यह संसार मायामय है । संसार में जो जन्म लेता है, उसे माया का शिकार होना पड़ता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, हितेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेषणा—ये सब माया की सेना हैं । संसार में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसे इस माया ने पागल न किया हो । इससे बचने के लिए किसी संत के चरणों की शरण या सद्गुरु का सहारा लेना आवश्यक होता है । सद्गुरु की सेवा से जो ज्ञान मिलता है, वह विनय और विवेक सिखाता है । विद्या विनय और विवेक से ही सफल होती है अन्यथा ज्ञान का अहंकार मनुष्य को विनाशकारी बना देता है ।
गुरु-शिष्य परम्परा
प्राचीन काल में पढ़ाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही था; इसलिए गुरु होने का अधिकार केवल ब्राह्मण को ही था । वह ब्राह्मण जो केवल जाति का ही नहीं, कर्म का भी ब्राह्मण हो, अर्थात् जो ब्राह्मण संध्या करे, जितेन्द्रिय हो; जो गुण और कर्म दोनों से भी ब्राह्मण हो । अधिकांश गुरु वनवासी किंतु गृहस्थ होते थे ।
प्राचीन काल में शिष्य विद्याध्ययन के लिए वर्षों गुरुकुल में रहते थे । गुरु के परिवार के सदस्य के रूप में गृहकार्य में हाथ बंटाते थे । जब ब्रह्मचारी शिष्य विद्याध्ययन पूर्ण होने पर घर लौटता था तो कृतज्ञता-ज्ञापन में सामर्थ्यानुसार गुरु दक्षिणा समर्पित करता था । ‘दक्षिणा’ शब्द दक्षता या कौशल से लिया गया है जो शिष्य को गुरु कृपा से प्राप्त होती थी ।
भगवान श्रीकृष्ण और बलराम भी उज्ज्यिनी क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के तट पर सान्दीपनि मुनि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए गए और वहां आश्रम में रहकर गुरुदेव की सेवा करने लगे । जिसके श्वास से वेदों की रचना हुई है, उसे पढ़ने की क्या जरुरत हैं ? भगवान श्रीकृष्ण ने पढ़ने के आदर्श को संसार के समक्ष प्रस्तुत किया ।
श्रीकृष्ण और बलराम आश्रम में पानी भरते और आश्रम की गौ चराते थे । गुरुजी जो कहते श्रीकृष्ण उसे ध्यान से सुनते थे । एक बार सुनने पर ही उन्हें सब कुछ कंठस्थ हो जाता था । सान्दीपनि मुनि के यहां श्रीकृष्ण ने चौंसठ दिन में चारों वेद और उसके छहों अंग–शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द सीख लिए । इसके साथ ही आलेख्य, गणित, गानविद्या, और वैद्यक भी सीख लिया । बारह दिन में हाथी, घोड़े की शिक्षा प्राप्त की । पचास दिनों में धनुर्वेद के दसों अंगों की शिक्षा पूरी कर ली । इस प्रकार श्रीकृष्ण का ज्ञान अखण्ड था । सनत्कुमार के जिस प्रश्न का उत्तर स्वयं ब्रह्मा भी न दे सके, उसका समाधान श्रीकृष्ण ने किया ।
विद्याध्ययन पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण ने सांदीपनि गुरु को वंदन कर कहा—‘गुरुदेव ! मुझे कुछ दक्षिणा देनी है, आप कुछ आज्ञा कीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करुं ।’
गुरुजी ने कहा—‘मैंने यह ज्ञान तुम्हें कुछ लेने के लिए नहीं दिया है । मैं ज्ञान का विक्रय नहीं करता । यह क्षिप्रा नदी मुझे जल देती है, वृक्ष मुझे फल-फूल देते हैं । मुझे इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए ।’ जिसे जल और फल से संतोष है, वही सच्चा गुरु है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘गुरुदेव ! आपने मुझे जो बोध देकर ज्ञान-दान किया है, उसकी तुलना में संसार में कोई दूसरी चीज नहीं है । ज्ञान-दान से लोक-परलोक की तृप्ति होती है, अखण्ड तृप्ति मिलती है । आपने मुझे सिखाया कि अखण्ड आनन्द कहां है ? आपने हमारा अज्ञान दूर किया है; इसलिए मेरी भावना कुछ सेवा करने की है ।’
श्रीकृष्ण के बहुत आग्रह करने पर गुरुजी ने कहा—‘मैंने तुम्हें जो ज्ञान दिया है उसके बदले यदि तुमको कोई शिष्य मिले तो विद्या की वंश वृद्धि करना ।’
