कल्पवृक्ष सम है सदा करुणामय हरिनाम।
चाह किये देता मुकति, प्रेम किये व्रजधाम।।
भगवान का नाम कितना पावन है, उसमें कितनी शान्ति, कैसी शक्ति और कितनी कामप्रदता है, यह कोई नहीं बतला सकता। अथाह की थाह कौन ले सकता है। जिसके माहात्म्य का ज्ञान बुद्धि से परे है, उसका वाणी से वर्णन कैसे हो सकता है?
एक साधु से किसी ने पूछा–’महाराज! नाम लेने से क्या होता है?’ साधु ने उत्तर दिया–’क्या होता है? नाम से क्या नहीं होता? जिस माया ने जगत् को मोहित कर रखा है, अज्ञानी बना रखा है, नाम के प्रभाव से वह माया भी मोहित हो जाती है, अपना प्रभाव खो देती है। चाहने से कहीं बहुत अधिक प्राप्त होता है। मनुष्य का चाहना-पाना दोनों मिट जाते हैं।
श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम् की रचना श्रीबिल्वमंगल ठाकुर द्वारा की गयी है जिन्हें ‘श्रीलीलाशुक’ कहा जाता है। यह स्तोत्र ७१ श्लोकों का है किन्तु यहां इसके कुछ प्रचलित श्लोक ही हिन्दी अनुवाद सहित दिए जा रहे हैं।
श्रीबिल्वमंगल : परिचय
सदियों पहले बिल्वमंगल नामक ब्राह्मण के मन को चिन्तामणि वेश्यारूपी ठगिनी माया ने ऐसा आसक्त किया कि वह अपने पिता की मृत्यु पर भी नहीं आया। गांव वालों ने उसे धर-पकड़कर पिता का श्राद्ध कराया। शाम होते ही बिल्वमंगल लोगों की कैद से छूटकर घनघोर बारिश में कोई नौका न मिलने से मुर्दे को पकड़कर नदी पार कर और काले नाग को रस्सी समझकर दीवार फांदकर चिन्तामणि वेश्या के घर पहुंचा। चिन्तामणि जिस प्रकार रूप की रानी थी उसी प्रकार संगीत की भी ज्ञानी थी। संगीत ने उसे भगवान के सौन्दर्य आदि गुणों व लीलाओं से परिचित करा दिया था। आज ब्राह्मण युवक के इस अध:पतन से अत्यधिक व्यथित होकर वह रोने लगी और उसके पैरों पर गिरकर बोली–’तुम ब्राह्मण हो किन्तु मुझसे भी ज्यादा गिर गए हो। भगवान से प्रेम करके तुम मुझे और अपने को बचाओ। भगवान तो सौन्दर्य-माधुर्य आदि के सिन्धु हैं, उन सिन्धु के एक बिन्दु के किसी एक कतरे में सारी दुनिया की सुन्दरता, मृदुता और मधुरता है। तुम उधर बढ़ो और मेरा तथा अपना भी कल्याण करो। याद रखना, अब वेश्या समझकर मेरे घर में कभी कदम मत रखना।’ बिल्वमंगल ने अपने पतित पूर्व संस्कारों को मिटाने के लिए बेल के पेड़ के कांटे से अपनी आंखें फोड़ लीं।
चिन्तामणि के वचन सुनकर बिल्वमंगल के हृदय में भगवत्प्रेम का बीज प्रस्फुटित हुआ और वह चल दिया उस श्रीकृष्णप्रेमरूपी अमृतसिन्धु में डुबकी लगाने। उसने ऐसा सरस गीत गाया कि लाखों को तार दिया। बिल्वमंगल के वे रस आज भी हमें रसासिक्त कर रहे हैं। बिल्वमंगल ने चिन्तामणि को अपना गुरु माना और अपने ग्रन्थ ‘कृष्णकर्णामृत’ का मंगलाचरण ‘चिन्तामणिर्जयति’ से किया।
बालकृष्ण का ध्यान
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि।।
जिन्होंने अपने करकमल से चरणकमल को पकड़ कर उसके अंगूठे को अपने मुखकमल में डाल रखा है और जो वटवृक्ष के एक पर्णपुट (पत्ते के दोने) पर शयन कर रहे हैं, ऐसे बाल मुकुन्द का मैं मन से स्मरण करता हूँ।
श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम्
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव।
जिह्वे पिवस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे जिह्वे ! तू ‘श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारि ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव ! तथा गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’–इस नामामृत का ही निरन्तर प्रेमपूर्वक पान करती रह।
विक्रेतुकामाखिलगोपकन्या मुरारिपादार्पितचित्तवृत्ति:।
दध्यादिकं मोहवशादवोचद् गोविन्द दामोदर माधवेति।।
जिनकी चित्तवृत्ति मुरारि के चरणकमलों में लगी हुई है, वे सभी गोपकन्याएं दूध-दही बेचने की इच्छा से घर से चलीं। उनका मन तो मुरारि के पास था; अत: प्रेमवश सुध-बुध भूल जाने के कारण ‘दही लो दही’ इसके स्थान पर जोर-जोर से ‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’ आदि पुकारने लगीं।
गृहे गृहे गोपवधूकदम्बा: सर्वे मिलित्वा समवाप्य योगम्।
पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं गोविन्द दामोदर माधवेति।।
व्रज के प्रत्येक घर में गोपांगनाएं एकत्र होने का अवसर पाने पर झुंड-की-झुंड आपस में मिलकर उन मनमोहन माधव के ‘गोविन्द, दामोदर, माधव’ इन पवित्र नामों को नित्य पढ़ा करती हैं।
सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णो: प्रवदन्ति मर्त्या:।
ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति।।
