहे थे ।
भगवान की लीलाओं का माधुर्य इतना अधिक होता है कि उसका आनंद बड़े-बड़े तपस्वियों को भी दुर्लभ रहता है । इसका सुख तो केवल उन रसिक भक्तों को ही प्राप्त होता है, जो भक्ति-भाव से इनका रसास्वादन करते हैं ।