bhagwan krishna with flute

इस पृथ्वी पर भगवान में भक्ति होना एक महान भाव है, जो वैकुण्ठ और ब्रह्मलोक में नहीं है । जो प्राणी पुण्यों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं, वे पुण्य समाप्त होने पर पुन: चौरासी के चक्कर में गिर पड़ते हैं । लेकिन भक्त भगवान से मुक्ति न मांग कर बार-बार जन्म मांगते हैं, जिससे वे अपने ठाकुर की नित्य-नियम से सेवा, कीर्तन, नाम-जप व उत्सव आदि कर उन्हें रिझाते रहें । 

भगवान को पाने के लिए मनुष्य अनेक प्रकार के उपाय करता है । कोई ज्ञानयोग जैसे—भागवत, गीता, पुराणों व धर्म-ग्रंथों के अध्ययन आदि का आश्रय लेता है, तो कोई व्रत-उपवास, जप-तप से प्रभु को पाने की आस लगाता है । कुछ लोग कर्मयोग जैसे—गरीबों, असहायों व बीमारों की सहायता करना, पशु-पक्षियों की सेवा करना, आदि सत्कर्मों का रास्ता अपनाते हैं, तो कुछ नित्य का कोई नियम ले लेते हैं; जिसे पूरा किए बिना वे अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करते हैं । लक्ष्य सबका एक ही है—कैसे भी भगवान की कृपा हो और इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएं ।

ऐसे ही नित्य-नियम का कठोर आचरण करने वाले जोगा परमानंद नाम के भगवान पंढरीनाथ (पाण्डुरंग, विट्ठल, श्रीकृष्ण) के एक महान भक्त हुए हैं, जिनका जीवन-चरित्र बहुत ही प्रेरणादायक है—

नित्य-नियम का कठोर आचरण करने वाले भक्त जोगा परमानंद

पुराने समय में दक्षिण भारत के वाशी नगर में भगवान के भक्त हुए जोगा परमानंद । उन्हें बचपन में ही पीताम्बरधारी, वनमाली श्रीहरि के दर्शन हो गए थे । जोगा को तो परमानंद रूपी अमृत मिल चुका था; इसलिए वे रात-दिन ‘राम-कृष्ण-हरि’ जपते रहते । सांसारिक विषयों के पीछे भागने वाले लोग उन्हें पागल कहते थे ।

थोड़ा बड़ा होने पर वे पंढरपुर आ गए । उनका नित्य का नियम था कि वे पहले पंढरीनाथ का षोडशोपचार पूजन करते फिर गीता के एक श्लोक को पढ़ कर साष्टांग नमस्कार करते । इस प्रकार गीता के सात सौ श्लोक पढ़ कर वे पंढरीनाथ को 700 बार साष्टांग नमस्कार करते थे । जब तक उनका यह नियम पूरा नहीं हो जाता था; तब तक वह अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करते थे ।

गर्मी हो या सर्दी, पानी बरसे या पत्थर; जोगा के नेत्रों के सामने पंढरीनाथ का श्रीविग्रह रहता, हृदय में उनका ध्यान, मुख में गीता के श्लोक और सारा शरीर साष्टांग दण्डवत् करने में लगा रहता । ज्येष्ठ के महीने में जब पृथ्वी गर्म तवे-सी तपती या पौष मास में बर्फ-सी शीतल हो जाती या वर्षा में कीचड़ से पट जाती; जोगा की साष्टांग दण्डवत् चलती रहती । लोग उन्हें ‘गीता दण्डवती भक्त’ कहते थे ।

एक बार जब वे भगवान पंढरीनाथ के मंदिर के महाद्वार पर गीता के श्लोक बोलते हुए सात सौ बार साष्टांग नमस्कार कर रहे थे; वहां एक व्यापारी आया । उसने देखा कि जोगा का शरीर कीचड़ से सन गया है; क्योंकि रात्रि में बारिश होने से महाद्वार के पास कीचड़ हो गई थी । व्यापारी जोगाजी की कष्ट सहन करने की शक्ति और भक्ति देखकर श्रद्धानवत् हो गया । वह पास की दुकान से एक सुंदर पीताम्बर खरीद लाया और जोगा को देने लगा ।

जोगा ने कहा—‘भाई ! यदि तुम्हें मुझ पर दया आती है तो कोई फटा-पुराना वस्त्र दे दो, यह पीताम्बर तो भगवान पंढरीनाथ को ही फबता है, उन्हें ही चढ़ाओ ।’