श्रीकृष्ण ने गुरु माता के पास जाकर कहा—‘माता ! मुझे कुछ आज्ञा कीजिए, मुझे आपकी सेवा करनी है ।’
गुरु माता जानती थीं कि श्रीकृष्ण कोई साधारण विद्यार्थी नहीं हैं । अत: उन्होंने कहा—‘हम लोग जब प्रभास क्षेत्र की यात्रा पर गए थे, उस समय मेरा पुत्र समुद्र में डूब कर मर गया था । यदि संभव हो तो, उस बालक को तुम वापिस ले आओ ।’
गुरु माता को ऐसी दक्षिणा भगवान को छोड़कर भला दूसरा कौन दे सकता है ? श्रीकृष्ण ने प्रभास जाकर पंच राक्षसों का विनाश किया । उनका पंचजन्य शंख धारण किया । इसके बाद वे यमपुरी गए । यमराज ने श्रीकृष्ण को गुरु-पुत्र अर्पण किया । श्रीकृष्ण ने उस बालक को लाकर गुरु माता को सौंप दिया । अपना मृत पुत्र वापिस पाकर गुरु माता का हृदय द्रवित हो गया, उन्होंने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया ।
आशीर्वाद न तो मांगने से मिलता है और न ही पैसों की भेंट से मिलता है । जब हृदय पिघलता है तब आशीर्वाद उस पिघले हृदय से फूट-फूट कर निकलता है ।
गुरु माता ने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया—‘तुम्हारे मुख में सरस्वती का वास होगा, चरणों में लक्ष्मी का वास होगा, तुम्हारी कीर्ति सारे संसार में फैली रहेगी, तुम कभी भी ज्ञान को नहीं भूलोगे ।’
ज्ञान प्राप्त करना इतना कठिन नहीं है जितना कि उसको स्थिर रखना । सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त ज्ञान स्थिर रहता है ।
श्रीकृष्ण द्वारा गुरु की आज्ञा का पालन
श्रीकृष्ण ने अपने गुरु की ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा का अच्छी तरह से पालन किया । अर्जुन श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानते थे । जब अर्जुन ने कहा कि ‘भगवन् ! मैं उलझन में पड़ गया हूँ । आप मुझे ज्ञान दीजिए ।’
तब भगवान श्रीकृष्ण ने मोहजाल में फंसकर निर्जीव पड़े अर्जुन को गीतारूपी ‘दुग्धामृत’ का जो पान कराया उससे अर्जुन के हृदय के सारे विकार कपूर की तरह उड़ गये और उसे अपने कर्तव्य का ज्ञान हो गया । जब भगवान ही स्वयं उपदेशक हों वहां मनुष्य के मोह, अज्ञान आदि विकार रह ही कैसे सकते हैं ?
केवल चौंसठ दिन की शिक्षा के बाद श्रीकृष्ण ने जो भगवद्गीता का ज्ञान संसार को दिया, पांच हजार साल बीत जाने पर भी उसके जोड़ की दूसरी पुस्तक न बन सकी ।
गीता-वक्ता कृष्णजी, गीता-श्रोता पार्थ ।
गीता-कर्ता व्यासजी, दिखलाया परमार्थ ।।
दिखलाया परमार्थ, तत्त्व समझाया झीना ।
भक्तिमार्ग दु:साध्य, साध्य सीधा कर दीना।।
इसीलिए व्यासजी ने श्रीकृष्ण को ‘जगद्गुरु’ कहा है—
वसुदेवसुतं देवं कृष्ण चाणूर मर्दनम् ।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।१ ।।
अतसी पुष्प संकाशं हार नूपुर शोभितम् ।
रत्न कंकण केयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। २ ।।
कुटिलालक संयुक्तं पूर्णचन्द्र विभाननम् ।
विलसत् कुण्डल धरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। ३ ।।
मंदार गंध संयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजं ।
वरहि पिंचावचूड़ांगम् कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। ४ ।।
उत्फुल्ल पद्मपत्राक्षं नीलजीमृत संनिभम् ।
यादवानां शिरो रत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। ५ ।।
रुक्मिणी केलिसंयुक्तं पीताम्बरं सुशोभितम् ।
अवाप्त तुलसी गन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। ६ ।।
गोपिकानां कुचद्वन्धं कुंकुमांकित वक्षसम् ।
श्रीनिकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। ७ ।।
श्रीवत्सांक महोस्करम् वनमाला विराजितम् ।
शंख चक्र धरं देवं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।। ८ ।।