अपने घर में ही सुख से शय्या पर शयन करते हुए भी जो लोग ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन विष्णुभगवान के पवित्र नामों को निरन्तर कहते रहते हैं, वे निश्चय ही भगवान की तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं।
जिह्वे सदैवं भज सुन्दराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि।
समस्त भक्तार्तिविनाशनानि गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे जिह्वे ! तू सदा ही श्रीकृष्णचन्द्र के ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मनोहर मंजुल नामों को, जो भक्तों के समस्त संकटों की निवृत्ति करने वाले हैं, भजती रह।
सुखावसाने इदमेव सारं दु:खावसाने इदमेव ज्ञेयम्।
देहावसाने इदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति।।
सुख के अंत में यही सार है, दु:ख के अंत में यही गाने योग्य है और शरीर का अंत होने के समय भी यही मन्त्र जपने योग्य है, कौन-सा मन्त्र? यही कि ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’
जिह्वे रसज्ञे मधुर प्रिया त्वं सत्यं हितं त्वां परमं वदामि।
आवर्णयेथा मधुराक्षराणि गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे रसों को चखने वाली जिह्वे ! तुझे मीठी चीज बहुत अधिक प्यारी लगती है, इसलिए मैं तेरे हित की एक बहुत ही सुन्दर और सच्ची बात बताता हूँ। तू निरन्तर ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मधुर मंजुल नामों की आवृत्ति किया कर।
त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे समागते दण्डधरे कृतान्ते।
वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे जिह्वे! मैं तुझी से एक भिक्षा मांगता हूँ, तू ही मुझे दे। वह यह कि जब दण्डपाणि यमराज इस शरीर का अन्त करने आवें तो बड़े ही प्रेम से गद्गद् स्वर में ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मंजुल नामों का उच्चारण करती रहना।
श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवर्धननाथ विष्णो।
जिह्वे पिवस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे जिह्वे ! तू ‘श्रीकृष्ण ! राधारमण ! व्रजराज ! गोपाल ! गोवर्धन ! नाथ ! विष्णो ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’–इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह।
स्तोत्र पाठ से लाभ
विपत्ति के समय श्रद्धाभक्तिपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ किया जाए तो मनुष्य के सारे दु:ख स्वयं भगवान हर लेते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का नित्य पाठ करने से भगवान साधक के चित्त में प्रवेश कर विराजने लगते हैं जिससे उसके समस्त कल्मष धुल जाते हैं, चित्त व अन्त:करण रूपी दर्पण स्वच्छ हो जाता है और जो आनन्दामृत प्रदान करने के साथ मनुष्य को मोक्ष भी प्रदान करता है।
एक बार ‘कृष्ण’ नाम ही हर लेता है जितने पाप।
नहीं जीव की शक्ति, कर सके वह जीवन में उतने पाप।। (चैतन्य चरित)
जय श्री राधे जय श्री कृष्ण। आपका यह पेज भी उतना ही पावन है। जितना कि श्री मदभागवत महापुराण की कथा। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। बोलिये श्री विरनदावन बिहारी लाल जी की जय। आप पर मेरे श्री बांके बिहारी लाल जी की कृपा सदेव रहे ऐसी कामना श्री पिभु के चरणों में करता हूँ।
धन्यवाद भैयाजी! आपकी इतनी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक आभार। आगे भी आप इसी तरह मेरा मनोबल बढ़ाते रहें।
जय श्री राधे कृष्ण जी महाप्रभु सरकार जी की आप को धन्यवाद जी
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Thanks
हरे कृष्ण
इस प्रकार का एक प्रयास जयपुर में एक अनूठे प्रकार से चल रहा है । भगवान श्री कृष्ण की पवित्र वाणी भगवत गीता को हिंदी में साप्ताहिक क्लास के रूप में पढ़ाया जाता है । श्री रामसुखदासजी की “साधक संजीवनी “ के आधार पर सारा अध्ययन होता है । इसके प्रभाव से हज़ारों लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आए है ।भगवान की बातें आचरण में आने लगी है अभी इस तरह की क्लास अहमदाबाद दिल्ली कानपुर इत्यादि में भी शुरू हुई है । अगर किसी की रुचि हो तो मुझ से सम्पर्क कर सकता है 7726851990
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प्रणाम जय श्री कृष्ण महोदय आपकी कृपा से ही इन श्लोकों का भावार्थ समझा जय हो
राधाकृष्ण राधाकृष्ण
Shree Krishna Govind Hare Murare Hey Nath Narayan Vasudev.