लेकिन व्यापारी नहीं माना । व्यापारी के अत्यधिक आग्रह करने पर जोगा ने वह पीताम्बर ले लिया । दूसरे दिन जोगा पीताम्बर पहन कर पंढरीनाथ को साष्टांग नमस्कार करने लगे । लेकिन आज जोगा का मन रेशमी पीताम्बर के मोह में पड़ गया । वे बार-बार पीताम्बर को कीचड़ से बचाने में ही लगे रहे; इसलिए दोपहर होने तक भी अपना नित्य का नियम पूरा नहीं कर सके । 

भक्ति-मार्ग में दयामय भगवान अपने भक्त की सदा उसी प्रकार रक्षा करते हैं, जैसे एक स्नेहमयी मां सदा अपने अबोध शिशु की रक्षा करती है । जो अपने को श्रीहरि के चरणों में अर्पित कर चुका है, वह जब कभी भूल करता है; तब कृपासिंधु भगवान उसे सुधार देते हैं । 

अचानक जोगा के हृदय से एक वाणी निकली और किसी ने पूछा–’जोगा ! तू वस्त्र को देखने में लगा है । आज तू मुझे नहीं देखता ।’ जोगा ने दृष्टि उठाई तो उन्हें अनुभव हुआ कि सामने पंढरीनाथ कुछ मुसकराते, उलाहना देते हुए खड़े हैं ।

पीताम्बर के कारण नित्य-नियम में विघ्न पड़ते देख कर जोगा को बहुत दु:ख हुआ और वह महाद्वार पर बैठ कर पश्चात्ताप के कारण आंसू बहाने लगा । तभी जोगा ने एक किसान को सुन्दर बैलों की जोड़ी पर धुरा (जुआ) रखे जाते देखा । उन्हें अपने अपराध के प्रायश्चित के लिए एक अद्भुत उपाय सूझा । 

उन्होंने किसान से कहा—‘भैया ! यह बहुमूल्य पीताम्बर ले लो और कुछ समय के लिए ये बैलों की जोड़ी मुझे दे दो । मुझे हल से बांध दो और बैलों को दो चाबुक जड़ो; ताकि ये मुझे घसीटते हुए दूर तक ले जाएं । फिर तुम आकर बैलों को ले जाना ।’

कहते हैं ‘लोभ ही समस्त पापों की जड़ है—लोभमूलानि पापानि’ । बहुमूल्य पीताम्बर देख कर किसान लोभ में आ गया । उसका विवेक खत्म हो गया । किसान ने जोगा को जुए के साथ बांध कर बैलों पर चाबुक फटकारे तो बैल प्राण बचाने के लिए दूर जंगल की तरफ भाग निकले । बहुत दूर तक पत्थरों, कंकड़ों और कांटों पर घिसटने से जोगा का शरीर लहूलुहान हो गया, रक्त की धारा बह चली थी । जैसे-जैसे शरीर छिलता, घिसटता; वैसे-वैसे उनकी प्रसन्नता बढ़ती जाती और भगवान के नामों का स्वर ऊंचा होता जाता था और वैसे-वैसे ही बैल और जोर से भड़क कर भागते जाते थे ।

अब जोगा के प्राण निकलने ही वाले थे, फिर भी उनके मुख से नित्य-नियम के गीता के श्लोक व ‘राम-कृष्ण-हरि’ की टेर निकलती ही जा रही थी । भक्त की नित्य-नियम की निष्ठा पूरी हो गई । अब भक्तवत्सल भगवान से अपने प्यारे भक्त का कष्ट देखा नहीं गया । पीताम्बर पहने वनमाली पंढरीनाथ बैलों के बीच से प्रकट हो गए । 

भगवान ने स्वयं अपने हाथों से जोगा को हल के बंधन से मुक्त किया और बोले–’तुमने अपने शरीर को इतना कष्ट क्यों दिया ? भला तुम्हारा ऐसा कौन-सा अपराध था ? तुम्हारा शरीर तो मेरा हो चुका है, तुम जो खाते हो, वह मेरे ही मुख में जाता है । तुम चलते हो तो मेरी ही प्रदक्षिणा होती है । तुम जो भी बातें करते हो, वह मेरी ही स्तुति है । जब तुम सुख से लेट जाते हो, तब वह मेरे चरणों में तुम्हारा साष्टांग प्रणाम हो जाता है । तुमने यह कष्ट उठाकर मुझे रुला दिया है ।’

भगवान ने जोगा को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया । भगवान का स्पर्श होते ही जोगा की समस्त पीड़ा, सारे घाव हवा हो गए । नित्य-नियम का इतना कठोर पालन करने वाले जोगा को भगवान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने सदा के लिए अपना बना लिया और जोगा उनमें एकाकार हो गए ।

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