श्रीराधा की परमप्रिय अष्टसखियां

श्रीराधामाधव की निकुंजलीला में नियुक्त रहकर अष्टसखियां उनको सेवा-सुख प्रदान करती रहती हैं। श्रीराधा की अंतरंग सेवा में रहने वाली अष्टसखियों को निकुंजलीला के अत्यन्त गोपनीय स्थानों में भी प्रवेश प्राप्त है।

क्यों मधुर है श्रीकृष्ण का रास-नृत्य ?

‘रास’ का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों से है। रास वृन्दावन का वास्तविक नृत्य है। श्रीकृष्ण अकेले रास नहीं कर सकते। रास की आधार हैं श्रीराधा; इसलिए उन्होंने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के साहचर्य से रास रचाया, रस बरसाया, रस प्राप्त किया और रस प्रदान किया तथा ‘रासबिहारीलाल’ कहलाए। भगवान श्रीकृष्ण की अन्तरंग आह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी और उनकी निजस्वरूपा गोपबालाओं के साथ होने वाली कन्हैया की रस एवं माधुर्य से ओत-प्रोत संगीतमय लीला का नाम ‘रास’ है।

नृत्यकला के आदिगुरु भगवान श्रीकृष्ण (I)

क्रोध में उन्मत्त, भीषण विषधर कालियनाग के भयानक फनों पर नृत्य करना भगवान श्रीकृष्ण की नृत्यकला की पराकाष्ठा है। तलवार की धार पर, सूत पर तथा अग्नि में भी कुशल कलाकार नृत्य कर लेते हैं; पर यहां सौ फन वाले सर्प के फनों पर नृत्य हो रहा था। भगवान शंकर तो ताण्डव करते हैं, किन्तु व्रजराज श्रीकृष्ण आज विचित्रताण्डव कर रहे हैं। श्रीकृष्ण के नागनृत्य में उनकी शरीरसाधना, चरणविन्यास, विचित्र मनोयोग और अनुपम सौन्दर्य का अद्भुत मेल है। इसके अलावा नंदमहल में श्रीकृष्ण की बालसुलभ क्रीड़ाओं में भी उनकी अद्वितीय नृत्यकला देखने को मिलती है।

अद्भुत है श्रीकृष्ण-चरित्र

द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया। क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है? भगवान की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है। इसीलिए महर्षि व्यास ने उन्हें प्रकृतिरूपी नटी को नचाने वाला सूत्रधार और ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ कहा है।

जीवन जीने की कला सिखाती है श्रीमद्भगवद्गीता

संसार में जीवन जीने की कला एक विद्या है। यदि हम उस विद्या को अच्छी तरह जान जाएं तो हमारा बेड़ा पार है। गीता जीवन जीने की कला सिखाने वाली ब्रह्मविद्या है।

अनन्त शास्त्रों का सार ‘श्रीमद्भगवद्गीता’

श्रीमद्भगवद्गीता भगवान के विभूतिरूप मार्घशीर्षमास में, भगवान की प्रिय तिथि शुक्लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा एकादशी) को धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी है जो उन्होंने अर्जुन को निमित्त बनाकर कही है। एक ही शास्त्र है--'श्रीमद्भगवद्गीता'; एक ही आराध्य हैं--देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण, एक ही मन्त्र है--उनका नाम (कृष्ण, गोविन्द, माधव, हरि, गोपाल आदि) और हमारा एक ही कर्त्तव्य है--भगवान श्रीकृष्ण की सेवा-पूजा और श्रद्धा से उन्हें हृदय में धारण करना।

श्रीकृष्ण का चतुर्भुजरूप और श्रीराधा

श्रीराधा और गोपांगनाएं नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की मधुर कान्ताभाव से सेवा-आराधना करती हैं। न वे श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य को जानती हैं, न मानती हैं, न उसे देखने की कभी उनमें इच्छा ही जागती है। वरन् श्रीकृष्ण के चतुर्भुजरूप को देखकर वे डरकर संकोच में पड़ जाती हैं। उन्हें जहां जरा भी श्रीकृष्ण का ऐश्वर्यरूप दिखायी दिया, वहीं वे अपने ही प्रियतम श्यामसुन्दर को श्यामसुन्दर न मानकर कुछ अन्य मानने लगती हैं। व्रज में श्रीकृष्ण की भगवत्ता या उनके परमेश्वररूप की कोई पूछ नहीं है।

श्रीकृष्ण के रोग की अनोखी दवा

’उपाय यह है कि कोई सती स्त्री श्रीकृष्ण के केशों से बनी इस डोर पर चलती हुई यमुनाजी के उस पार तीन बार जाए और लौट कर आए; फिर इस छिद्रयुक्त कलसी में यमुनाजल लाकर श्रीकृष्ण पर छिड़के तो उनकी चेतना वापिस आ जाएगी।’ यशोदाजी ने अपना माथा पकड़ लिया--’क्या व्रज में ऐसी कोई सती है जो ऐसा साहस कर सके!’

अक्षय तृतीया पर प्रमुख मन्दिरों में चंदन-यात्रा की झांकी

वृंदावन के प्रमुख मंदिरों में अक्षय तृतीया के दिन भगवान् के विग्रहों को (दोनों नेत्र छोड़कर) चन्दन के लेप से पूरा ढक दिया जाता है और श्रीअंगों को चंदनचित्रों से सजाया जाता है। एक साधारण मानव की तरह भगवान भी वैशाख और ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी से परेशान होकर जलक्रीड़ा और नौका विहार करना चाहते हैं। चंदन-यात्रा जगन्नाथजी की इसी मानवीय लीला का एक जीवन्त रूप है।

भक्ति की मधुरता : चंदन-यात्रा उत्सव

भक्त अपने भगवान की सेवा के अवसर ढूंढता है और रसमय श्रीकृष्ण अपने भक्तों को आनन्द प्रदान करने के लिए लीला करने के अवसर ढूंढते हैं। दोनों में यह अलौकिक स्पर्धा चलती रहती है। भगवान अपने रूप व लीलाओं से भक्त का मन चुराते हैं, और भक्त अपने भाव से ही भगवान को आनन्द देता है। यही भक्ति की मधुरता है।